किसानों के दिल्ली बॉर्डर पर डेरा डालने के बाद, किसान संगठनों ने भारत बंद (Farmers Protest Bharat Bandh) बुलाया है - और बंद की इस कॉल को कई राजनीतिक दलों का समर्थन हासिल है. किसानों के भारत बंद का सपोर्ट करने वालों में ज्यादातर तो वे राजनीतिक दल ही हैं जो बीजेपी के विरोधी हैं, लेकिन बीजेपी का एक साथी राजनीतिक दल भी किसानों के साथ खड़ा नजर आ रहा है.
राजस्थान के नागौर से सांसद हनुमान बेनिवाल की पार्टी RLP ने एनडीए की पॉलिटिकल लाइन से अलग रास्ता अख्तियार करते हुए किसानों की मांगों का समर्थन किया है. हनुमान बेनिवाल की ही तरह बीजेपी के एक और साथी दुष्यंत चौटाला भी हैं. दुष्यंत चौटाला ने चेतावनी तो दी थी, लेकिन फिलहाल खामोश हैं. हालांकि, दुष्यंत चौटाला की पार्टी JJP के करीब आधा दर्जन विधायकों ने किसानों के समर्थन में बागी रुख अपना लिया है.
जेजेपी के विधायक आगे बढ़ कर केंद्र सरकार से कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग करने लगे हैं जो किसानों की मुख्य डिमांड है. दुष्यंत चौटाला के समर्थन से हरियाणा में बीजेपी की मनोहर लाल खट्टर सरकार चल रही है - और जेजेपी विधायकों के बागी रुख से बीजेपी सरकार पर खतरा मंडराने लगा है.
RLP नेता हनुमान बेनीवाल केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को लिखे अपने पत्र की बातें दोहराते हुए कहते हैं कि वो 12 दिसंबर को किसानों के साथ दिल्ली मार्च करेंगे. हनुमान बेनिवाल पत्र के बारे में कहते हैं, 'मैंने केंद्र के कृषि कानूनों का विरोध किया है और अमित शाह को एक पत्र लिखा है कि अगर काले कानूनों को रद्द नहीं किया जाता है, तो हम एनडीए को अपना समर्थन जारी रखने के बारे में सोचेंगे.' किसानों के भारत बंद का बेनिवाल पहले ही सपोर्ट कर चुके हैं.
किसानों के समर्थन में अपनी तरफ से राजनीतिक दल समर्थन तो कर ही रहे हैं, पंजाब की शिरोमणि अकाली दल किसानों के नाम पर बीजेपी विरोधी राजनीतिक दलों को एक मंच पर लाने की कवायद शुरू कर दी है. मुद्दा ऐसा है कि संपर्क करने पर हर राजनीतिक पार्टी अकाली दल की पहल को सपोर्ट कर रही...
किसानों के दिल्ली बॉर्डर पर डेरा डालने के बाद, किसान संगठनों ने भारत बंद (Farmers Protest Bharat Bandh) बुलाया है - और बंद की इस कॉल को कई राजनीतिक दलों का समर्थन हासिल है. किसानों के भारत बंद का सपोर्ट करने वालों में ज्यादातर तो वे राजनीतिक दल ही हैं जो बीजेपी के विरोधी हैं, लेकिन बीजेपी का एक साथी राजनीतिक दल भी किसानों के साथ खड़ा नजर आ रहा है.
राजस्थान के नागौर से सांसद हनुमान बेनिवाल की पार्टी RLP ने एनडीए की पॉलिटिकल लाइन से अलग रास्ता अख्तियार करते हुए किसानों की मांगों का समर्थन किया है. हनुमान बेनिवाल की ही तरह बीजेपी के एक और साथी दुष्यंत चौटाला भी हैं. दुष्यंत चौटाला ने चेतावनी तो दी थी, लेकिन फिलहाल खामोश हैं. हालांकि, दुष्यंत चौटाला की पार्टी JJP के करीब आधा दर्जन विधायकों ने किसानों के समर्थन में बागी रुख अपना लिया है.
जेजेपी के विधायक आगे बढ़ कर केंद्र सरकार से कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग करने लगे हैं जो किसानों की मुख्य डिमांड है. दुष्यंत चौटाला के समर्थन से हरियाणा में बीजेपी की मनोहर लाल खट्टर सरकार चल रही है - और जेजेपी विधायकों के बागी रुख से बीजेपी सरकार पर खतरा मंडराने लगा है.
RLP नेता हनुमान बेनीवाल केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को लिखे अपने पत्र की बातें दोहराते हुए कहते हैं कि वो 12 दिसंबर को किसानों के साथ दिल्ली मार्च करेंगे. हनुमान बेनिवाल पत्र के बारे में कहते हैं, 'मैंने केंद्र के कृषि कानूनों का विरोध किया है और अमित शाह को एक पत्र लिखा है कि अगर काले कानूनों को रद्द नहीं किया जाता है, तो हम एनडीए को अपना समर्थन जारी रखने के बारे में सोचेंगे.' किसानों के भारत बंद का बेनिवाल पहले ही सपोर्ट कर चुके हैं.
किसानों के समर्थन में अपनी तरफ से राजनीतिक दल समर्थन तो कर ही रहे हैं, पंजाब की शिरोमणि अकाली दल किसानों के नाम पर बीजेपी विरोधी राजनीतिक दलों को एक मंच पर लाने की कवायद शुरू कर दी है. मुद्दा ऐसा है कि संपर्क करने पर हर राजनीतिक पार्टी अकाली दल की पहल को सपोर्ट कर रही है - लेकिन किसानों के सपोर्ट के नाम पर अकाली दल (Akali Dal) जिस तरह से सियासी मोर्चा (Political Front against BJP) खड़ा करने में जुटा है क्या वो कामयाब हो पाएगा?
किसानों के नाम पर सियासत चालू है
2019 में महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव के बाद देखने में आया था कि ज्यादातर मुलाकातें किसानों के नाम पर हुआ करती रहीं. चुनाव नतीजे आने के बाद सभी दलों के नेता राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी से मिलते और बाहर निकल कर यही बताते कि वे किसानों की समस्याओं को लेकर मिलने गये थे.
एक बार तो एनसीपी नेता शरद पवार भी किसानों के नाम पर ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक से मिल आये. बाद में मालूम हुआ कि जिस मुलाकात में किसानों का नाम लिया गया वो तो, दरअसल, महाराष्ट्र में सरकार बनाने की संभावनाएं तलाशने के लिए रही. खबर ये भी आयी कि शरद पवार ने देवेंद्र फडणवीस की जगह किसी को और महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाने और केंद्र में सुप्रिया सुले के लिए कृषि मंत्रालय चाहते थे - ये दोनों ही मांगे प्रधानमंत्री मोदी को मंजूर न थीं, लिहाजा मुलाकात खत्म हो गयी और फिर महाराष्ट्र में महाविकास आघाड़ी की सरकार बन गयी - और मातोश्री से निकल कर उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ गये. ये बात भी करीब साल भर पुरानी है.
अब एक बार फिर खबर है कि शरद पवार किसानों के भारत बंद के अगले दिन किसानों के हक को लेकर दिल्ली में एक और मीटिंग करने जा रहे हैं, लेकिन ये मीटिंग प्रधानमंत्री मोदी के साथ नहीं बल्कि 9 दिसंबर को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के साथ होने की बात कही जा रही है. मान कर चलना चाहिये, मीटिंग में किसानों की ही बातें होंगी. शरद पवार केंद्र सरकार में कृषि मंत्री रह चुके हैं और महाराष्ट्र में भी उनकी किसानों के बीच काफी पैठ मानी जाती है. महाराष्ट्र में महाविकास आघाड़ी सरकार की अगुवाई कर रही शिवसेना ने किसानों के आंदोलन और उसी सिलसिले में भारत बंद की कॉल का खुला सपोर्ट किया है. शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत ने किसानों के प्रति इसे अपनी नैतिक जिम्मेदारी बतायी है.
किसानों के नाम पर तीसरा मोर्चा!
एक तरफ किसान दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं और दूसरी तरफ उनके नाम पर राजनीति जोर पकड़ती जा रही है. किसानों के नाम पर शिरोमणि अकाली दल ने पहल की है और देश में एक गैर एनडीए दलों का मोर्चा खड़ा करने के मकसद से राजनीतिक दलों से मुलाकातों का सिलसिला शुरू हो चुका है. प्रकाश सिंह बाद और सुखबीर बादल का मैसेज लेकर SAD के सीनियर नेता प्रेम सिंह चंदूमाजरा देशव्यापी दौरे पर निकल चुके हैं और विरोधी पक्ष के नेताओें से मिल रहे हैं जिनमें उद्धव ठाकरे भी शामिल हैं - वैसे भी हाल फिलहाल केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी नेतृत्व को उद्धव ठाकरे कई बार ललकारते देखे गये हैं.
उद्धव ठाकरे की ही तरह अकाली नेता ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के अलावा ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की पार्टी बीजू जनता दल के नेताओं से मिल चुके हैं. शिरोमणि अकाली दल ने कृषि कानूनों के विरोध में ही एनडीए छोड़ दिया था. उससे पहले प्रकाश सिंह बादल की बहू हरसिमरत कौर ने मोदी कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था.
अकाली दल का मानना है कि केंद्र में के मजबूत विपक्ष की कमी है और यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार मनमर्जी से फैसले करने लगी है. कहने को तो विपक्षी खेमे में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस ही है, लेकिन कांग्रेस का कमजोर नेतृत्व और उसकी नीतियां हर मामले में निष्प्रभावी साबित होती आयी हैं.
अकाली दल के कमजोर विपक्ष का मुद्दा उठाने की वजह सिर्फ उस गैप को भरने की कोशिश ही नहीं है, बल्कि कांग्रेस विरोध की उसकी अपनी राजनीतिक मजबूरी भी है.
पंजाब में कांग्रेस सत्ता मे हैं और 2022 के चुनाव तक अकाली दल को खुद को प्रासंगिक बनाये रखने की चुनौती है. अकाली दल में तो वैसे भी बीजेपी की कोई दिलचस्पी नहीं बची थी. बीजेपी की दिलचस्पी का नजारा तो 2027 कि पंजाब विधानसभा चुनाव में ही दिख गया था - जब सपोर्ट के नाम पर बीजेपी रस्म अदायगी कर रही थी. वो तो 2019 के आम चुनाव को लेकर बीजेपी का आत्मविश्वास कुछ देर के लिए डोला न होता तो अकाली दल की पूछ तभी खत्म हो गयी थी. चुनावों से पहले बीजेपी नेता अमित शाह संपर्क फॉर समर्थन अभियान के तहत गठबंधन के सभी सहयोगी दलों के घर घर जाकर मुलाकात की थी - और उसमें बादल परिवार, ठाकरे परिवार, नीतीश कुमार और यूपी में अनुप्रिया पटेल भी शामिल रहीं. हां, ओम प्रकाश राजभर को लेकर पहले से ही मन बना लिया था, लिहाजा घास नहीं डाली. आम चुनाव में बीजेपी के अपने बूते बहुमत हासिल कर लेने के बाद तो वैसे भी सहयोगियों की जरूरत समाप्त हो गयी थी, लेकिन लोक लाज के नाते बनाये रखी. अब शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल एनडीए छोड़ चुके हैं और हनुमान बेनीवाल किसानों की तरफ हो चले हैं.
विपक्षी खेमे के नेताओं से मिलकर अकाली दल का प्रतिनिधिमंडल एनडीए के खिलाफ एक राष्ट्रीय मोर्चा की जरूरत समझा रहा है, लेकिन उसमें सबसे बड़ा पेंच है कि वो कांग्रेस को माइनल करके चल रहा है. अगर पूरी तरह नहीं तो कम से कम पंजाब में तो ऐसा ही वो चाहते हैं.
अकाली दल पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह पर केंद्र की बीजेपी सरकार के साथ मिली भगत का आरोप लगा रहा है. दरअसल, किसानों के आंदोलन को सुलझाने के सिलसिले में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा का भी जिक्र किया था. ये बात अमरिंदर सिंह ने अमित शाह से मुलाकात के बाद कहा था - और अब अकाली दल उसी बात को मुद्दा बना रहा है. हालांकि, अमरिंदर सिंह की तरफ से उस बयान पर सफाई भी दी जा चुकी है. अकाली दल राष्ट्रीय मोर्चा खड़ा करने को लेकर जिन दो नेताओं से मिला है वे खुद ही कांग्रेस के प्रभाव में हैं - इसे समझने के लिए सोनिया गांधी की तरफ से गैर-एनडीए मुख्यमंत्रियों की मीटिंग में उद्धव ठाकरे और ममता बनर्जी के हाव भाव पर गौर किया जा सकता है. पंजाब की सियासी मजबूरी के चलते अकाली दल कांग्रेस को किनारे रख राष्ट्रीय मोर्चा खड़ा करना चाहता है.
आम चुनाव के दौरान टीडीपी नेता एन. चंद्रबाबू नायडू ने भी एनडीए छोड़ने के बाद मोर्चा खड़ा करने की काफी कोशिशें की, लेकिन नाकाम रहे. चुनाव नतीजों से ऐन पहले एग्जिट पोल के बाद भी नायडू काफी सक्रिय दिखे लेकिन वो ममता बनर्जी और राहुल गांधी के अड़े होने के कारण एक मीटिंग तक नहीं बुला सके और आखिरकार थक हार कर शांत बैठ गये. नायडू की ही तरह तेलंगाना राष्ट्र समिति के नेता और मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने भी गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेस मोर्चा की पहल और कोशिश की थी, लेकिन वो तो नायडू जितने भी नहीं टिक सके. हैदराबाद नगर निगम चुनाव के बाद तो वो नयी परेशानी में पड़ चुके हैं क्योंकि बीजेपी पश्चिम बंगाल और दूसरे राज्यों के विधानसभा से निवृत होकर तेलंगाना पर ही धावा बोलने वाली है.
कांग्रेस को किनारे रख कर अकाली दल ने बीजेपी के खिलाफ राष्ट्रीय मोर्चे का जो मॉडल तैयार किया है वो न तो बिकाऊ लगता है और न ही टिकाऊ ही - ऐसे में किसी तीसरे या राष्ट्रीय मोर्चे की इमारत की कौन कहे जब नींव ही डांवाडोल लगती हो.
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