सुब्रमण्यन स्वामी अकेले अलख जगाए हुए हैं. मंजिल तो नहीं मालूम लेकिन एक के बाद एक लगातार किसी न किसी को निशाने पर लिये जा रहे हैं. गांधी परिवार को छोड़ कर इन दिनों मौजूदा मोदी सरकार के लोग स्वामी के इशारे पर हैं.
स्वामी के 'साहेब'?
वैसे तो स्वामी को किसी के सपोर्ट सिस्टम की जरूरत नहीं पड़ती जहां भी खड़े होते हैं मान कर चलते हैं कि लाइन तो वहीं से शुरू होती है - और तब तक नहीं हो पायी है तो भी वहीं से शुरू होगी, चाहे जब हो.
स्वामी इमरजेंसी में भी इंदिरा गांधी से भिड़ने वालों में अपनी तरह से अलग रहे. चप्पे चप्पे पर नजर होने के बावजूद वो विदेश निकल गये और लौटे तो संसद पहुंच कर, मीडिया से बात कर सबको चकमा देते हुए नेपाल के रास्ते निकल गये - और कोई हाथ भी न लगा सका.
स्वामी की बौछार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से अभी तक कोई रुख स्पष्ट नहीं हुआ है, न ही कोई ट्वीट. वैसे भी राजनीतिक रूप से ज्वलनशील मसलों पर मोदी अपने पूर्ववर्ती जिन्हें कभी खुद वो मौनमोहन कहा करते थे जैसा ही व्यवहार करते हैं. दादरी सबसे सटीक मिसाल है इस बात की.
इसे भी पढ़ें: स्वामी-जेटली कोल्ड वॉर पर बीजेपी और संघ चुप क्यों?
स्वामी के खिलाफ अब तक सिर्फ अरुण जेटली का ट्वीट आया है. वो भी तब जब स्वामी ने वित्त मंत्रालय के अफसर को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की. स्वामी ने बाद में अफसर को लेकर जो ट्वीट किया था, उसे मिटा दिया है. फिर भी सोशल मीडिया पर स्क्रीन शॉट तैर रहे हैं. स्वामी फिलहाल जो कुछ बोल रहे हैं उसमें उन्हें मोदी का समर्थन हासिल है? आरएसएस का सपोर्ट हासिल है? या वाकई ये सिर्फ उनके मौलिक विचारों की उपज है?
अगर, 'मौनं स्वीकारम् लक्षणम्...' को समझने की कोशिश की जाए तो कुछ संकेत मिलते हैं. मगर संकेत तो...
सुब्रमण्यन स्वामी अकेले अलख जगाए हुए हैं. मंजिल तो नहीं मालूम लेकिन एक के बाद एक लगातार किसी न किसी को निशाने पर लिये जा रहे हैं. गांधी परिवार को छोड़ कर इन दिनों मौजूदा मोदी सरकार के लोग स्वामी के इशारे पर हैं.
स्वामी के 'साहेब'?
वैसे तो स्वामी को किसी के सपोर्ट सिस्टम की जरूरत नहीं पड़ती जहां भी खड़े होते हैं मान कर चलते हैं कि लाइन तो वहीं से शुरू होती है - और तब तक नहीं हो पायी है तो भी वहीं से शुरू होगी, चाहे जब हो.
स्वामी इमरजेंसी में भी इंदिरा गांधी से भिड़ने वालों में अपनी तरह से अलग रहे. चप्पे चप्पे पर नजर होने के बावजूद वो विदेश निकल गये और लौटे तो संसद पहुंच कर, मीडिया से बात कर सबको चकमा देते हुए नेपाल के रास्ते निकल गये - और कोई हाथ भी न लगा सका.
स्वामी की बौछार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से अभी तक कोई रुख स्पष्ट नहीं हुआ है, न ही कोई ट्वीट. वैसे भी राजनीतिक रूप से ज्वलनशील मसलों पर मोदी अपने पूर्ववर्ती जिन्हें कभी खुद वो मौनमोहन कहा करते थे जैसा ही व्यवहार करते हैं. दादरी सबसे सटीक मिसाल है इस बात की.
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स्वामी के खिलाफ अब तक सिर्फ अरुण जेटली का ट्वीट आया है. वो भी तब जब स्वामी ने वित्त मंत्रालय के अफसर को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की. स्वामी ने बाद में अफसर को लेकर जो ट्वीट किया था, उसे मिटा दिया है. फिर भी सोशल मीडिया पर स्क्रीन शॉट तैर रहे हैं. स्वामी फिलहाल जो कुछ बोल रहे हैं उसमें उन्हें मोदी का समर्थन हासिल है? आरएसएस का सपोर्ट हासिल है? या वाकई ये सिर्फ उनके मौलिक विचारों की उपज है?
अगर, 'मौनं स्वीकारम् लक्षणम्...' को समझने की कोशिश की जाए तो कुछ संकेत मिलते हैं. मगर संकेत तो कभी कयासों से आगे बढ़ नहीं पाते. सुर्खियों में स्वामी के बयानों की तरह ये सवाल भी हिचकोले खा रहे हैं. जवाब नहीं मिल रहा. आखिर स्वामी के 'साहेब' हैं कौन?
नागपुर दरबार में
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फैशन टेक्नोलॉजी में चेतन चौहान की नियुक्ति के बाद फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया के चेयरमैन गजेंद्र चौहान सुर्खियों से फेड-आउट होने लगे थे. नागपुर दरबार में हाजिरी लगाने के बाद एक बार फिर वो चर्चा में लौट आए हैं.
आरएसएस चीफ मोहन भागवत से मुलाकात के बाद जब चौहान बाहर निकले तो मीडिया ने घेर लिया.
मुलाकात की वजह पूछा जाना लाजिमी था. पूछा गया तो छोटी सी स्क्रिप्ट पढ़ दी, "आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवतजी मेरे लिए पिता के समान हैं. अपने बेटे के विवाह में उन्हें आमंत्रित करने के लिए मैंने उनसे मुलाकात की."
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ज्यादा दिन नहीं हुए जब उड़ता पंजाब की आंधी के बीच अचानक सेंसर बोर्ड वाले पहलाज निहलानी बात करते करते भावविभोर हो उठे, "जैसा अनुराग कश्यप कह रहे हैं कि मैं मोदी का चमचा हूं... हां, बिल्कुल मैं चमचा हूं. मुझे अपने प्रधानमंत्री का चमचा होने पर गर्व है. मैं अपने पीएम का चमचा नहीं होऊंगा तो क्या इटली के प्रधानमंत्री का चमचा होऊंगा."
"जी हां!"
इकनॉमिक टाइम्स में वरिष्ठ स्तंभकार स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर ने आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन प्रकरण के बहाने मौजूदा हालात पर बड़ी ही गंभीर टिप्पणी की है. अच्छे दिनों की बात थोड़ी देर के लिए भूल भी जाएं तो आगे आने वाले दिनों को लेकर अय्यर की टिप्पणी चिंता बढ़ाने वाली है.
अय्यर लिखते हैं, "राजनीतिक रूप से देखें तो राजन की विदाई से सबसे बड़ी चिंता ये है कि मोदी टॉप पदों पर ऐसे लोगों को चाहते हैं, जो उनकी हां में हां मिलाएं. इससे भारतीय संस्थाओं की साख और कमजोर होगी. इकनॉमिक पहली ये है कि मार्केट राजन की विदाई को ब्याज दरों और एक्सचेंज रेट में कमी होने की शुरुआत के रूप में देखेगा."
कई और भी कतार में हैं... |
थोड़ा पीछे चलें और गौर करें तो अय्यर की आशंकाओं के तार खुद-ब-खुद जुड़ते जाते हैं. आम चुनाव से काफी पहले संजय जोशी को बीजेपी कार्यकारिणी से हटाया जाना. यहां तक कि उनके गुजरात जाने पर पाबंदी लगाया जाना, अय्यर की टिप्पणी के सांचे में पूरी तरह फिट बैठता है. बाद में मार्गदर्शक मंडल का गठन और उसमें लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं का भेजा जाना.
सुषमा स्वराज ने खामोशी अख्तियार कर ली इसलिए आज भी चुपचाप बनी हुई हैं. अरुण जेटली ने आबो-हवा को वक्त से पहले ही भांप लिया था. पुराने रिश्तों से फासला बना लिया और नये मिजाज के शहर में पूरी तरह रच बस गये. अवॉर्ड वापसी के विरोध में मार्च निकालने वाले अनुपम खेर की बेचैनी तो जब तब देखने को मिल ही जाती है. बाकी भी कतार में हैं.
प्रधानमंत्री मोदी को टारगेट करने में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल तो शायद ही कोई मौका चूकते हों. योग दिवस के एक दिन बाद केजरीवाल ने ट्विटर पर एक कार्टून शेयर किया - चमचासन.
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