कई सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजे आ चुके हैं. इसमें उत्तर प्रदेश की दो लोकसभा सीटें- रामपुर और आजमगढ़ के नतीजे भी शामिल हैं. भाजपा ने दोनों सीट जीतकर सपा के गढ़ को ढहा दिया है. इक्का-दुक्का मौकों को छोड़ दिया जाए तो यहां हमेशा सपा उम्मीदवारों का बोलबाला रहा है. रामपुर और आजमगढ़ के नतीजे ऐसे वक्त आए हैं जब इनके मायने व्यापक और दूरगामी हो जाते हैं. समीकरण के लिहाज से दोनों सीटों पर भाजपा की जीत को लेकर अनिश्चय था. लेकिन नतीजे बता रहे कि राजनीति में अब मोदी-शाह-योगी की तिकड़ी के लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं रहा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत वरिष्ठ नेताओं ने नतीजों को आमजन का भरोसा और कार्यकर्ताओं की मेहनत का फल बताया है.
#बीजेपी, सपा और बसपा के लिए उपचुनाव नतीजों के मायने
1) रामपुर और आजमगढ़ में उपचुनाव के नतीजों राजनीतिक दलों के लिए बहुत ख़ास है. चाहे रामपुर हो या आजमगढ़, साफ़ दिख भी रहा कि मतदाताओं ने 'इलीटिज्म' को खारिज कर दिया है. रामपुर में सपा की तरफ से लोकसभा उपचुनाव के सर्वेसर्वा आजम खान थे. पार्टी चयन से लेकर कैम्पेन तक हर चीज में उन्हीं की चली. यहां उन्होंने आसिम रजा को मैदान में उतारा था. हालांकि रजा के पास कोई अनुभव नहीं था. उनकी उम्मीदवारी को लेकर सपा की लोकल यूनिट में असंतोष नजर आया. दबी जुबान कार्यकर्ताओं का आरोप था कि पार्टी में योग्य नेताओं के होने के बावजूद रजा जैसे उम्मीदवार को थोपा गया जिनकी योग्यता आजम से वफादारी के अलावा और कुछ भी नहीं है.
2) सांगठनिक रूप से भी देखा जाए तो कभी लगा ही नहीं कि रामपुर में सपा चुनाव लड़ रही है. बसपा और कांग्रेस की तरफ से उम्मीदवार ही नहीं दिए थे. भाजपा के सामने सपा की लड़ाई ज्यादा आसान थी. महत्वपूर्ण उपचुनाव होने के बावजूद अखिलेश यादव जैसे दिग्गज नेता पार्टी के पक्ष में प्रचार करने पहुंचे ही नहीं. सपा महज वोटों के समीकरण और बड़बोले आजम के फैसलों को लेकर अति आत्मविश्वास में नजर आई.
अखिलेश यादव, योगी आदित्यनाथ और आजम खान
3) सपा की तुलना में भाजपा ने तैयारी के साथ चुनाव लड़ा. घनश्याम लोधी के रूप में कल्याण सिंह के पुराने सहयोगी को टिकट दिया. घनश्याम कभी आजम के ही साथ थे और विधान परिषद सदस्य भी रह चुके हैं. घनश्याम को आजम की ताकत और कमजोरियों का ज्ञान था. उन्हें पार्टी से भी भरपूर सहयोग मिला. आजम के विरोध की वजह से रामपुर के कई मुस्लिम नेता जो बसपा और कांग्रेस में थे, पार्टी द्वारा कैंडिडेट नहीं उतारे जाने की स्थिति में अंदर ही अंदर भाजपा के साथ गए.
4) कांग्रेस और बसपा ने रामपुर में आजम की वजह से उम्मीदवार नहीं उतारा था. विधानसभा चुनाव के बाद हाल में जिस तरह से आजम ने अखिलेश को लेकर सवाल किए थे- दोनों पार्टियों को लगा होगा कि भविष्य में आजम उनके काम आ सकते है. हालांकि चुनाव में नहीं जाने से दोनों पार्टियों के काडर का एक हिस्सा जरूर दूसरे दलों में टूटकर गया है और यह भविष्य की राजनीति के लिहाज से चुनाव में ना उतरने का दोनों दलों को नुकसान ही देता नजर आ रहा है.
5) आजमगढ़ में भी सपा-भाजपा और बसपा के बीच त्रिकोणीय लड़ाई थी. यह यादव और मुस्लिम बहुल सीट थी. जातीय धार्मिक समीकरण के लिहाज भाजपा और बसपा ने बेहतर प्रत्याशियों पर दांव लगाए. भाजपा ने 2019 में अखिलेश से एक बेहतर फाइट में चुनाव हारने वाले पूर्वांचल और बिहार के सबसे बड़े सेलिब्रिटी चेहरा- भोजपुरी गायक और अभिनेता दिनेशलाल यादव निरहुआ पर भरोसा जताया. बसपा ने भी चुनाव की घोषणा से काफी पहले गुड्डू जमाली के रूप में मजबूत मुस्लिम उम्मीदवार पर दांव लगाया.
6) सपा ने 2019 का लोकसभा चुनाव हार चुके धर्मेंद्र यादव पर भरोसा जताया जिनका वीडियो "हाउ कैन यूं रोक" वायरल है. धर्मेंद्र, अखिलेश के चचेरे भाई हैं. धर्मेंद्र बेशक बड़ा चेहरा होंगे, लेकिन आजमगढ़ के कार्यकर्ताओं को अखिलेश का फैसला पसंद नहीं आया. कार्यकर्ताओं को उम्मीद थी कि किसी स्थानीय यादव चेहरे को आगे बढ़ाया जाएगा पर ऐसा नहीं हुआ. अखिलेश के सांसद बनने के बाद भी आजमगढ़ से उनके दूर रहने को मुद्दा बनाया गया था. अखिलेश जैसे बड़े कद के नेता के लिए आजमगढ़ के यादव मतदाता समझौता करने को राजी थे लेकिन उन्होंने धर्मेंद्र के नाम पर ऐसा करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई.
आजम खान और शिवपाल यादव.
7) हालांकि बाहरी उम्मीदवार होने की वजह से भाजपा के निरहुआ के खिलाफ भी माहौल था, लेकिन चुनाव हारने के बाद से निरहुआ आजमगढ़ के साथ ही साथ पार्टी की आतंरिक राजनीति में भी सक्रिय दिखे हैं. उन्हें लगभग सभी सार्वजनिक कार्यक्रमों में देखा गया. यादव मतदाताओं का असंतोष निर्णायक साबित हुआ. यादवों का एक बड़ा वोटिंग ब्लॉक निरहुआ के साथ गया.
8) गुड्डू जमाली ने दलितों का खूब वोट हासिल किया. मगर मुस्लिम मतदाता सपा और बसपा दोनों तरफ बंटे. गुड्डू जमाली को भी 29 प्रतिशत से ज्यादा वोट हासिल हुए. मुस्लिम मतदाताओं की तरह यादव वोट भी सपा और भाजपा के बीच बंटे. भाजपा को 34 प्रतिशत से ज्यादा तो सपा को 33 प्रतिशत से ज्यादा मत हासिल हुए.
9) नतीजों को अगर पार्टियों के लिहाज से देखा जाए तो यूपी में भाजपा लगभग अपराजेय है. मुश्किल हालात के बावजूद लोगों का भरोसा बना हुआ नजर आया. जबकि ज्ञानवापी, पैगम्बर विवाद और सेना की अग्निवीर योजनाओं को लेकर बड़े पैमाने की हिंसा के बाद वोट पड़े थे. भाजप के पराजय की आशंका थी. नतीजों से साफ है कि भाजपा के खिलाफ विपक्ष के शोर का कोई चुनावी अर्थ नहीं निकल पा रहा.
10) यह भी साफ़ दिख रहा कि यूपी में मुख्य विपक्षी के रूप में सपा पर लोगों ने अविश्वास जताया है. जबकि रामपुर और आजमगढ़ के रूप में दोनों सीटों पर क्रमश: आजम खान और अखिलेश यादव ही सांसद थे. बसपा के लिए अच्छी बात यह रही कि अभी भी उसका तगड़ा वोट बैंक पार्टी के साथ बना हुआ है. भारी ध्रुवीकरण के बावजूद बसपा मतदाता प्रतिबद्ध दिखें.
भाजपा ने उपचुनाव को गंभीरता से लड़ा. सपा में गंभीरता नहीं दिखी. सपा नेताओं में तालमेल की कमी भी दिखी और असंतोष भी नजर आया.
#योगी-आजम-अखिलेश के लिए उपचुनाव के नतीजों में संकेत क्या हैं?
1) उपचुनाव के नतीजे जिस तरह भाजपा के पक्ष में आए हैं- वह योगी को अपनी धुन में चलते रहने का अनुमति दे रहे हैं. यानी यूपी में जिस मूड से योगी कार्य कर रहे थे, उपचुनाव के बाद उसमें आक्रामकता के साथ और ज्यादा तेजी नजर आ सकती है. राष्ट्रपति चुनाव में भी दो लोकसभा सीटों से भाजपा को मदद मिलेगी.
2) अखिलेश ने खुद को पूरी तरह से दूर रखा. यहां तक कि रामपुर में तो प्रत्याशी चयन तक में उनकी कोई भूमिका नहीं थी. चूंकि वे कैम्पेन में भी नहीं गए तो इस आधार पर पराजय का ठीकरा उनके सिर नहीं फोड़ा जा सकता है. हालांकि नतीजे अखिलेश के नेतृत्व पर जरूर सवाल खड़ा करने वाले हैं. विधानसभा चुनाव के कमबैक पर उपचुनाव पानी फेरते दिख रहे हैं.
3) एक तो लोकसभा में सपा का संख्याबल और कम हो गया. दूसरा अखिलेश और आजम ने लोकसभा सीटें छोड़ी ही इसलिए थी कि विधानसभा में रहकर योगी सरकार पर दबाव बना सके. अब सवाल है कि जब सरकार से दो-दो हाथ करने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री ने ऐसा फैसला लिया फिर उपचुनाव को लेकर अगंभीरता क्यों दिखाई? वैसे भी पार्टी और सहयोगी दल उनके नेतृत्व पर पहले से ही निशाना साध रहे हैं.
अखिलेश यादव और जयंत चौधरी.
4) अखिलेश के लिए सबसे मुश्किल बात यही है कि नतीजों ने उन्हें फ्रीहैंड ताकत नहीं दी कि वे भविष्य में उपजने वाले असंतोष का दमन कर सकें. यह भी तय है कि जिस तरह आरोप लगाते हुए केशवदेव मौर्य सहयोगी की भूमिका से हट गए- ओमप्रकाश राजभर और जयंत चौधरी का भी दबाव बढ़े. वैसे भी राजभर विधान परिषद उपचुनाव को लेकर नाराज हैं. लोकसभा चुनाव तक गठबंधन सहयोगियों को बनाए रखने में मुश्किल होगी.
5) अखिलेश के लिए नतीजों में सबसे अच्छी बात यह रही कि आजम की ओर से उनके नेतृत्व पर जो सवाल अतीत में खड़े हुए- वे शायद अब तीखे तेवर ना दिखा पाए. रामपुर के लिए आजम को फ्रीहैंड था. रामपुर में 50 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम मतदाता होने के बावजूद अपने ही गढ़ में सीधी लड़ाई के बावजूद 2019 के नतीजे को आजम दोहरा नहीं पाए. सपा के सबसे बड़े मुस्लिम नेता की उनकी छवि को बुरी तरह से चोट पहुंची है.
#हिंदू-मुस्लिम मुद्दे का अर्थ नहीं रहेगा
1) रामपुर और आजमगढ़ में मुस्लिम मतदाता प्रभावशाली थे बावजूद सपा, भाजपा को रोक नहीं पाई और अपने दुर्ग गंवा बैठी. नतीजों के बाद विपक्षी दल इधर के दिनों में मुस्लिम मुद्दों के तरफ ज्यादा आकर्षित दिख रहे थे, शायद वे अपनी राह बदले. फिलहाल तो राजनीति में हिंदुत्व का बोलबाला बना रहेगा.
2) विपक्षी दल मुस्लिम मतों को आकर्षित करने भर के लिए हिंदुत्व को काउंटर करने से कतराएंगे. क्योंकि अगर रामपुर भी सपा हार रही है तो इसका सीधा मतलब है कि मुस्लिमों की गोलबंदी के खिलाफ अनेकों जातीय ब्लॉक में बंटे हिंदू भी भाजपा के पीछे वोटबैंक की शक्ल ले रहे हैं. इस तरह मुस्लिमों की गोलबंदी राजनीतिक रूप से निरर्थक साबित हो चुकी है.
3) हालांकि मुस्लिमों के सवाल पर विपक्ष की खामोशी से असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी को जमीन बनाने का मौका मिलेगा. देखना यह होगा कि ओवैसी किस तरह सक्रिय रहते हैं. मुस्लिम मतदाता भाजपा विरोधी नए राजनीतिक विकल्प पर ध्यान देना शुरू कर सकते हैं.
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