एक वक्त था जब बहुजन समाज पार्टी यानी की बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती का कद इतना बड़ा था कि वह अकेले दम पर केंद्र की मनमोहन सरकार के लिए संजीवनी बन गई थी. बसपा सुप्रीमो की राजनीति का ये असर था कि देश के सबसे बड़े राजनीतिक सूबे की कमान उन्हें चार बार सौंपी गई. वर्ष 1995 से लेकर वर्ष 2012 तक की राजनीति में मायावती ने चार बार उत्तर प्रदेश पर शासन किया. उत्तरप्रदेश में साल 2007 के विधानसभा चुनाव में मायावती की पार्टी बसपा ने 206 सीटें झटक कर पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई थी. जबकि बसपा के पास उत्तर प्रदेश में वर्ष 2007 में लोकसभा की कुल 19 सीटें थी.
वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव आते आते मनमोहन सिंह की सरकार डगमगाने लगी क्योंकि वामपंथी दलों ने यूपीए से समर्थन वापसी का ऐलान कर दिया था. मगर मनमोहन सरकार का सहारा बनी मायावती. वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावमें बसपा ने कुल 20 सीटों पर जीत दर्ज की थी जोकि पिछली बार से महज एक सीट ही अधिक थी. यह मायावती के लिए पहला झटका था क्योंकि मायावती को पूरी उम्मीद थी कि उनकी पार्टी बसपा इस चुनाव में 30 से अधिक सीटों पर जीत दर्ज करेगी ताकि केंद्र की सरकार में बसपा का दबदबा हो और बसपा का एक अलग वजूद हो.
ये भी दावा किया जाता है कि मायावती ने इसी चुनाव से प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब भी देख डाला था. मगर उनकी सारी योजनाएं विफल हो गई क्योंकि उस लोकसभा चुनाव में बसपा से अधिक सीट सपा ने जीत ली थी. फिर भी सपा और बसपा दोनों ही मनमोहन सरकार की दूसरी पारी का हिस्सा बने लेकिन मायावती की प्रधानमंत्री बनने की ज़िद अभी खत्म नहीं हुई थी. वर्ष 2012 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव हुआ तो उस वक्त बसपा पूरी तरह से धराशाई हो...
एक वक्त था जब बहुजन समाज पार्टी यानी की बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती का कद इतना बड़ा था कि वह अकेले दम पर केंद्र की मनमोहन सरकार के लिए संजीवनी बन गई थी. बसपा सुप्रीमो की राजनीति का ये असर था कि देश के सबसे बड़े राजनीतिक सूबे की कमान उन्हें चार बार सौंपी गई. वर्ष 1995 से लेकर वर्ष 2012 तक की राजनीति में मायावती ने चार बार उत्तर प्रदेश पर शासन किया. उत्तरप्रदेश में साल 2007 के विधानसभा चुनाव में मायावती की पार्टी बसपा ने 206 सीटें झटक कर पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई थी. जबकि बसपा के पास उत्तर प्रदेश में वर्ष 2007 में लोकसभा की कुल 19 सीटें थी.
वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव आते आते मनमोहन सिंह की सरकार डगमगाने लगी क्योंकि वामपंथी दलों ने यूपीए से समर्थन वापसी का ऐलान कर दिया था. मगर मनमोहन सरकार का सहारा बनी मायावती. वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावमें बसपा ने कुल 20 सीटों पर जीत दर्ज की थी जोकि पिछली बार से महज एक सीट ही अधिक थी. यह मायावती के लिए पहला झटका था क्योंकि मायावती को पूरी उम्मीद थी कि उनकी पार्टी बसपा इस चुनाव में 30 से अधिक सीटों पर जीत दर्ज करेगी ताकि केंद्र की सरकार में बसपा का दबदबा हो और बसपा का एक अलग वजूद हो.
ये भी दावा किया जाता है कि मायावती ने इसी चुनाव से प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब भी देख डाला था. मगर उनकी सारी योजनाएं विफल हो गई क्योंकि उस लोकसभा चुनाव में बसपा से अधिक सीट सपा ने जीत ली थी. फिर भी सपा और बसपा दोनों ही मनमोहन सरकार की दूसरी पारी का हिस्सा बने लेकिन मायावती की प्रधानमंत्री बनने की ज़िद अभी खत्म नहीं हुई थी. वर्ष 2012 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव हुआ तो उस वक्त बसपा पूरी तरह से धराशाई हो गई.
सत्ता पर रहने के बावजूद बसपा 206 सीटों से लुढ़ककर 80 सीटों पर पहुंच गई जबकि सपा इस चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल करके सत्ता पर काबिज हो गई थी. बसपा का मजबूत संगठन संपूर्ण उत्तर प्रदेश में है मगर बसपा ताकतवर होने के बजाय दिन ब दिन कमजोर होती गई. साल 2014 का लोकसभा चुनाव हुआ तो मायावती को भी प्रधानमंत्री पद की रेस में शामिल बताया गया. दावा किया जाता रहा कि देश में अगला प्रधानमंत्री यूपीए और एनडीए गठबंधन से हटकर के होगा.
जिसमें मायावती के नामों पर भी खूब चर्चा हुआ करती थी. कहा जाता था कि मायावती एक ऐसा नाम है जिस पर देश के हर बड़े नेता अपनी सहमति जता सकते हैं. चुनाव संपन्न हुआ और जब नतीजा आया तो सबके दावे हवा में छूमंतर हो गए. केंद्र की सत्ता पर नरेंद्र मोदी पूर्ण बहुमत के साथ विराजमान हो गए तो मायावती कीपार्टी की बत्ती ही गुल हो गई. बसपा का खाता तक नहीं खुल पाया. मायावती की पार्टी का ये अंजाम होगा ये तो मायावती के दुश्मनों ने भी ख्वाब में भी न देखा रहा होगा.
नरेंद्र मोदी की आंधी में उड़ जाने वाली बसपा का हाल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी खस्ताहाल हो जाएगा इसकी भी किसी को कोई उम्मीद तक न रही होगी. साल 2007 से 2012 तक बहुमत से सरकार चलाने वाली पार्टी महज 10 साल के बाद साल 2017 में तीसरे पायदान पर पहुंच गई. बसपा दस सालों में ही 206 सीट से 19 सीटों तक लुढ़क गई थी. हालांकि साल 2019 के लोकसभा चुनाव में अपने सबसे मजबूत दुश्मन सपा के साथ हाथ मिलाने के बाद वह लोकसभा में दहाई (10) का आंकड़ा छूने में सफल जरूर हो गई है लेकिन यह बहुत राहत देने लायक भी नहीं है.
जब पार्टी धीरे धीरे हर चुनाव में दम तोड़ रही होतो पार्टी का मुखिया पार्टी को बचाने का हर संभव प्रयास करने लग जाता है. किसी भी तरह पार्टी के कार्यकर्ताओं को और संगठन को मनाने और साथ लेकर चलने की कोशिशें होने लगती हैं. लेकिन बसपा पर यह फार्मूला फिट नहीं बैठता है. बसपा की अब तो आदत में शुमार हो गया है कि वह चुनाव से पहले किसी बड़े नेता को पार्टी से निकालकर ऐसा बाहर फेंक देती है जैसे कि बसपा में अनुशासन का पालन महज मायावती और उनके पसंद के नेताओं से ही होता है.
बसपा हर नेता के निष्कासन का सिर्फ एक ही कारण बताती है किवह नेता पार्टी लाइन से हटकर कार्य कर रहा था और अनुशासन की धज्जियां उड़ा रहा था. अब इस कारण को बसपा का आधिकारिक कारण कह दिया जाए तो हरगिज़ गलत न होगा. जब आपके पास गिनती के विधायक हों तो आपकी कोशिश होती है कि अपने विधायकों को एकजुट रख सकें और इन्हीं के सहारे सदन के अंदर सरकार को घेरने का कार्य किया जा सके. लेकिन मायावती से तो अपने 19 विधायक ही नहीं संभाले गए.
नेताओं के नाराज़ होकर जाने से लेकर विधायकों के निष्कासन के बाद अब तो यह हालत हो चली है कि बसपा के पास मात्र सात विधायक ही रह गए हैं क्या पता चुनाव के आते आते इनका भी पत्ता पार्टी गोल कर बैठे. बसपा ने हाल ही में अपने दो वरिष्ठ विधायकों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है. आपको हैरानी होगी कि इन विधायकों का निष्कासन जिस वक्त हुआ तो यह दोनों ही विधायक अपने जिले में जिला पंचायत अध्यक्ष पद पर बसपा उम्मीदवार की जीत के लिए रणनीतियां तैयार कर रहे थे.
ये दोनों विधायक हैं रामअचल राजभर और लालजी वर्मा. दोनों ही विधायक मायावती के करीबी भी माने जाते रहे हैं लेकिन मायावती के फैसले से ही इन दोनों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है. बसपा की जब स्थापना हुई तो उस समय के तमाम नेता आज बसपा से किनारा कर चुके हैं. बसपा की स्थापना जब हुई तो तमाम बड़े नेता बसपा में हुआ करते थे जिसमें सोनेलाल पटेल, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, जंग बहादुर पटेल, दीनानाथ भास्कर, मसूद अहमद, दद्दू प्रसाद, आरके चौधरी और राजबहादुर जैसे नेता शामिल थे.
इसके बाद स्वामी प्रसाद मौर्य, सतीश चंद्र मिश्रा, ब्रजेश पाठक, इंद्रजीत सरोज, जुगुल किशोर जैसे नेता बसपा में शामिल हुए जिनमें से अधिकांश बसपा को अलविदा कह चुके हैं. ऐसा नहीं है कि बसपा को अलविदा कहने वाले नेताओं का करियर खत्म हो गया या फिर उन्होंने राजनीतिसे संन्यास ले लिया बल्कि ऐसे तमाम नेताओं की लंबी फेहरिस्त है जिसमें बसपा नेता न दूसरी पार्टी में हैसियत रखते हैं बल्कि सरकार में मंत्री पद पाए भी बैठे हैं.
बसपा उत्तरप्रदेश में कुल 7 विधायक और 10 सांसदों के साथ अपने सबसे बुरे दौर में जा पहुंची है. पार्टी एकजुट रहने के बजाय समय समय पर बिखरी हुई नज़र आती है. बसपा में सिवाय मायावती और सतीश चंद्र मिश्रा के अब कोई भी बड़ा चेहरा तलाशने के लिए खूब दिमाग खपाना पड़ता है. लगभग सारे ही बड़े नेताओं की छुट्टी कर दी गई है.
मायावती की राजनीति में निष्कासन का एक अहम योगदान रहता है. अब बसपा से बड़े बड़े नेताओं के निष्कासन की खबरें सामने आती हैं तो न तो हैरत होती है और न ही सटीक वजहों का पता चल पाता है. तो लोग तो यहीं कहते हैं कि ’बहुजन समाज पार्टी से सब निकाले जाएंगे बस मायावती ही रह जाएंगी'.
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