गुजरात में जनता का मूड जो भी हो, चुनावी तैयारियों से दो बातें खास तौर पर जाहिर होती हैं. एक, राहुल गांधी के तूफानी दौरे से कांग्रेस के प्रति लोगों की धारणा बदली है और दो, बीजेपी को भी गुजरात की जंग मुश्किल लगने लगी है.
बीजेपी को ऐसा कोई खतरा महसूस नहीं हुआ होता जब तक मैदान में उसे चुनौती नहीं मिलती. कांग्रेस की चुनौती से बीजेपी को लग रहा है कि लोगों को विकल्प नजर आने लगा है और अगर सत्ताविरोधी लहर हावी हुई तो जीत मुश्किल हो सकती है.
मन की बात चाय के साथ
कांग्रेस का इल्जाम है कि देश की शासन व्यवस्था बाबुओं और अफसरों के भरोसे छोड़ कर पूरी कैबिनेट गुजरात पहुंच गयी है. बीजेपी को फिलहाल इसकी परवाह नहीं है. वैसे भी चुनावी राजनीति में जीत ही सबसे महत्वपूर्ण होती है, बाकी बातें तो बाद में भी देखी जा सकती हैं.
प्रधानमंत्री मोदी खुद को बार बार चायवाला बताते रहे हैं. बीजेपी नेता भी जरूरत पड़ने पर जिक्र छेड़ देते रहे हैं. युवा कांग्रेस की ओर से इसी बात को लेकर हमले की कोशिश हुई लेकिन उसका चायवाला दांव महंगा पड़ गया. विवाद बढ़ता देख चायवाला ट्वीट डिलीट भी कर दिया गया, लेकिन तब तक बीजेपी ये मुद्दा लपक चुकी थी.
'मन की बात, चाय के साथ' कार्यक्रम के जरिये बीजेपी ने कार्यकर्ताओं के लिए रिहर्सल का मौका निकाल लिया. पूरे गुजरात में बूथ लेवल तक कार्यकर्ताओं ने प्रधानमंत्री मोदी के मन की बात सुनी. खुद प्रधानमंत्री मोदी ने इस पर ट्वीट कर खुशी जतायी.
182 में से 50 सीटों पर तो राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की ड्यूटी लगी थी जहां सभी ने चाय की चुस्कियों के साथ मन की बात सुनी. इसी तरह बाकी सीटों पर गुजरात बीजेपी के नेता थे. खुद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह अहमदाबाद में मौजूद...
गुजरात में जनता का मूड जो भी हो, चुनावी तैयारियों से दो बातें खास तौर पर जाहिर होती हैं. एक, राहुल गांधी के तूफानी दौरे से कांग्रेस के प्रति लोगों की धारणा बदली है और दो, बीजेपी को भी गुजरात की जंग मुश्किल लगने लगी है.
बीजेपी को ऐसा कोई खतरा महसूस नहीं हुआ होता जब तक मैदान में उसे चुनौती नहीं मिलती. कांग्रेस की चुनौती से बीजेपी को लग रहा है कि लोगों को विकल्प नजर आने लगा है और अगर सत्ताविरोधी लहर हावी हुई तो जीत मुश्किल हो सकती है.
मन की बात चाय के साथ
कांग्रेस का इल्जाम है कि देश की शासन व्यवस्था बाबुओं और अफसरों के भरोसे छोड़ कर पूरी कैबिनेट गुजरात पहुंच गयी है. बीजेपी को फिलहाल इसकी परवाह नहीं है. वैसे भी चुनावी राजनीति में जीत ही सबसे महत्वपूर्ण होती है, बाकी बातें तो बाद में भी देखी जा सकती हैं.
प्रधानमंत्री मोदी खुद को बार बार चायवाला बताते रहे हैं. बीजेपी नेता भी जरूरत पड़ने पर जिक्र छेड़ देते रहे हैं. युवा कांग्रेस की ओर से इसी बात को लेकर हमले की कोशिश हुई लेकिन उसका चायवाला दांव महंगा पड़ गया. विवाद बढ़ता देख चायवाला ट्वीट डिलीट भी कर दिया गया, लेकिन तब तक बीजेपी ये मुद्दा लपक चुकी थी.
'मन की बात, चाय के साथ' कार्यक्रम के जरिये बीजेपी ने कार्यकर्ताओं के लिए रिहर्सल का मौका निकाल लिया. पूरे गुजरात में बूथ लेवल तक कार्यकर्ताओं ने प्रधानमंत्री मोदी के मन की बात सुनी. खुद प्रधानमंत्री मोदी ने इस पर ट्वीट कर खुशी जतायी.
182 में से 50 सीटों पर तो राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की ड्यूटी लगी थी जहां सभी ने चाय की चुस्कियों के साथ मन की बात सुनी. इसी तरह बाकी सीटों पर गुजरात बीजेपी के नेता थे. खुद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह अहमदाबाद में मौजूद रहे.
2014 के आम चुनाव में मोदी के चाय पर चर्चा कार्यक्रम की खूब चर्चा रही, बहाने से ही सही बीजेपी ने लोगों को उसी बात की याद दिलाने की कोशिश की. इतना ही नहीं, बीजेपी गुजरात चुनाव में भी वो सारे हथियार आजमाने जा रही है जो 2014 में कामयाब रहे.
2017 में 2014 के ब्रह्मास्त्र
राहुल गांधी की नवसर्जन यात्रा में गुजरात को चार हिस्सों में बांट कर कार्यक्रम तैयार किये गये थे. राहुल गांधी ने इसके लिए चार दौरे किये और हर हिस्से में तीन तीन बार गये. बीजेपी भी प्रचार के आखिरी दौर में गुजरात को चार जोन में बांट कर कैंपेन चला रही है. ऐसे हर जोन की जिम्मेदारी एक एक केंद्रीय मंत्री को दी गयी है.
सबसे बड़ी बात तो ये है कि अमित शाह ने 10 अनुभवी नेताओं को मोर्चे पर लगाया है जिनमें कुछ केंद्रीय मंत्री भी हैं. 2014 के चुनाव में बीजेपी के ये आजमाये हुए हथियार हैं जो फिर से ब्रह्मास्त्र साबित हो सकते हैं. पूरे गुजरात में 58 हजार बूथ मैनेजर हैं और 10 लाख पन्ना प्रमुख चुनावी मुहिम में दिन रात डटे हुए हैं.
एक दिलचस्प बात और - ये चौथी बार है जब अरुण जेटली गुजरात की चुनावी कमान संभाल रहे हैं. किसी भी मसले पर पार्टी की आधिकारिक लाइन क्या होगी ये भी वही तय कर रहे हैं.
राहुल गांधी के सवालों के जवाब देने का वक्त
अब तक तो गुजरात में राहुल गांधी और मोदी के दौरे आगे पीछे होते रहे, अब मोदी ज्यादा वक्त लेकर चुनावी मुहिम में कूदने जा रहे हैं. पिछले दो दशक में ये पहला मौका है जब चुनाव में मोदी उम्मीदवार नहीं हैं, बल्कि स्टार कैंपेनर हैं. दूसरी तरफ राहुल गांधी बीजेपी से लोगों की नाराजगी का पूरा फायदा उठा रहे हैं. राहुल गांधी की मुहिम इसलिए भी धारदार हो गयी है क्योंकि बीजेपी को चैलेंज करने वाले तीन युवा नेता हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी भी उनके साथ हो लिये हैं.
राहुल गांधी ने शुरुआती दौर में तो हर पब्लिक मीटिंग में मोदी को झूठा साबित करने की हर संभव कोशिश की. हालांकि, तब कांग्रेस का कैंपेन 'विकास पागल हो गया है' भी चल रहा था जिसे बाद में राहुल गांधी की ही सलाह पर वापस ले लिया गया. इसके साथ ही राहुल ने खुद भी मोदी पर निजी हमले नहीं करने का फैसला किया और अपनी टीम को भी ऐसी ही हिदायत दी. लेकिन बाकी मसलों पर राहुल गांधी मोदी सरकार को लगातार निशाने पर रखे.
जैसा कि मोदी का ट्रैक रिकॉर्ड कहता है. अब मोदी चुन चुन कर राहुल गांधी के सवालों का जवाब देंगे और उन पर नये सवाल भी पूछेंगे. 27 नवंबर से शुरू हो रहे मोदी के गुजरात दौरे में करीब डेढ़ दर्जन रैलियां होनी हैं. हालांकि, पहले इससे ज्यादा मानी जा रही थीं.
वैसे 26/11 के प्रसंग में अरुण जेटली ने राहुल गांधी के ट्वीट पर प्रतिक्रिया दे दी है. मुंबई हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद की पाकिस्तान में रिहाई पर राहुल गांधी ने ट्वीट कर प्रधानमंत्री पर टिप्पणी की थी. राहुल ने लिखा था - 'नरेंद्र भाई, बात नहीं बनी. आतंक का मास्टमांइड आजाद, ट्रंप ने पाक सेना को लश्कर फंडिंग में क्लीन चिट दी, गले लगाना काम नहीं आया. अब और ज्यादा गले लगाने की तत्काल जरूरत है.'
मन की बात में प्रधानमंत्री ने तो आतंकवाद का जिक्र किया ही, अरुण जेटली ने कहा, 'मोदी सरकार में आतंकियों के हौसले पस्त हो गए हैं... पिछले आठ महीने से ये हाल है कि जो लश्कर का कमांडर बनेगा, वो ज्यादा दिन नहीं बचेगा.'
ऐसा नहीं है कि गुजरात में सब कुछ अचानक बदल गया है और चुनौतियां एकाएक खड़ी हो गयी हैं. जिस तरह हार्दिक पटेल के कारण बीजेपी को अभी दिक्कत हो रही है, वैसी ही चुनौती मोदी को ही केशुभाई पटेल दे चुके हैं. ऊना की घटना से जिग्नेश और ओबीसी नेता अल्पेश के कारण जातिगत समीकरण जरूर उभर आये हैं. नोटबंदी का तो यूपी चुनाव में ही टेस्ट हो चुका है, हां, जीएसटी जरूर नया है. ये सारे मामले राहुल गांधी लगातार उठा रहे हैं और उन्हें रिस्पॉन्स भी अच्छा मिला है.
मौजूदा हालात तो ऐसे लगते हैं जैसे लोगों को मोदी से नहीं बल्कि नाराजगी उनसे है जिन्हें उन्होंने सत्ता की बागडोर सौंपी या बाद में जिन्हें जिम्मेदारी मिली. मोदी के साथ गुजरात के लोगों का खास लगाव है और यही उनकी दुविधा की वजह भी है. इस स्थिति में कांग्रेस और राहुल गांधी कहां फिट हो पाते हैं इसका असली इम्तिहान अब होने जा रहा है.
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