ऐसा कम ही होता है. जैसा एग्जिट पोल, वैसे ही चुनावी नतीजों के रुझान - और नतीजे भी करीब करीब उसी जैसे. अगर 2019 नाम की कोई नयी सुबह आने वाली है तो पूर्व संध्या पर सियासी घमासान काफी दिलचस्प मुकाबले के संकेत दे रहा है.
राजस्थान को थोड़ा अलग रख कर के देखें तो मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सत्ता विरोधी कारक पिछले चुनावों में भी चुनौती बने होंगे. शिवराज सिंह और रमन सिंह के लिए सत्ता विरोधी फैक्टर इस बार इसलिए भी ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो गया क्योंकि उसमें केंद्र की मोदी सरकार के प्रति लोगों की नाराजगी ने आग में घी का काम कर दिया. नतीजा ये हुआ कि बीजेपी को अपने सबसे भरोसेमंद किले मध्य प्रदेश से भी बेदखल होने की नौबत आ पड़ी है.
मध्य प्रदेश
तीनों राज्यों में सिर्फ मध्य प्रदेश ऐसा है जहां बीजेपी थोड़ा बहुत संघर्ष करते नजर आयी है. मध्य प्रदेश में शिवराज को भी एक साथ दो-दो मोर्चों पर जूझना पड़ रहा था - एक अपनी सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर और दूसरी मोदी सरकार के खिलाफ.
लोगों के बीच मामा के रूप में पैठ बनाकर शिवराज सिंह चौहान भले ही व्यापम जैसे मुद्दों से ध्यान हटाने में सफल रहे, लेकिन किसानों, कारोबारियों और सवर्णों की नाराजगी की भारी कीमत चुकानी पड़ी.
मंदसौर से उपजे किसानों के गुस्से को कांग्रेस ने खूब भुनाया और बीजेपी को पुलिस फायरिंग की कीमत चुकानी पड़ी. राहुल गांधी फायरिंग की घटना के बाद तो गये ही, घटना की बरसी पर ऐसी घोषणा कर डाली जिसका सबसे ज्यादा असर लगता है. असर का इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि किसानों ने कांग्रेस के सत्ता में आने पर 10 दिन के भीतर कर्जमाफी पर भरोसा करते हुए लोन की रकम लौटाने ही बंद कर दिये.
मालवा जैसे रीजन में बीजेपी को अपने ही समर्थक कारोबारी...
ऐसा कम ही होता है. जैसा एग्जिट पोल, वैसे ही चुनावी नतीजों के रुझान - और नतीजे भी करीब करीब उसी जैसे. अगर 2019 नाम की कोई नयी सुबह आने वाली है तो पूर्व संध्या पर सियासी घमासान काफी दिलचस्प मुकाबले के संकेत दे रहा है.
राजस्थान को थोड़ा अलग रख कर के देखें तो मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में सत्ता विरोधी कारक पिछले चुनावों में भी चुनौती बने होंगे. शिवराज सिंह और रमन सिंह के लिए सत्ता विरोधी फैक्टर इस बार इसलिए भी ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो गया क्योंकि उसमें केंद्र की मोदी सरकार के प्रति लोगों की नाराजगी ने आग में घी का काम कर दिया. नतीजा ये हुआ कि बीजेपी को अपने सबसे भरोसेमंद किले मध्य प्रदेश से भी बेदखल होने की नौबत आ पड़ी है.
मध्य प्रदेश
तीनों राज्यों में सिर्फ मध्य प्रदेश ऐसा है जहां बीजेपी थोड़ा बहुत संघर्ष करते नजर आयी है. मध्य प्रदेश में शिवराज को भी एक साथ दो-दो मोर्चों पर जूझना पड़ रहा था - एक अपनी सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर और दूसरी मोदी सरकार के खिलाफ.
लोगों के बीच मामा के रूप में पैठ बनाकर शिवराज सिंह चौहान भले ही व्यापम जैसे मुद्दों से ध्यान हटाने में सफल रहे, लेकिन किसानों, कारोबारियों और सवर्णों की नाराजगी की भारी कीमत चुकानी पड़ी.
मंदसौर से उपजे किसानों के गुस्से को कांग्रेस ने खूब भुनाया और बीजेपी को पुलिस फायरिंग की कीमत चुकानी पड़ी. राहुल गांधी फायरिंग की घटना के बाद तो गये ही, घटना की बरसी पर ऐसी घोषणा कर डाली जिसका सबसे ज्यादा असर लगता है. असर का इससे बड़ा सबूत क्या होगा कि किसानों ने कांग्रेस के सत्ता में आने पर 10 दिन के भीतर कर्जमाफी पर भरोसा करते हुए लोन की रकम लौटाने ही बंद कर दिये.
मालवा जैसे रीजन में बीजेपी को अपने ही समर्थक कारोबारी तबके के गुस्से का शिकार होना पड़ा. जीएसटी से कारोबारी तबके की मुश्किलें जो बढ़ीं वो खत्म होने का नाम नहीं ले रही थीं. मौका मिलते ही कारोबारियों ने बीजेपी के खिलाफ बटन दबा दिये.
ऊपर से सवर्णों की नाराजगी ने बची खुची कसर पूरी कर दी. शिवराज सिंह चौहान ने एससी-एसटी एक्ट पर केंद्र के फैसले को लेकर सवर्णों की नाराजगी दूर करने के लिए वादा भी किया था - 'बगैर जांच हुए कोई भी गिरफ्तारी नहीं होगी. लगता नहीं कि शिवराज सिंह को इसका जरा भी फायदा मिला क्योंकि व्यावहारिक पक्ष काफी कमजोर नजर आया. शिवराज सिंह ने भी बाद के दिनों में इस मुद्दे को कोई अहमियत नहीं दी.
छत्तीसगढ़
जिस तरह मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह मामा के रूप में लोकप्रिय रहे, वैसे ही छत्तीसगढ़ में रमन सिंह अपनी स्कीम के लिए 'चावल वाले बाबा' के रूप में जाने जाते रहे हैं. राज्य की 70 फीसदी आबादी खेती पर निर्भर है और उसमें चावल प्रमुख है. केंद्र की मोदी सरकार किसानों के कल्याण के लिए लाख दावे करे लेकिन उसकी योजनाओं का कोई फायदा किसानों को मिला भी ऐसा नहीं लगता. दूसरी तरफ, मंदसौर में किसानों की कर्जमाफी के ऐलान को आगे बढ़ाते हुए कांग्रेस नेता गंगाजल लेकर वादे निभाने के सौगंध खाते दिखे. गंगा की सफाई में लोगों को भले सरकारों से भरोसा टूट गया हो, लेकिन गंगाजल की सौगंध पर उन्हें यकीन जरूर हुआ है.
छत्तीसगढ़ में दलितों और आदिवासियों की नाराजगी रमन सरकार के खिलाफ प्रमुख मानी जाती रही. सूबे में पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने जब मायावती की बीएसपी से गठजोड़ किया तो माना गया कि इसका नुकसान कांग्रेस को होगा. गठजोड़ चुनावों में कोई खास जगह तो नहीं बना पाया लेकिन वोटकटवा का रोल कांग्रेस से ज्यादा बीजेपी के खिलाफ निभा दिया. कांग्रेस के दो नेताओं ने मायावती को कांग्रेस के खिलाफ और बीजेपी के पक्ष में पेश करने की भी कोशिश की थी. दिग्विजय सिंह का कहना रहा कि मायावती ने बीजेपी के दबाव में कांग्रेस का गठबंधन ठुकराया तो कमलनाथ कुछ खास सीटों में बीएसपी की दिलचस्पी के जरिये ये इशारा कर रहे थे कि वे बीजेपी को ही फायदा पहुंचाने वाले रहे.
राजस्थान
मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के हिसाब से देखें तो राजस्थान का केस थोड़ा अलग लगता है. राजस्थान में बीजेपी जिस रूप में खड़ी है उसका श्रेय प्रधानमंत्री मोदी को ही मिलेगा. राजस्थान में भी मोदी सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर जरूर रही, लेकिन वसुंधरा के खिलाफ गुस्सा कहीं ज्यादा रहा. एक तरफ सचिन पायलट 2014 में लोक सभा चुनाव हार कर भी लोगों के बीच लगातार जमे रहे, तो दूसरी तरह तमाम लोक लुभावन स्कीमों का ऐलान कर वसुंधरा राजे लोगों से दूर होती चली गयीं. वसुंधरा को लेकर लोगों में क्या धारणा बन चुकी थी, ऐसा बीजेपी दफ्तरों में भी दबी जबान में चर्चाएं हो जाती रहीं.
2008 के चुनाव में वसुंधरा के खिलाफ नारा था - 'ऐट 8 पीएम, नो सीएम', 10 साल बाद इसमें दो घंटे का फर्क आया. 2018 में ये स्लोगन हो गया - 'ऐट 6 पीएम, नो सीएम'. ऐसा देखा गया कि शाम होते ही मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे लोगों की पहुंच के बाहर हो जाया करती रहीं. पंजाब चुनाव में प्रशांत किशोर द्वारा के 'कॉफी विद कैप्टन' कार्यक्रम चलाने की यही वजह बतायी गयीथी - ताकि लोगों को यकीन हो कि महाराजा जनता से दूर नहीं हैं. राजस्थान के लोगों से कटने की कीमत भी वसुंधरा को चुकानी पड़ी है. उनकी गौरव यात्रा भी बेकार साबित हुई.
बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की टीम ने सत्ता विरोधी लहर से बचने के लिए बहुत से विधायकों के टिकट काटने की सलाह दी थी, लेकिन वसुंधरा राजे के आगे उनकी एक न चली.
राजस्थान को लेकर माना जा रहा था कि मोदी आये तो देर से लेकिन दुरूस्त नहीं आये. मोदी की रैलियों पर कांग्रेस खेमे से भी रिएक्शन आया किया मोदी हार को सम्मानजनक बनाने पहुंचे हैं. चुनावी नतीजों से ऐसा लगता भी है.
'...चौकीदार चोर है' स्लोगन के जरिये राहुल गांधी अपनी सभाओं में मोदी सरकार के भ्रष्टाचार की ओर ध्यान दिलाने की कोशिश करते रहे - हालांकि ये लोगों के लिए मनोरंजन से ज्यादा असर नहीं डाल पाया. इसके अलावा जो दो बातें राहुल गांधी कहना नहीं भूलते वे थीं - सत्ता में आने पर 10 दिन में किसानों की कर्जमाफी और युवाओं के लिए रोजगार के इंतजाम - लोगों को इसी बात की जरूरत महसूस हुई और वे सत्ता के खिलाफ बटन दबाने का फैसला एक बार कर लिये तो पीछे मुंड़ कर नहीं देखा.
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