अरविंद शर्मा (Arvind Sharma) को छह महीने में ही फिर से बधाइयां मिलने लगी हैं. बीजेपी में उपाध्यक्ष पद का नियुक्ति पत्र देते हुए प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह ने ही सबसे पहले बधाई दी - इससे पहले जनवरी, 2021 में यूपी बीजेपी अध्यक्ष ने डिप्टी सीएम दिनेश शर्मा के साथ पार्टी की सदस्यता दिलाते हुए बधाई दी थी.
लेकिन क्या अरविंद शर्मा को भी ऐसी ही बधाई की अपेक्षा रही होगी? क्या अरविंद शर्मा को दोबारा मिल रही बधाइयों से भी उतनी ही खुशी हो रही होगी, जितनी पहली बार में हुई थी?
क्या उत्तर प्रदेश में होने जा रहे विधानसभा चुनाव से पहले अरविंद शर्मा को जो बड़ी जिम्मेदारी दिये जाने की चर्चा रही वो बीजेपी में उपाध्यक्ष बनाया जाना ही रहा?
अगर वास्तव में ऐसा ही नहीं है, फिर तो नये सिरे से सवाल खड़े हो जाते हैं - क्योंकि जैसी चर्चाएं रही और उन चर्चाओं के हवाले से मीडिया में जो खबरें बनती रहीं वो तो सरकार में कोई बड़ी जिम्मेदारी दिये जाने को लेकर रहीं.
हैरानी इसलिए हो रही है क्योंकि अरविंद शर्मा कोई जमीन से संघर्ष के बूते उठे कार्यकर्ता नहीं हैं और उसके चलते बीजेपी में एमएलसी नहीं बने हैं - बल्कि वो तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के भरोसेमंद अफसर होने की वजह से पार्टी में लाये गये थे. वैसे ही जैसे केंद्र में एस. जयशंकर, हरदीप सिंह पुरी और केजे अल्फॉन्स को मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री मोदी की पसंद से लाया गया.
अगर बीजेपी में एक व्यक्ति एक पद वास्तव में कोई सर्वमान्य सिद्धांत है तो अरविंद शर्मा के उपाध्यक्ष बन जाने के बाद मान कर चलना होगा कि बाकी सारी चर्चाओं पर विराम लग जाना चाहिये - यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के दिल्ली दौरे से पहले तक तो अरविंद शर्मा को यूपी की बीजेपी सरकार में मंत्री बनाये जाने से लेकर डिप्टी सीएम तक बनाये जाने की चर्चा रही.
लेकिन अब तो ये समझना और भी जरूरी हो गया है कि ऐसा क्यों हुआ? आखिर यूपी सरकार में शामिल होते होते कैसे अरविंद शर्मा को अचानक संगठन...
अरविंद शर्मा (Arvind Sharma) को छह महीने में ही फिर से बधाइयां मिलने लगी हैं. बीजेपी में उपाध्यक्ष पद का नियुक्ति पत्र देते हुए प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह ने ही सबसे पहले बधाई दी - इससे पहले जनवरी, 2021 में यूपी बीजेपी अध्यक्ष ने डिप्टी सीएम दिनेश शर्मा के साथ पार्टी की सदस्यता दिलाते हुए बधाई दी थी.
लेकिन क्या अरविंद शर्मा को भी ऐसी ही बधाई की अपेक्षा रही होगी? क्या अरविंद शर्मा को दोबारा मिल रही बधाइयों से भी उतनी ही खुशी हो रही होगी, जितनी पहली बार में हुई थी?
क्या उत्तर प्रदेश में होने जा रहे विधानसभा चुनाव से पहले अरविंद शर्मा को जो बड़ी जिम्मेदारी दिये जाने की चर्चा रही वो बीजेपी में उपाध्यक्ष बनाया जाना ही रहा?
अगर वास्तव में ऐसा ही नहीं है, फिर तो नये सिरे से सवाल खड़े हो जाते हैं - क्योंकि जैसी चर्चाएं रही और उन चर्चाओं के हवाले से मीडिया में जो खबरें बनती रहीं वो तो सरकार में कोई बड़ी जिम्मेदारी दिये जाने को लेकर रहीं.
हैरानी इसलिए हो रही है क्योंकि अरविंद शर्मा कोई जमीन से संघर्ष के बूते उठे कार्यकर्ता नहीं हैं और उसके चलते बीजेपी में एमएलसी नहीं बने हैं - बल्कि वो तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के भरोसेमंद अफसर होने की वजह से पार्टी में लाये गये थे. वैसे ही जैसे केंद्र में एस. जयशंकर, हरदीप सिंह पुरी और केजे अल्फॉन्स को मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री मोदी की पसंद से लाया गया.
अगर बीजेपी में एक व्यक्ति एक पद वास्तव में कोई सर्वमान्य सिद्धांत है तो अरविंद शर्मा के उपाध्यक्ष बन जाने के बाद मान कर चलना होगा कि बाकी सारी चर्चाओं पर विराम लग जाना चाहिये - यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के दिल्ली दौरे से पहले तक तो अरविंद शर्मा को यूपी की बीजेपी सरकार में मंत्री बनाये जाने से लेकर डिप्टी सीएम तक बनाये जाने की चर्चा रही.
लेकिन अब तो ये समझना और भी जरूरी हो गया है कि ऐसा क्यों हुआ? आखिर यूपी सरकार में शामिल होते होते कैसे अरविंद शर्मा को अचानक संगठन में क्यों शिफ्ट कर दिया गया?
कहीं इसलिए तो नहीं - क्योंकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बीजेपी एमएलसी अरविंद शर्मा के साथ सरकार में एक हद से ज्यादा कुछ भी शेयर करने को तैयार नहीं हुए - तब भी जबकि मोदी-शाह (Modi-Shah) चाहते होंगे कि अरविंद शर्मा को सरकार में बड़ा रोल दिया जाये?
अरविंद शर्मा का संगठन में क्या काम?
यूपी बीजेपी में उपाध्यक्ष बनाये जाने के बाद मिल रही बधाइयों के लिए अरविंद शर्मा ने बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व के साथ ही प्रदेश कमान का भी शुक्रिया कहा है - और अपने ट्वीट में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा, यूपी बीजेपी अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह, मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और RSS को भी टैग किया है, लेकिन इस लिस्ट में अमित शाह का नाम नहीं है.
अरविंद शर्मा को बड़ी जिम्मेदारी और बड़ी भूमिका दिये जाने की चर्चा तो तभी से शुरू हो गयी थी जब वो सरकारी सेवा से वक्त से पहले ही वीआरएस ले लिये और फौरन ही उनको बीजेपी ने यूपी विधान परिषद में भेज दिया - बीजेपी एमएलसी बन जाने के बाद अरविंद शर्मा राजनीतिक पारी को समझने में ही लगे थे कि नयी जिम्मेदारी का फरमान मिला. ये तभी की बात है जब पूरे देश की तरह यूपी में भी कोरोना की दूसरी लहर का तांडव सड़क पर देखने को मिल रहा था.
अरविंद शर्मा को प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में कोरोना वायरस से बेकाबू होते हालात को हैंडल करने का काम सौंपा गया. ये काम वो सीधे प्रधानमंत्री मोदी की निगरानी में और प्रधानमंत्री कार्यलय के संपर्क में रहते हुए शुरू किये - ज्यादा दिन नहीं लगे और अरविंद शर्मा के काम की वाराणसी मॉडल के तौर पर तारीफ होने लगी.
प्रधानमंत्री मोदी ने कोरोना कंट्रोल के वाराणसी मॉडल की गुजरात यात्रा में भी तारीफ की और फिर जब वाराणसी के फ्रंट वर्कर्स के साथ संवाद कर रहे थे तब भी. गुजरात में वाराणसी मॉडल के जिक्र का महत्व इसलिए नहीं था कि वो प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र से जुड़ा मामला रहा, बल्कि इसलिए कि अरविंद शर्मा गुजरात कैडर क ही आईएएस अफसर रहे - और दिल्ली जाने से पहले कई साल तक मोदी के साथ मुख्यमंत्री कार्यालय में काम कर चुके थे.
बनारस के बाद यूपी के दूसरे जिलों में भी वाराणसी मॉडल की तर्ज पर कोविड 19 कंट्रोल रूप बनाये गये और अभी उसी के आधार पर काम चल रहा है. खबरों के मुताबिक, अरविंद शर्मा पूर्वांचल के 17 जिलों में कोविड 19 पर रोजाना एक्शन प्लान और डेली रिपोर्ट की निगरानी करते आ रहे हैं.
अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए अरविंद शर्मा की काफी उपयोगिता समझी जा रही थी. खासकर योगी आदित्यनाथ की प्रशासनिक क्षमता पर उठने वाले सवालों के जवाब के तौर पर, लेकिन उसमें राजनीति की भी उतनी ही गुंजाइश बनी हुई थी.
भला संगठन में जाकर अरविंद शर्मा क्या कर पाएंगे? अरविंद शर्मा के पास तो प्रशासनिक मामलों का पेशेवर और लंबा अनुभव है, लेकिन संगठन में उनके अनुभव का कोई इस्तेमाल भी हो पाएगा, फिलहाल तो ये समझ नहीं आ रहा है.
कोरोना कंट्रोल के मामले में भी जो 'वाराणसी मॉडल' अरविंद शर्मा ने पेश किया है वो कोई पॉलिटिकल प्रोग्राम तो है नहीं - वो तो सिर्फ प्रशासनिक काम है और अरविंद शर्मा ने अपने स्किल्स का पूरा इस्तेमाल किया है जिसे मिसाल के तौर पर लिया जा रहा है.
योगी ने बहुत बड़ा रिस्क ले लिया है
हाल फिलहाल के राजनीति वाकयों पर गौर करें तो योगी आदित्यनाथ ने भी ममता बनर्जी के सिर्फ नंदीग्राम विधानसभी सीट से चुनाव लड़ने के फैसले जैसा ही रिस्क ले लिया है - और ये भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैलेंज करने जैसा ही मामला है.
मीडिया से बातचीत में नाम न बताने की शर्त पर योगी आदित्यनाथ के करीबियों ने संकेत तो ऐसा ही दिया था. बताया गया था कि अरविंद शर्मा को योगी आदित्यनाथ राज्य मंत्री से ज्यादा कैबिनेट में जगह देने को तैयार नहीं थे - कैबिनेट रैंक तो कतई नहीं.
आलाकमान के संपर्क सूत्रों के जरिये बताते हैं कि योगी आदित्यनाथ ने ये पहले ही साफ कर दिया था, फिर भी दिल्ली तलब किया गया और सीनियर बीजेपी नेता अमित शाह के साथ डेढ़ घंटे तक मीटिंग चली. शाह के बाद योगी आदित्यनाथ की प्रधानमंत्री मोदी और जेपी नड्डा से भी मुलाकातें हुईं - और हर मुलाकात के बाद योगी ने जो ट्वीट किये एक शब्द कॉमन देखने को मिला था - मार्गदर्शन मिला.
जब योगी आदित्यनाथ दिल्ली पहुंचे थे तभी अपना दल नेता अनुप्रिया पटेल और निषाद पार्टी वाले संजय निषाद ने भी अमित शाह से मुलाकात की थी. तब ये चर्चा रही कि सहयोगी दलों के साथ मिल कर अगले चुनाव में उतरने से पहले दोनों दलों के नेताओं को भी योगी कैबिनेट में जगह मिल सकती है. कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी में आने वाले जितिन प्रसाद को लेकर भी ऐसी ही चर्चा रही - हालांकि, ये जरूरी नहीं कि अरविंद शर्मा से योगी आदित्यनाथ को जो परहेज है वही बाकियों के साथ भी हो सकता है.
निश्चित तौर पर योगी आदित्यनाथ ने अमित शाह से मुलाकात में ही अपना इरादा साफ कर दिया होगा, लेकिन बात इतनी आसानी से खत्म भी तो नहीं हो सकती.
योगी आदित्यनाथ को अपनी बात मनवाने के लिए जिम्मेदारी भी लेनी पड़ी होगी - और ये जिम्मेदारी भी बीजेपी को 2022 में सत्ता में वापसी कराने की जिम्मेदारी होगी. मुश्किल ये है कि ये जिम्मेदारी काफी जोखिम भरी भी है.
जोखिम भरी इसलिए भी क्योंकि अपने स्टैंड पर अड़े रहने के लिए योगी आदित्यनाथ को मोदी-शाह की मंशा की अवहेलना भी करनी पड़ी है - और संघ के सहकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले से न मिल कर उनकी भी नाराजगी मोल लेनी पड़ी है.
ऐसा भी नहीं कि 2014 के बाद योगी आदित्यनाथ कोई पहले मुख्यमंत्री हैं जो बीजेपी नेतृत्व को इस अंदाज में चैलेंज कर रहे हैं. राजस्थान में वसुंधरा राजे तो चुनावों से लेकर मुख्यमंत्री रहते संगठन की नियुक्तियों में भी मनमानी करती रही हैं. कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा भी तो 75 की उम्र पार हो जाने के बावजूद मार्गदर्शक मंडल का रुख करने के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हुए हैं.
ऐसा करने के नतीजे भी बीजेपी के कई नेता भुगत चुके हैं. हिमाचल प्रदेश चुनावों के दौरान अमित शाह जब प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने को तैयार न हुए तो वो प्रधानमंत्री मोदी को फोन कर दिये, लेकिन नतीजा ये हुआ कि धूमल चुनाव ही हार गये - और वो कोई ममता बनर्जी तो थे नहीं कि फिर भी मुख्यमंत्री बन जाते.
ऐसे ही आनंदी बेन पटेल को भी प्रधानमंत्री मोदी का गुजरात में उत्तराधिकारी बनाया जाना अमित शाह को कभी रास नहीं आया. फिर 2017 के चुनावों से कुछ पहले उनकी जगह विजय रुपाणी को मुख्यमंत्री बनाया गया और आनंदी बेन के अड़ जाने के बावजूद नितिन पटेल को डिप्टी सीएम ही बनाया जा सका.
तब विजय रुपाणी को चुनाव जीतने की जिम्मेदारी लेनी पड़ी थी और गारंटी अमित शाह ने खुद ली थी, लेकिन वैतरणी तो पार तभी लगी जब मोदी कैबिनेट ने गुजरात में डेरा डाल दिया और प्रधानमंत्री मोदी को मोर्चे पर आ डटे. प्रधानमंत्री मोदी का वो ऐतिहासिक भाषण तो याद होगा ही - 'हूं छू गुजरात, हूं छूं विकास!' हालांकि, तमाम तरीके से पापड़ बेलने के बाद भी बीजेपी 100 सीटों तक नहीं ही पहुंच पायी थी.
लगता है मोदी-शाह या संघ योगी आदित्यनाथ की भी नाराजगी नहीं मोल लेने को तैयार था - क्योंकि गोरखपुर उपचुनाव की हार तो भूले नहीं ही होंगे. उससे पहले भी गोरखपुर में बीजेपी उम्मीदवार शिवप्रताप शुक्ला को मिली शिकस्त भी कोई भूलने वाली घटना तो है नहीं.
फिर क्या समझा जाये - योगी आदित्यनाथ ने संघ और बीजेपी नेतृत्व की कमजोर नस पकड़ ली है - 2024 के आम चुनाव में यूपी की भूमिका को देखते हुए आलाकमना भी जोखिम उठाने की स्थिति में नहीं है. ऐसे में जो करना चाहो कर लो - और ये बात दोनों पक्षों पर एक साथ लागू हो रही है.
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