'पांच साल केजरीवाल' - ये नारा 2014 के बाद का है और इसका सफर अभी तीन-साल-केजरीवाल वाले पड़ाव से कुछ ही आगे बढ़ा है. 2014 में अरविंद केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी को वाराणसी लोक सभा सीट पर चैलेंज किया था - और बुरी तरह हार गये थे. हार का ये सिलसिला पंजाब और गोवा से लेकर दिल्ली के एमसीडी चुनावों तक केजरीवाल के साथ लगा रहा. बस बवाना की सीट आम आदमी पार्टी ने बचा ली, इतना जरूर हुआ.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ केजरीवाल विपक्षी खेमे में विरोध की मजबूत आवाज रहे हैं - और मोदी विरोध के मंचों पर अक्सर देखे जाते रहे हैं. अब तक कर्नाटक और जंतर मंतर ही दो ऐसे मौके रहे हैं जब केजरीवाल पूरे विपक्ष के साथ खड़े नजर आये हैं. हालांकि, जंतर मंतर पर आयोजकों ने इस बात का पूरा ख्याल रखा था कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से आमना सामना न हो सके.
अब अचानक अरविंद केजरीवाल ने आगे का रास्ता अकेले चलने का ऐलान कर दिया है. 2019 में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी किसी भी संभावित गठबंधन का हिस्सा नहीं बनने जा रही है.
हाल फिलहाल दो गठबंधन चर्चा में रहे हैं - गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेस गठबंधन लेकिन अब तक कोई भी खड़ा नहीं हो पाया है. सवाल ये है कि केजरीवाल ने तभी क्यों ऐसा ऐलान कर दिया जब गठबंधन अस्तित्व में ही नहीं आ पाया है?
केजरीवाल का 'एकला चलो रे' क्या कहलाता है?
राज्य सभा के उपसभापति चुनाव से पहले सब कुछ ठीक ठाक लग रहा था. हफ्ते भर भी नहीं हो रहे हैं जब अरविंद केजरीवाल ने जंतर मंतर पहुंच कर विपक्ष की हौसलाअफजाई की. हां, ये जरूर था कि मोदी सरकार पर बरसते हुए थोड़ा सा कांग्रेस को भी छुआ दिया था. मुजफ्फरपुर की घटना के प्रसंग में केजरीवाल ने याद दिलाया कि निर्भया कांड की वजह से यूपीए का सिंहासन हिल गया. केजरीवाल के ये बोल कर चले जाने के बाद राहुल गांधी भी जंतर मंतर पहुंचे और कैंडल प्रोटेस्ट में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया.
केजरीवाल फिर से!
आप की जिंदगी में ये पहला मौका था जब राज्य सभा चुनाव में उसके वोट की भूमिका होती. मगर हालात ऐसे बने कि कुछ भी नहीं हुआ. अंत में आप के सदस्यों ने वोटिंग से अलग रहने का फैसला किया. राज्य सभा सदस्य संजय सिंह ने आप के इरादे पहले ही जाहिर कर दिये थे. संजय सिंह का कहना रहा कि आप ने राष्ट्रपति चुनाव में और उपराष्ट्रपति चुनाव दोनों में विपक्षी उम्मीदवार को वोट दिया, लेकिन उसे कोई तवज्जो नहीं दिया गया. साथ ही, शर्त रखी गयी कि अब अगर कांग्रेस को आप का सपोर्ट चाहिये तो राहुल गांधी खुद अरविंद केजरीवाल को फोन कर सपोर्ट मांगें. फिर भी ऐसा कुछ नहीं हुआ.
ऊपर से दिल्ली कांग्रेस नेता अजय माकन ने आप को ज्यादा गुरूर न करने की सलाह दी और कहा कि अगर 2013 में कांग्रेस का समर्थन नहीं मिला होता तो आप आज इतिहास का हिस्सा होती.
कहीं ऐसा तो नहीं कांग्रेस की सलाह नागवार गुजरी और केजरीवाल ने बड़ा झटका देने का फैसला किया?
अरविंद केजरीवाल की सबसे बड़ी पैरोकार ममता बनर्जी रही हैं. ममता बनर्जी कई बार केजरीवाल को विपक्षी खेमे में बाइज्जत जगह बख्शने की पुरजोर कोशिश की है. मगर, कांग्रेस नेतृत्व ने ध्यान नहीं दिया. फिलहाल ममता कांग्रेस के साथ नजर आ रही हैं. एक वजह ये भी है कि राहुल गांधी ने ममता या मायावती के नाम पर ऐतराज न होने की बात कह दी है.
एकला चलने की घोषणा केजरीवाल ने हरियाणा के रोहतक में की और विधानसभा चुनाव के साथ ही साथ हरियाणा की सभी लोक सभा सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कही. केजरीवाल ने साफ किया कि आम आदमी पार्टी किसी भी संभावित महागठबंधन का हिस्सा नहीं बनेगी - और जो पार्टियां महागठबंधन में शामिल हो रही हैं, उनकी देश के विकास में कोई भूमिका नहीं रही है.
अब सवाल ये है कि क्या केजरीवाल का महागठबंधन के कंसेप्ट से भरोसा उठ गया है या फिर वजह कुछ और ही है?
2019 के प्लान में कितना दम?
2014 के आम चुनाव में केजरीवाल वाराणसी लोक सभा सीट पर मोदी के खिलाफ चुनाव लड़े थे. मोदी से हार का अंतर तो काफी था लेकिन कांग्रेस उम्मीदवार को केजरीवाल ने काफी पीछे छोड़ दिया था. वाराणसी सीट बीजेपी का गढ़ रहा है. अयोध्या आंदोलन बाद से ये सिर्फ एक बार कांग्रेस के हाथ लगी है - 2004 में. जब वाजपेयी सरकार के जाने के बाद जब यूपीए का सत्ता में लौटना हुआ, उसी दरम्यान कांग्रेस के राजेश मिश्रा लोक सभा पहुंच गये. वैसे किसी जमाने में वाराणसी कांग्रेस नेता कमलापति त्रिपाठी का गढ़ रहा है.
अब केजरीवाल की पार्टी 2014 की तरह ही कुछ ज्यादा चुने हुए सीटों पर लड़ेगी या फिर दिल्ली की तरह देश के सभी सीटों पर. तस्वीर अभी बस इतनी साफ हुई है कि हरियाणा में सभी सीटों पर उतरने वाली है.
पंजाब और गोवा विधानसभा चुनावों में केजरीवाल को जीत की पूरी उम्मीद रही, लेकिन नतीजों ने सपनों पर पानी फेर दिया. यही वजह रही कि बार बार घोषणा के बावजूद आम आदमी पार्टी ने गुजरात चुनाव में रस्म अदायगी निभायी. पहले ही साफ कर दिया कि चुनाव वही लड़े जिसके खाते में जरूरी रकम हो. सबसे बड़ा झटका दिल्ली के एमसीडी चुनाव में मिला अमित शाह की रणनीतिक सुनामी में आप की राजनीति कहां बह गयी पता भी नहीं लगा. बाद में केजरीवाल को दिल्ली पर फोकस भी देखा गया है. यही वजह है कि राजौरी गार्डन गंवाने के बावजूद केजरीवाल ने बवाना पर कब्जा बरकरार रखा. ऐसा लगता है केजरीवाल को गठबंधन से नहीं बल्कि अपने मन के गठबंधन न होने से परहेज है. निश्चित तौर पर वो गठबंधन का नेतृत्व चाह रहे होंगे और मौजूदा कोशिशों में तो ये कतई मुमकिन नहीं दिखता.
फिर क्या केजरीवाल का कोई अपना मोर्चा खड़ा करने का इरादा है? ऐसे कयासों को मजबूती केजरीवाल की कुछ मुलाकातों से लगती है. केजरीवाल और कमल हासन की मुलाकात भी इन्हीं में से एक है. जब तमिलनाडु में नये मिजाज की राजनीति शुरू हो चुकी है, फिर क्या केजरीवाल अब कमल हासने से भी मुंह मोड़ लेंगे? ऐसा तो नहीं लगता.
एक बात और - केजरीवाल ने यूपी में दलित युवा नेता चंद्रशेखर उर्फ रावण से मिलने का फैसला किया है. आखिर इस प्रस्तावित मुलाकात में भी तो कोई मैसेज छिपा ही होगा.
केजरीवाल को यूपी में बैंडविथ मिल गया क्या?
2017 के विधानसभा चुनाव में आप की हिस्सेदारी के सवाल पर केजरीवाल का जवाब था - यूपी में बैंडविथ नहीं है. अब जबकि केजरीवाल ने सहारनपुर में कार्यक्रम और भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर से मुलाकात का इरादा जताया है, फिर तो मान कर चलना चाहिये कि यूपी में आप को बैंडविथ मिल गया है.
मई 2017 में अचानक चंद्रशेखर उर्फ रावण चर्चा में आये. कुछ ही दिन बाद सहारनपुर में हुई जातीय हिंसा में उनका नाम आया और पुलिस ने गिरफ्तार कर उन्हें जेल भेज दिया. नवंबर 2017 में चंद्रशेखर को हाई कोर्ट से जमानत जरूर मिली लेकिन पुलिस ने उनके लिए पहले से ही उपाय सोच लिया था - रासुका. तब से तीन तीन महीने बढ़ाया जाता रहा है - और चंद्रशेखर के लिए जेल से निकलना मुश्किल हो रहा है.
ऊना मार्च से उभरे दलित युवा नेता जिग्नेश मेवाणी ने गुजरात चुनाव जीत कर विधायक बनने के बाद दिल्ली में प्रेस कांफ्रेंस किया - और फिर दिल्ली मार्च भी किया - मकसद था रावण को रिहा कराना. उसके बाद मेवाणी खुद महाराष्ट्र हिंसा जैसे दूसरे विवादों में घिर गये.
अब अरविंद केजरीवाल चंद्रशेखर से मिलने की तैयारी कर रहे हैं. दिल्ली मुख्यमंत्री कार्यालय की ओर से सहारनपुर जिला प्रशासन को पत्र भेजा गया था कि अरविंद केजरीवाल 13 अगस्त को सहारनपुर आएंगे और जेल में बंद रावण से मुलाकात करना चाहते हैं. जिलाधिकारी की ओर से इस बारे में जेल प्रशासन से रिपोर्ट मांगी गयी. जेल अधीक्षक की ओर से बताया गया कि जेल में किसी भी कैदी से मिलने के लिए जेल मैनुअल में उसके परिजन, दोस्त या वकील के ही मिलने की अनुमति है - राजनीतिक मुलाकात का जेल मैनुअल में कोई प्रावधान नहीं है.
आम आदमी पार्टी की ओर से कहा जा रहा है कि जेल प्रशासन अनुमति नहीं देता है तो भी केजरीवाल जेल जाएंगे. फिर तो ये मुलाकात दोस्त बन कर ही संभव है - या फिर जेल के आगे एक धरना तय मान कर चलना चाहिये.
तो सहारनपुर जेल पर धरना देगें केजरीवाल?
ऐसे में जबकि देश में दलित राजनीति बेहद खास हो चली है. कांग्रेस अलग अलख जगाये हुए है. मोदी सरकार एससी-एसटी एक्ट को पुराने फॉर्म में वापस ला रही है - केजरीवाल की सक्रियता उनकी वाली राजनीति में नयी राह का संकेत दे रही है.
अब सवाल ये उठता है कि केजरीवाल सिर्फ मोदी विरोध के नाम पर चंद्रशेखर का सपोर्ट कर रहे हैं - या फिर दलित राजनीति के जरिये यूपी में बैंडविथ तलाश रहे हैं - और उसी के सहारे आगे की रणनीति तय करने का फैसला किया है.
बात देखने वाली बस ये है कि केजरीवाल और उनकी टीम प्रधानमंत्री मोदी को पांच साल बाद एक बार फिर बनारस वाले अंदाज में ही चैलेंज करने का इरादा तो नहीं कर रखा है? अगर बनारस के हिसाब से पांच साल बाद भी केजरीवाल मोदी को चैलेंज करने की योजना बना रखे हैं तो नतीजा तो याद ही होगा - फिर कैसे बनारस की हार का बदला ले पाएंगे?
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