राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को सड़क पर उतार कर कांग्रेस बड़े पैमाने पर तैयारी कर रही है. पहले भारत जोड़ो यात्रा को 2024 के आम चुनाव से जोड़ कर देखने पर कांग्रेस नेता गुमराह करने की कोशिश करते थे, लेकिन अब वे खुशी खुशी स्वीकार करने लगे हैं कि लक्ष्य की तरफ कांग्रेस की गाड़ी पटरी पर तो आ ही चुकी है - जल्दी ही रफ्तार भी भरने वाली है.
कांग्रेस अब राहुल गांधी को 'जननायक' के रूप में प्रोजेक्ट करने लगी है. 'भारत जोड़ो यात्रा' के बाद कांग्रेस 'हाथ से हाथ जोड़ो' जोर पकड़ने वाला है - और खास बात ये है कि पहली यात्रा में पार्ट टाइमर रहीं प्रियंका गांधी वाड्रा अगले अभियान में फुल टाइम देने जा रही हैं - और संकेत ऐसे मिल रहे हैं कि यूपी में फेल हो चुके महिला कार्ड को फिर से आजमाने की तैयारी हो रही है.
यूपी के बाद कांग्रेस के महिला कार्ड का कर्नाटक में फिर से परीक्षण हो सकता है - अगर पहले की कमियों को सुधार कर नये सिरे से कोई रणनीति बनायी गयी है तो बात अलग है, वरना उम्मीद कम ही रखनी चाहिये. और हां, 'लड़की हूं... लड़ सकती हूं' को लेकर उत्तर प्रदेश में हुए विवादों से बचने की भी कोशिश करनी होगी.
भारत जोड़ो यात्रा के समापन के मौके पर कांग्रेस की तरफ से एक और कोशिश भी देखी गयी है. ये कोशिश है विपक्ष को जोड़ने की, लेकिन मल्लिकार्जुन खड़गे की आमंत्रण सूची से अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) और के. चंद्रशेखर राव जैसे नामों का गायब रहना थोड़ा हैरान कर रहा है.
ऐसा भी नहीं कि केजरीवाल और केसीआर को राहुल गांधी के पसंदीदा विपक्षी नेताओं की सूची में न रखे जाने के पीछे एक ही तर्क हो. केसीआर ने थोड़ा कांग्रेस के प्रति थोड़ा नरम रुख का संकेत जरूर दिया था. क्योंकि मल्लिकार्जुन खड़गे की मीटिंग में बीआरएस नेता के. केशव राव के जाने का और कोई कारण नहीं समझ में आया. लेकिन ठीक उसी दिन कांग्रेस नेताओं ने हैदराबाद पुलिस के एक्शन को लेकर केसीआर को खूब खरी खोटी सुनायी भी थी - और यहां तक कह डाला था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और...
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को सड़क पर उतार कर कांग्रेस बड़े पैमाने पर तैयारी कर रही है. पहले भारत जोड़ो यात्रा को 2024 के आम चुनाव से जोड़ कर देखने पर कांग्रेस नेता गुमराह करने की कोशिश करते थे, लेकिन अब वे खुशी खुशी स्वीकार करने लगे हैं कि लक्ष्य की तरफ कांग्रेस की गाड़ी पटरी पर तो आ ही चुकी है - जल्दी ही रफ्तार भी भरने वाली है.
कांग्रेस अब राहुल गांधी को 'जननायक' के रूप में प्रोजेक्ट करने लगी है. 'भारत जोड़ो यात्रा' के बाद कांग्रेस 'हाथ से हाथ जोड़ो' जोर पकड़ने वाला है - और खास बात ये है कि पहली यात्रा में पार्ट टाइमर रहीं प्रियंका गांधी वाड्रा अगले अभियान में फुल टाइम देने जा रही हैं - और संकेत ऐसे मिल रहे हैं कि यूपी में फेल हो चुके महिला कार्ड को फिर से आजमाने की तैयारी हो रही है.
यूपी के बाद कांग्रेस के महिला कार्ड का कर्नाटक में फिर से परीक्षण हो सकता है - अगर पहले की कमियों को सुधार कर नये सिरे से कोई रणनीति बनायी गयी है तो बात अलग है, वरना उम्मीद कम ही रखनी चाहिये. और हां, 'लड़की हूं... लड़ सकती हूं' को लेकर उत्तर प्रदेश में हुए विवादों से बचने की भी कोशिश करनी होगी.
भारत जोड़ो यात्रा के समापन के मौके पर कांग्रेस की तरफ से एक और कोशिश भी देखी गयी है. ये कोशिश है विपक्ष को जोड़ने की, लेकिन मल्लिकार्जुन खड़गे की आमंत्रण सूची से अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) और के. चंद्रशेखर राव जैसे नामों का गायब रहना थोड़ा हैरान कर रहा है.
ऐसा भी नहीं कि केजरीवाल और केसीआर को राहुल गांधी के पसंदीदा विपक्षी नेताओं की सूची में न रखे जाने के पीछे एक ही तर्क हो. केसीआर ने थोड़ा कांग्रेस के प्रति थोड़ा नरम रुख का संकेत जरूर दिया था. क्योंकि मल्लिकार्जुन खड़गे की मीटिंग में बीआरएस नेता के. केशव राव के जाने का और कोई कारण नहीं समझ में आया. लेकिन ठीक उसी दिन कांग्रेस नेताओं ने हैदराबाद पुलिस के एक्शन को लेकर केसीआर को खूब खरी खोटी सुनायी भी थी - और यहां तक कह डाला था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) और तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर में कोई फर्क नहीं है. एक बात ये भी है कि साल के आखिर में होने जा रहे तेलंगाना चुनाव में कांग्रेस केसीआर के साथ आमने सामने मुकाबला करने जा रही है.
ध्यान देने वाली चीज ये भी रही कि मल्लिकार्जुन खड़गे की उसी मीटिंग में आम आदमी पार्टी सांसद संजय सिंह भी शामिल हुए थे. निश्चित तौर पर ये भी आम आदमी पार्टी की तरफ से कांग्रेस के साथ सीजफायर का ही इशारा रहा होगा. गुजरात में कुछ खास नहीं कर पाने की वजह से भी ऐसा हो सकता है.
लेकिन फिर अचानक ही अरविंद केजरीवाल की तरफ से राहुल गांधी का मुंह मोड़ लेना थोड़ा अजीब तो लगता ही है. अजीब भले हो लेकिन कांग्रेस का ये कदम 2024 को लेकर उसकी रणनीति का भी इशारा करता है - और ये रणनीति सीधे चुनाव मैदान में खुद को आजमाने की हो सकती है. और ये भी हो सकती है कि जरा देख लिया जाये चुनाव नतीजे आने पर अरविंद केजरीवाल कितने पानी में नजर आते हैं? अगर आम आदमी पार्टी को हाल के गुजरात चुनाव जैसा ही रिस्पॉन्स मिलता है तब तो कोई बात ही नहीं - वरना, जैसे 2013 में कांग्रेस अरविंद केजरीवाल को सरकार बनाने में सपोर्ट किया था, आगे भी वैसा ही रुख अपना सकती है. तब अरविंद केजरीवाल तो खुद ही इस्तीफा देकर भाग खड़े हुए थे, लेकिन कांग्रेस का ऐसे मामलों में अलग ही इतिहास रहा है. जो काम इंदिरा गांधी ने चौधरी चरण सिंह के साथ किया था, करीब करीब वैसा ही रवैया चंद्रशेखर के मामले में राजीव गांधी ने दिखाया था.
क्षेत्रीय दलों की विचारधारा पर बहस तो राहुल गांधी ने उदयपुर के कांग्रेस कैंप में ही शुरू कर दी थी, लेकिन अब उसे जोर देकर आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. धीरे धीरे ये भी बताने लगे हैं कि कांग्रेस ही विपक्ष का नेतृत्व कर सकती है. और ये अपील भी कि 2024 में बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शिकस्त देने के लिए विपक्षी दलों को साथ आ जाना चाहिये.
जिस वक्त राहुल गांधी कांग्रेस वाले विपक्षी खेमे में क्षेत्रीय दलों को सम्मान देने की बात करते हैं, ऐन उसी वक्त उनको हिकारत भरी नजरों से भी देखते हैं. दिल्ली की प्रेस कांफ्रेंस में राहुल गांधी ने जिस तरह समाजवादी पार्टी का नाम लेकर अखिलेश यादव की औकात बताने की कोशिश की थी, उससे तो यही लगता है कि कांग्रेस नेतृत्व की सोच कैसी है?
ऐसा लगता है राहुल गांधी विपक्षी दलों के नेताओं को भी कांग्रेस नेताओं की तरह समझने लगे हों. लेकिन विपक्ष का भला कौन नेता राहुल गांधी के गुलामों जैसे व्यवहार के बावजूद उन पर जान छिड़कने के बारे में सोचने वाला है. जब मौजूदा दौर की सबसे मजबूत पार्टी बीजेपी से भी नीतीश कुमार, उद्धव ठाकरे और सुखबीर बादल को नाता तोड़ने में कोई झिझक नहीं होती, तो राहुल गांधी आखिर कांग्रेस को लेकर किस मुगालते में हैं?
AAP का अखिल भारतीय मिशन
बेशक अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम बार बार बता रही हो कि 2024 में आम आदमी पार्टी ही बीजेपी को चैलेंज करने जा रही है, लेकिन वहां तैयारी अलग ही चल रही है. चैलेंज की बात करना जनता में बस ये मैसेज देने की कोशिश है कि अरविंद केजरीवाल के प्रति भरोसा बढ़ सके.
अरविंद केजरीवाल और केसीआर की रणनीतियों में बुनियादी फर्क यही नजर आता है - और सबसे बड़ी बात ये है कि दोनों में से किसी भी नेता को 2024 के आम चुनाव से कोई खास मतलब नहीं है. केसीआर तो बस ये चाहते हैं कि जैसे भी संभव हो वो तेलंगाना की सत्ता में वापसी कर लें.
जैसे समाज में हर माता-पिता को अपने बच्चों की फिक्र होती है, राजनीति में ये कुछ ज्यादा ही होती है. और इस मामले में जैसा रुख सोनिया गांधी या लालू यादव का देखा गया है, केसीआर भी बिलकुल वैसा ही सोच रहे हैं.
अरविंद केजरीवाल की नजर दिल्ली की बड़ी कुर्सी पर तो है, लेकिन अभी वो खुद को कदम कदम पर तौलने की कोशिश कर रहे हैं. जमीन पर बने रहना भी जरूरी होता है, क्योंकि एक बार ऊपर उड़ने की कोशिश किये और तभी नीचे से जमीन भी खिसक गयी तो, आसानी से समझा जा सकता है क्या स्थिति होगी?
और यही वजह है कि अरविंद केजरीवाल धीरे धीरे पांव पसार रहे हैं. उनकी रणनीतियों से साफ है कि वो आम आदमी पार्टी का देश भर में संगठन खड़ा करना चाहते हैं. गुजरात चुनाव के बाद वो आप को राष्ट्रीय पार्टी बनाने के दावेदार हो गये हैं, जबकि केसीआर ने सिर्फ पार्टी का नाम ही बदला है. हालांकि, कर्नाटक में जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी के साथ चुनावी गठबंधन के पीछे उनका यही मकसद है. और जिस तरह से अपनी रैली में केजरीवाल के अलावा भगवंत मान और अखिलेश यादव को बुलाये हैं, भविष्य में कुमारस्वामी जैसी ही अपेक्षा हो सकती है.
कांग्रेस और आप का स्टैंड बिलकुल अलग है: संघ और बीजेपी के प्रति जनता की अदालत में राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल बिलकुल अलग अलग तरीके से जा रहे हैं - ये भी कह सकते हैं कि दोनों का तरीका एक दूसरे के उलट है.
राहुल गांधी देश भर में मोहब्बत की दुकान खोलने की बात कर रहे हैं. जब राहुल गांधी ये बताते हैं तभी बीजेपी की तरफ से ये समझाना शुरू कर दिया जाता है कि कांग्रेस के मोहब्बत की दुकान सिर्फ मुसलमानों के लिए खुलने जा रही है.
राहुल गांधी अपनी पूरी बात समझा भी नहीं पाते उससे पहले ही बीच में कूद कर बीजेपी की टीम उसकी हवा निकालने में जुट जाती है - और राहुल गांधी के मुकाबले प्रधानमंत्री मोदी को खड़ा कर दिया जाता है. चूंकि मोदी की लोकप्रियता काफी ज्यादा है, लोग बीजेपी वालों की बात मान लेते हैं - और जो सीधे सीधे बीजेपी की बात नहीं मानते उनके मन में शक पैदा करने की कोशिश होती है.
ऐसी तमाम कोशिशों के बावजूद कांग्रेस मुस्लिमों की पार्टी वाली अपनी छवि से बाहर निकल ही नहीं पा रही है - और ऐन उसी वक्त अरविंद केजरीवाल खुद को राष्ट्रवादी हिंदू के तौर पर पेश कर देते हैं. लोग क्या कहेंगे जैसी बातों की परवाह किये बगैर वो मांग कर बैठते हैं कि रुपये को मजबूत करने के लिए नोटों पर लक्ष्मी और गणेश की तस्वीरें छाप देने चाहिये.
अरविंद केजरीवाल को समझ आ चुका है कि हिंदू बहुल आबादी वाले देश में तुष्टीकरण की नीति अब तो बिलकुल भी नहीं चलने वाली है. केजरीवाल और कंपनी तय कर चुकी है कि जैसे भी संभव हो, बीजेपी के वोट बैंक में घुसपैठ कर ही आगे बढ़ने में भलाई है. वैसे भी राहुल गांधी की रणनीति पर भी तो केजरीवाल की नजर होगी है - कांग्रेस का क्या हाल हो रखा है, ये भी किसी से छिपा तो है नहीं.
दिल्ली से बाहर भी केजरीवाल का कनेक्ट है
अरविंद केजरीवाल की ही तरह राहुल गांधी के सामने पहले से ही ममता बनर्जी और नीतीश कुमार जैसे नेता मौजूद हैं. फर्क ये है कि अरविंद केजरीवाल को छोड़ कर चाहे वो ममता बनर्जी और नीतीश कुमार हों या फिर कोई भी क्षेत्रीय नेता अपने इलाके से बाहर उनकी पहुंच न के बराबर है. ऐसे नेताओं के दूसरे राज्यों में कुछ विधायक भले बन जाते हों, लेकिन मौजूदा दौर में ऐसा तो कोई और नेता नजर नहीं आता जिसकी अपने जनाधार वाले राज्य के अलावा किसी और राज्य में भी उसकी सरकार हो - सिर्फ अरविंद केजरीवाल की दिल्ली और पंजाब दो राज्यों में अपनी सरकार है.
मुश्किल ये है कि चाह कर भी ममता बनर्जी बंगाल से बाहर अपना जादू नहीं दिखा पा रही हैं. नीतीश कुमार के लिए तो बिहार की कुर्सी बचानी ही मुश्किल हो रही है, किसी दूसरे राज्य में जेडीयू की सरकार बनने की बात फिलहाल तो कोई सोच भी नहीं सकता.
पूरी जिंदगी हिंदुत्व, बल्कि कट्टर हिंदुत्व की राजनीति करने वाली शिवसेना के नेता उद्धव ठाकरे को तो राहुल गांधी की तरह ही जूझना पड़ रहा है कि वो भी हिंदुत्व की ही राजनीति करते हैं. महाराष्ट्र में कभी दबदबा हुआ करता होगा, लेकिन अभी तो बहुत ही बुरा हाल है.
जो हालात हैं, और जिस तरीके से अरविंद केजरीवाल अपने पांव फैला रहे हैं, न तो किसी और क्षेत्रीय दल में वैसा इरादा दिखता है, न ही कोई प्रयास ही - राहुल गांधी और जेपी नड्डा दोनों ही क्षेत्रीय दलों की विचारधारा पर एक राय रखते हैं, लेकिन अरविंद केजरीवाल के मन में ऐसी कोई परवाह ही नहीं लगती.
वो खुद को राष्ट्रवादी हिंदू नेता के साथ साथ गरीबों का मसीहा और मध्यम वर्ग का सबसे बड़ा मददगार साबित करने में जुटे हैं. बेशक ये देश को ट्रिलियन वाली अर्थव्यवस्था बनाने वाली सोच नहीं है, लेकिन माइक्रो इकनॉमी धीरे धीरे पैठ बनाती जा रही है.
भले ही अरविंद केजरीवाल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रेवड़ी कल्चर वाला नेता बताते रहें, लेकिन दिल्ली में लोग बच्चों की फीस नहीं बढ़ने से बहुत बड़ी राहत महसूस करते हैं. तभी तो पूरी बीजेपी के अरविंद केजरीवाल को आतंकवादी मानसिकता वाला साबित करने की कोशिश नाकाम हो जाती है, और अरविंद केजरीवाल अपनी राह आगे बढ़ते हुए दिल्ली ही नहीं पंजाब में भी सरकार बना लेते हैं - और ये भी नहीं भूलना चाहिये कि जब अरविंद केजरीवाल को लोग वोट दे रहे हैं तो छप्पर फाड़ मैंडेट ही दे डालते हैं.
कांग्रेस पहले, बीजेपी बाद में
अब तक तो यही समझ में आया है कि न तो राहुल गांधी और न ही अरविंद केजरीवाल कोई भी ऐसी स्थिति में नहीं पहुंच सका है जो वास्तव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी को 2024 में बहुत डैमेज कर पाये. अगर दोनों आगे चल कर हाथ मिला लें तो कुछ सोचा भी जा सकता है, लेकिन अभी तो यही नजर आ रहा है कि सब आपस में ही लड़ रहे हैं.
मतलब, किसी भी सूरत में और अभी की स्थिति में बीजेपी या मोदी को 2024 की बहुत ज्यादा फिक्र करने की जरूरत नहीं लगती - हां, 2029 में ही ऐसा ही माहौल बना रहेगा ये भी मान कर चलना खतरनाक होगा.
राहुल गांधी भले ही अरविंद केजरीवाल को हल्के में लेने की कोशिश करें, लेकिन अमित शाह ऐसा बिलकुल भी नहीं सोचते. वो किसी भी सूरत में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी का वोट शेयर नहीं बढ़ने देना चाहते. गुजरात चुनाव के दौरान वो बीजेपी नेताओं को बार बार यही बात समझाते भी रहे - और आखिरकार सफल भी रहे.
अब तो ये तस्वीर पूरी तरह साफ है कि आने वाले आम चुनाव में अरविंद केजरीवाल के निशाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं, बल्कि राहुल गांधी ही हैं. अरविंद केजरीवाल पहले राहुल गांधी यानी कांग्रेस को पीछे छोड़ना चाहते हैं - और फिर 2029 में चाहे जो भी बीजेपी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार हो, आमने सामने लड़ने की तैयारी कर रहे हैं.
बीजेपी पहले 25 साल के शासन की बात करती थी, लेकिन अब मंशा 50 भी पार कर चुकी है. हो सकता है राहुल गांधी को लगता हो कि हिमाचल प्रदेश के तुक्के की तरह 2024 में तीर भी निशाने पर लग जाएगा - लेकिन अरविंद केजरीवाल अपने हिसाब से 2029 की ही तैयारी कर रहे हैं, लेकिन उससे पहले वो 2024 में राहुल गांधी को पछाड़ना चाहते हैं.
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