अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) अब आर पार की लड़ाई पर उतारू हैं. ये बात कांग्रेस आलाकमान को भी मालूम है, और वो खुद भी अच्छी तरह समझ रहे होंगे. निश्चित तौर पर वो एक अनुभवी राजनीतिज्ञ की तरह अपनी चालें चल रहे हैं, लेकिन ये भी नहीं भूलना चाहिये कि उनका भी पाला राहुल गांधी (Rahul Gandhi) जैसे नेता से पड़ा है.
कांग्रेस ने भले ही मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष बना लिया हो, लेकिन वो खुद भी कह चुके हैं कि वो गांधी परिवार के राय मशविरे से ही फैसले लेंगे. ये बात अशोक गहलोत भी भली भांति जानते हैं. गांधी परिवार को तो वो कई कांग्रेसियों से भी बेहतर जानते हैं. खासकर राहुल गांधी को.
अशोक गहलोत तो उन परिस्थितियों से भी रू-ब-रू होंगे ही जिन हालात में कैप्टन अमरिंदर सिंह को पंजाब के मुख्यमंत्री की कुर्सी से हाथ धोना पड़ा था - और वाकिफ तो उन वाकयों से भी होंगे ही जब हिमंत बिस्वा सरमा को कांग्रेस छोड़नी पड़ी थी. कांग्रेस तो कई नेताओं ने छोड़ी है. अलग अलग समय पर, अलग अलग परिस्थितियों में. लेकिन कौन किस तरीके से कांग्रेस छोड़ रहा है, ये समझना महत्वपूर्ण होता है.
जाने को तो कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद से पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया भी कांग्रेस छोड़ कर चले गये थे, लेकिन किसके जाने से कांग्रेस पर कितना फर्क पड़ा समझना ये जरूरी होता है. ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ साथ कांग्रेस ने मध्य प्रदेश की सरकार भी गंवा दी थी - और मिलते जुलते हालात में ही पंजाब भी गवां चुकी है.
ऐसी सारी घटनाएं करीब से देखने के बाद अशोक गहलोत के मन में थोड़ा बहुत डर तो होगा ही. ये ठीक है कि कभी नाव पर ऊंट होता है, और कभी उसका बिलकुल उलटा नजारा देखने को मिलता है - लेकिन अशोक गहलोत भी तो देश की उसी राजनीति का हिस्सा हैं.
आखिर वो ये क्यों भूल जाते हैं कि राहुल गांधी...
अशोक गहलोत (Ashok Gehlot) अब आर पार की लड़ाई पर उतारू हैं. ये बात कांग्रेस आलाकमान को भी मालूम है, और वो खुद भी अच्छी तरह समझ रहे होंगे. निश्चित तौर पर वो एक अनुभवी राजनीतिज्ञ की तरह अपनी चालें चल रहे हैं, लेकिन ये भी नहीं भूलना चाहिये कि उनका भी पाला राहुल गांधी (Rahul Gandhi) जैसे नेता से पड़ा है.
कांग्रेस ने भले ही मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष बना लिया हो, लेकिन वो खुद भी कह चुके हैं कि वो गांधी परिवार के राय मशविरे से ही फैसले लेंगे. ये बात अशोक गहलोत भी भली भांति जानते हैं. गांधी परिवार को तो वो कई कांग्रेसियों से भी बेहतर जानते हैं. खासकर राहुल गांधी को.
अशोक गहलोत तो उन परिस्थितियों से भी रू-ब-रू होंगे ही जिन हालात में कैप्टन अमरिंदर सिंह को पंजाब के मुख्यमंत्री की कुर्सी से हाथ धोना पड़ा था - और वाकिफ तो उन वाकयों से भी होंगे ही जब हिमंत बिस्वा सरमा को कांग्रेस छोड़नी पड़ी थी. कांग्रेस तो कई नेताओं ने छोड़ी है. अलग अलग समय पर, अलग अलग परिस्थितियों में. लेकिन कौन किस तरीके से कांग्रेस छोड़ रहा है, ये समझना महत्वपूर्ण होता है.
जाने को तो कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद से पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया भी कांग्रेस छोड़ कर चले गये थे, लेकिन किसके जाने से कांग्रेस पर कितना फर्क पड़ा समझना ये जरूरी होता है. ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ साथ कांग्रेस ने मध्य प्रदेश की सरकार भी गंवा दी थी - और मिलते जुलते हालात में ही पंजाब भी गवां चुकी है.
ऐसी सारी घटनाएं करीब से देखने के बाद अशोक गहलोत के मन में थोड़ा बहुत डर तो होगा ही. ये ठीक है कि कभी नाव पर ऊंट होता है, और कभी उसका बिलकुल उलटा नजारा देखने को मिलता है - लेकिन अशोक गहलोत भी तो देश की उसी राजनीति का हिस्सा हैं.
आखिर वो ये क्यों भूल जाते हैं कि राहुल गांधी जैसा दुस्साहस हर कोई नहीं दिखा सकता. गांधी परिवार से बाहर के शख्स के पास में कमान होने पर सोनिया गांधी के मन में भले ही कांग्रेस के हाथ से फिसल जाने का डर हो, लेकिन राहुल गांधी को कभी इस बात की परवाह नहीं रही. हिमंत बिस्वा सरमा के चले जाने के बाद कांग्रेस ने असम गवां दिया और राहुल गांधी पर जरा भी फर्क नहीं पड़ा - और तभी भी वो दुस्साहसिक तरीके से पंजाब में एक्सपेरिमेंट करते रहे.
पंजाब में राहुल गांधी ने जो स्टैंड लिया वो इसलिए क्योंकि वो नवजोत सिंह सिद्धू सही मानते रहे. राजस्थान के मामले में भी राहुल गांधी ऐसा ही समझते रहे कि अशोक गहलोत जो भी कह रहे हैं, ठीक ही कह रहे हैं. सचिन पायलट (Sachin Pilot) के धैर्य की मिसाल देते हुए कटाक्ष करना भी तो यही संकेत देता है कि राहुल गांधी को भी उनके ज्योतिरादित्य सिंधिया की राह अख्तियार करने का पूरा शक रहा होगा.
लेकिन अब वो बात नहीं रही. सचिन पायलट और अशोक गहलोत की पोजीशन राहुल गांधी की नजर में बदल चुकी है. हाल तक राहुल गांधी को लगता है कि सचिन पायलट के साथ नाइंसाफी हो रही है, लेकिन अब लग रहा होगा कि अशोक गहलोत बेकाबू होते जा रहे हैं - भले चीजें मिट्टी में मिल जायें, लेकिन गांधी परिवार ये सब बर्दाश्त नहीं करने वाला है.
क्या अशोक गहलोत के हाथ कांग्रेस नेतृत्व यानी गांधी परिवार की कोई कमजोर कड़ी लगी हुई है जिसकी बदौलत वो ये तेवर दिखा रहे हैं?
जैसे वो अंदर ही अंदर ब्लैकमेल कर रहे हों और सोनिया गांधी मन मसोस कर रह जाती हों और वैसा ही हाल राहुल गांधी का भी हो? या फिर गांधी परिवार ऐसे एहसानों तले दबा हुआ है कि जब तक संभव हो निभाने की कोशिश की जा रही हो - और गहलोत हैं कि मानते ही नहीं?
ये खींचतान ज्यादा नहीं चलने वाली
जो कुछ भी गंवाने को तैयार हो. जिसे किसी चीज की परवाह न हो. जिसकी सत्ता या राजनीति में दिलचस्पी ही न हो, उसका भला कोई क्या कर सकता है? कभी इशारों में तो कभी साफ साफ राहुल गांधी ये बातें कई बार बता चुके हैं.
अशोक गहलोत अगर ये सब जानते हुए भी राहुल गांधी से पंगा ले रहे हैं तो बेशक उनके दिमाग में कोई रणनीति तो होगी ही. जिस मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए अशोक गहलोत ने डंके की चोट पर थाली में सजा कर परोसा जा रहा कांग्रेस अध्यक्ष का पद ठुकरा दिया, उसके लिए तो वो कुछ भी कर सकते हैं. किसी भी हद तक जा सकते हैं.
और फिलहाल सबसे बड़ा सवाल यही है कि कांग्रेस आलाकमान ने अशोक गहलोत की बात नहीं मानी तो वो क्या क्या कर सकते हैं?
अशोक गहलोत राजनीति की अपनी पूरी पारी खेल चुके हैं. और बड़े मजे से खेला है. राजस्थान के मुख्यमंत्री होने के साथ साथ केंद्र सरकार में भी मंत्री रहे ही - संगठन महासचिव रहते हुए भी कांग्रेस का कामकाज संभाला और अभी गुजरात चुनाव में कांग्रेस के सीनियर ऑब्जर्वर हैं.
सचिन पायलट को लेकर अशोक गहलोत के ताजा बयानों को ध्यान से देखें तो ये समझना मुश्किल नहीं है कि 25 सितंबर को हुई विधायकों की बगावत के पीछे उनका हाथ नहीं था. भले ही वो उस वाकये को टाल न पाने के लिए सोनिया गांधी से मुलाकात में और सार्वजनिक तौर पर माफी मांग चुके हों, लेकिन अब एक तरीके से यही जताने की कोशिश कर रहे हैं कि वो सारा खेल उनका ही था, विधायकों ने अपने से कुछ भी नहीं किया था.
हिमंत बिस्वा सरमा और ज्योतिरादित्य सिंधिया तो कांग्रेस छोड़ कर चले गये. जो हो सका और किये वो बात अलग है - लेकिन अशोक गहलोत ने ये भी तो देखा है कि किस तरह 2017 के पंजाब चुनाव से पहले कैप्टन अमरिंदर सिंह और 2019 के हरियाणा चुनाव से पहले भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने गांधी परिवार पर दबाव बना कर अपनी बात मनवा ली थी.
दोनों ही मौकों पर दोनों ही नेताओं ने करीब करीब एक ही तरीके से, अलग अलग माध्यमों और गतिविधियों से ही सही, कांग्रेस नेतृत्व को मैसेज डिलीवर कर दिया था - अगर ज्यादा खींचा तो वे कांग्रेस को तोड़ कर अपनी नयी पार्टी बना लेंगे.
अशोक गहलोत भी यही सोच कर चल रहे होंगे कि कुछ भी हो लेकिन राहुल गांधी कांग्रेस के टूट जाने की नौबत नहीं आने देंगे - अगर वास्तव में वो ऐसा ही सोचते हैं तो गलत समझ रहे हैं. ये ठीक है कि कांग्रेस नेतृत्व के पास अहमद पटेल नहीं रहे, लेकिन अब नये रूप में मल्लिकार्जुन खड़गे मिल चुके हैं. मल्लिकार्जुन खड़गे पंजाब के मामले से भी जुड़े रहे हैं और राजस्थान का खेल तो उनकी आंखों के सामने ही हुआ है.
अब अगर अजय माकन ने राजस्थान के बागियों के खिलाफ एक्शन न लिये जाने की बात पर इस्तीफा दिया है, तो ये भी मान कर चलना चाहिये कि इस चाल के पीछे भी मल्लिकार्जुन खड़गे हो सकते हैं - और अजय माकन तो अशोक गहलोत तो काफी दिनों से झेल ही रहे थे. भला वो कैसे भूल पाएंगे जब गांधी परिवार के फरमान पहुंचाने के लिए लगातार डायल करते रहे और अशोक गहलोत कॉल रिसीव ही नहीं करते थे.
मुमकिन है अशोक गहलोत के पास कांग्रेस की कोई मास्टर-की हो, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व अपने दायरे में उनकी किस्मत का फैसला कर चुका है - 4 दिसंबर को भारत जोड़ो यात्रा के साथ राहुल गांधी राजस्थान का रुख कर रहे हैं और उसी दिन कांग्रेस की संचालन समिति की पहली बैठक बुलायी गयी है. कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद मल्लिकार्जुन खड़गे ने 26 अक्टूबर को 47 सदस्यों की एक संचालन समिति का गठन किया था जिसमें पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी भी शामिल हैं.
मुद्दे की बात ये है कि अशोक गहलोत ये नहीं भूलना चाहिये कि राहुल गांधी को भी एक सही मौके की तलाश है - और अगर ये मौका मिल गया तो अशोक गहलोत को भी कैप्टन अमरिंदर सिंह की तरह निबटाते देर नहीं लगेगी.
पायलट खामोशी ज्यादा दमदार है
पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू चुटकुले सुना कर ठोको ताली भले कहते फिरें, लेकिन पंजाब चुनाव में तो दर्शानी घोड़ा बन कर ही रह गये. जो नेता अपनी सीट भी न बचा सके उसके बारे में भला क्या कहा जा सकता है? ऐसा भी तो नहीं था कि पंजाब में आम आदमी पार्टी की कोई लहर चल रही थी - और सिद्धू उसकी चपेट में आ गये. सिद्धू हारे भी थे एक ऐसे उम्मीदवार से जिसका पहले राजनीति से दूर का ही वास्ता रहा.
जैसे राहुल गांधी को पहले सिद्धू की बातें सही लगती थीं, वैसे ही अशोक गहलोत की भी लगती होंगी - और जैसे सिद्धू धीरे धीरे कांग्रेस आलाकमान का भरोसा खोने लगे थे, अशोक गहलोत के साथ भी बिलकुल वैसा ही हो रहा है.
जैसे सोनिया गांधी ने 'सॉरी अमरिंदर' बोला था, अगर अब भी वो नहीं माने तो एक बार फिर से उसी टोन में 'सॉरी अशोक' भी बोल देंगी - और फिर तो खेल खत्म ही समझना चाहिये. ऐसा ही गुरूर कैप्टन अमरिंदर सिंह को भी तो रहा, लेकिन विधायक दल की बैठक बुलायी गयी और एक लाइन के प्रस्ताव में सारा खेल बदल गया.
वैसा ही एक लाइन का प्रस्ताव राजस्थान में भी अपेक्षित था, लेकिन अशोक गहलोत ने टांग अड़ा दी - वो ये कि विधायक दल के नेता पर फैसले के लिए आलाकमान को अधिकृत किया जाता है.
अब बार बार अशोक गहलोत के ही मनमाफिक सब कुछ होगा ही, जरूरी भी तो नहीं. जैसे ही विधायकों को पता चलेगा कि अशोक गहलोत पावर सेंटर नहीं रहे, पाला बदलते देर लगेगी क्या? जब सत्ता के लिए विधायकों को सत्ता के लिए पार्टी बदलते देर नहीं लगती तो नेता बदलना मुश्किल होगा क्या?
ये तो कांग्रेस नेतृत्व को भी मालूम है कि अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री रहते भी कांग्रेस की सत्ता में वापसी की बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती, फिर वो मुख्यमंत्री न भी रहें तो क्या फर्क पड़ जाएगा. खुन्नस तो इस बात को लेकर है कि अशोक गहलोत गांधी परिवार की अवहेलना कर रहे हैं - और ऐसा करके कोई भी हो, कब तक टिक सकता है?
देखा जाये तो ठीक ऐसा ही मामला छत्तीसगढ़ में भी बना हुआ है. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल तैयार ही नहीं हैं कि राहुल गांधी के वादे के मुताबिक टीएस सिंहदेव को सौंपी जाये, लेकिन ये भी है कि अब तक कभी भी वो अशोक गहलोत जैसा रूप नहीं दिखाये हैं.
और सचिन पायलट भी पूरे धैर्य से काम ले रहे हैं. अशोक गहलोत बार बार उनको गद्दार बता रहे हैं, लेकिन सचिन पायलट का कहना है कि जोर इस बात पर होनी चाहिये कि कैसे कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो सके - अशोक गहलोत शायद ये भाव नहीं समझ पा रहे हैं.
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