सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में अयोध्या मामले (Ayodhya Land Dispute) का अगला अध्याय शुरू हो गया है. अब रिव्यू (Review Petition) यानी पुनरीक्षण याचिका. यानी अर्जी, नजर ए सानी का दौर शुरू हो गया है. पहली याचिका जमीअत उलेमा ए हिंद की ओर से आ गई है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (All India Muslim Personal Law Board) की ओर से मुकदमा लड़ रहे याचिकाकर्ताओं की आर्जियां आनी हैं. याचिकाएं नौ दिसंबर तक दाखिल करने की मियाद है. क्योंकि कायदे से फैसला आने के 30 दिनों के भीतर पुनर्विचार याचिकाएं दाखिल की जा सकती हैं. अब याचिकाएं दाखिल करने के बाद की प्रक्रिया पर बात कर लें? कानूनी प्रक्रिया के मुताबिक जो पीठ मूल याचिका की सुनवाई करती है वही पुनर्विचार याचिका पर भी विचार करती है. क्योंकि उसी पीठ के जजों को मुकदमे के हर मोड़ हर तर्क और दलीलों की जानकारी होती है. अब अयोध्या मामले (Ayodhya Issue) की बात करें तो इसकी सुनवाई करने वाली पांच जजों की पीठ में से एक जज यानी जस्टिस रंजन गोगोई (Justice Ranjan Gogoi) रिटायर हो चुके हैं. लेकिन इसी बेंच का हिस्सा रहे जस्टिस शरद अरविंद बोबडे (Sharad Arvind Bobde) अब मुख्य न्यायाधिपति हैं. लिहाजा उनका विशेषाधिकार है कि वो बेंच में एक और जज को शामिल करें ताकि कोरम पूरा हो सके.
पीठ के जजों की तादाद पूरी पांच होने के बाद कानूनी प्रक्रिया अपनी रफ्तार में आती है. यानी इसके बाद कायदा ये है कि सभी पुनर्विचार याचिकाएं पीठ के पांचों जजों को सर्कुलेट की जाती हैं. सभी उनका अध्ययन कर लेते हैं. इसके बाद उनकी चेंबर में मीटिंग होती है. मीटिंग में याचिका या याचिकाओं की मेरिट पर चर्चा होती है. अगर पीठ के सभी सदस्य...
सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) में अयोध्या मामले (Ayodhya Land Dispute) का अगला अध्याय शुरू हो गया है. अब रिव्यू (Review Petition) यानी पुनरीक्षण याचिका. यानी अर्जी, नजर ए सानी का दौर शुरू हो गया है. पहली याचिका जमीअत उलेमा ए हिंद की ओर से आ गई है. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (All India Muslim Personal Law Board) की ओर से मुकदमा लड़ रहे याचिकाकर्ताओं की आर्जियां आनी हैं. याचिकाएं नौ दिसंबर तक दाखिल करने की मियाद है. क्योंकि कायदे से फैसला आने के 30 दिनों के भीतर पुनर्विचार याचिकाएं दाखिल की जा सकती हैं. अब याचिकाएं दाखिल करने के बाद की प्रक्रिया पर बात कर लें? कानूनी प्रक्रिया के मुताबिक जो पीठ मूल याचिका की सुनवाई करती है वही पुनर्विचार याचिका पर भी विचार करती है. क्योंकि उसी पीठ के जजों को मुकदमे के हर मोड़ हर तर्क और दलीलों की जानकारी होती है. अब अयोध्या मामले (Ayodhya Issue) की बात करें तो इसकी सुनवाई करने वाली पांच जजों की पीठ में से एक जज यानी जस्टिस रंजन गोगोई (Justice Ranjan Gogoi) रिटायर हो चुके हैं. लेकिन इसी बेंच का हिस्सा रहे जस्टिस शरद अरविंद बोबडे (Sharad Arvind Bobde) अब मुख्य न्यायाधिपति हैं. लिहाजा उनका विशेषाधिकार है कि वो बेंच में एक और जज को शामिल करें ताकि कोरम पूरा हो सके.
पीठ के जजों की तादाद पूरी पांच होने के बाद कानूनी प्रक्रिया अपनी रफ्तार में आती है. यानी इसके बाद कायदा ये है कि सभी पुनर्विचार याचिकाएं पीठ के पांचों जजों को सर्कुलेट की जाती हैं. सभी उनका अध्ययन कर लेते हैं. इसके बाद उनकी चेंबर में मीटिंग होती है. मीटिंग में याचिका या याचिकाओं की मेरिट पर चर्चा होती है. अगर पीठ के सभी सदस्य जजों को लगता है कि हां, फैसले को लेकर जो सवाल याचिका में उठाए गये हैं जिन पर फिर से विचार करने की जरूरत है तो तभी मामले की सुनवाई खुली अदालत में होती है. वरना याचिका चेंबर हियरिंग में ही दम तोड़ देती है. बाहर तो सिर्फ खबर आती है. 'नो मेरिट फाउंड. रिव्यू पेटिशन डिसमिस्ड.'
सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू पेटिशन के नतीजों के इतिहास और रिकॉर्ड पर निगाह डालें तो 99.99% रिव्यू याचिकाएं चेंबर में ही दम तोड़ देती हैं. उन पर खुली अदालत में सुनवाई होती ही नहीं. अब इस मामले में क्या क्या हो सकता है इस पर विचार करें तो चेंबर में सुनवाई में भी ये डिसमिस हो सकती है या फिर बड़ा मामला है तो खुली राफेल और सबरीमला की तरह खुली अदालत की सैर भी कर सकती है.
चेंबर हियरिंग के दौरान इस याचिका के दम तोड़ देने के पीछे तर्क ये है कि बेंच के पांचों जजों ने एक राय से फैसला दिया था. लिहाजा इसमें बदलाव या पलटाव की गुंजाइश बहुत कम है. अगर तीन दो या चार एक के अनुपात में फैसला आया होता तो शायद खुली अदालत में इसकी सुनवाई की गुंजाइश ज्यादा हो जाती.
खुली अदालत में इसकी सुनवाई के पीछे ये तर्क हैं कि चूंकि मामला इतिहास, संस्कृति, समाजिक ताने बाने के साथ साथ सियासत से भी जुड़ा है लिहाजा इस गहरे असर डालने वाले मुकदमे में दाखिल होने वाली रिव्यू याचिकाओं की सुनवाई खुली अदालत में भी हो सकती है. ताकि इस फैसले को लेकर भविष्य में भी कोई शक शुब्हा अफवाह या गलत संदेश ना फैला सके. यानी सदियों तक मिसाल बनने के क्रम में इस फैसले में भी कहा जाए कि अदालत ने सभी को आखिरी मौका तक मुहैया कराया.
अब जहां तक संवैधानिक अधिकारों का सवाल है तो रिव्यू पेटिशन खारिज होने के बाद भी क्यूरेटिव पेटिशन यानी उपचार याचिका दाखिल करने का विकल्प भी खुला रहता है. जाहिर है आखिरी क्षण तक मैदान में डटे रहने वाले लडैया इसका भी इस्तेमाल जरूर करना चाहेंगे.
अदालत भी चाहेगी कि सदियों बाद भी कोई इस फैसले औऱ न्यायपालिका पर कोई उंगली ना उठा सके कि अदालत ने बिना हमे तर्क देने का मौका दिए एकतरफा ही हमारी रिव्यू याचिका खारिज कर दी. अदालत को ये संदेश भी देना है कि न्यायपालिका किसी दबाव या प्रभाव में काम नहीं करती. हरेक स्थिति में वो स्वतंत्र, निष्पक्ष और आजाद है. उसके फैसले तर्कों और सबूतों पर आधारित होते हैं ना कि सिर्फ ख्याल या यकीन पर.
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