मैं नफ़रत के बाज़ार में मुहब्बत की दुकान खोल रहा हूं... बात छोटी सी है लेकिन है बड़ी प्यारी. नहीं. ऊपर से जब कहने वाला शख़्स प्यारा हो, तो बात ख़ुद ब ख़ुद और ख़ूबसूरत हो जाती है. और फिर राहुल गांधी से ज़्यादा ख़ूबसूरत कौन हो सकता है, जो राजनीति में शायरी कर लेते हैं, अपने विपक्षी नेता को जा कर गले से लगा लेते हैं. है न प्यारी बात उस प्यारे शख़्स की.
बीते दिन 12 राज्यों से गुजरती हुई, पांच महीने का समय लेकर भारत जोड़ो यात्रा मुकम्मल हुई. इसके साथ ही राहुल गांधी की एक दूसरी यात्रा की शुरुआत भी हो ही गई समझिए. लेकिन उनकी दूसरे यात्रा की बात बाद में करेंगे पहले उनकी इस यात्रा पर बात कर लेते हैं. जिसे कांग्रेस जी जान से कठिन बताने में जुटी रही और राहुल गांधी को एक यात्री के रूप में स्थापित करने की कोशिश की गई. और सिर्फ़ यात्री ही क्यों, राहुल गांधी को एक कर्म-योगी, तपस्वी, ख़ुद पर संयम रखने वाला योद्धा जिसे न तो कश्मीर की कड़कड़ाती ठंड डिगा पायी और न अक्टूबर की वो बरसात भाषण देने से रोक पायी जो मैसूर में उस शाम को हुई थी.
साथ ही साथ राहुल गांधी देश की राजनीति, आर्थिक और सामाजिक हालात को ले कर भी कितने सीरियस हैं या सीरियस से ज़्यादा कहूं कितने चिंतित हैं इसे साबित करने के लिए उन्होंने अपनी बातों और कामों में सीरियसनेस दिखाने के बजाय 'मेक-ओवर' का रास्ता चुना अपने लुक्स के लिए. क्या लम्बी साल्ट-पेपर लुक वाली दाढ़ी और बिखरे बाल काफ़ी है राजनीतिक मेक-ओवर के लिए? हमारे देश में ऐसा मानते हैं कि लड़कों की जब दाढ़ी-मूंछ आ जाती है तो वो मर्द यानी परिपक्व हो जाते हैं.
तो क्या पचास से ज़्यादा सावन देख लेने वाले राहुल जी परिपक्व नहीं...
मैं नफ़रत के बाज़ार में मुहब्बत की दुकान खोल रहा हूं... बात छोटी सी है लेकिन है बड़ी प्यारी. नहीं. ऊपर से जब कहने वाला शख़्स प्यारा हो, तो बात ख़ुद ब ख़ुद और ख़ूबसूरत हो जाती है. और फिर राहुल गांधी से ज़्यादा ख़ूबसूरत कौन हो सकता है, जो राजनीति में शायरी कर लेते हैं, अपने विपक्षी नेता को जा कर गले से लगा लेते हैं. है न प्यारी बात उस प्यारे शख़्स की.
बीते दिन 12 राज्यों से गुजरती हुई, पांच महीने का समय लेकर भारत जोड़ो यात्रा मुकम्मल हुई. इसके साथ ही राहुल गांधी की एक दूसरी यात्रा की शुरुआत भी हो ही गई समझिए. लेकिन उनकी दूसरे यात्रा की बात बाद में करेंगे पहले उनकी इस यात्रा पर बात कर लेते हैं. जिसे कांग्रेस जी जान से कठिन बताने में जुटी रही और राहुल गांधी को एक यात्री के रूप में स्थापित करने की कोशिश की गई. और सिर्फ़ यात्री ही क्यों, राहुल गांधी को एक कर्म-योगी, तपस्वी, ख़ुद पर संयम रखने वाला योद्धा जिसे न तो कश्मीर की कड़कड़ाती ठंड डिगा पायी और न अक्टूबर की वो बरसात भाषण देने से रोक पायी जो मैसूर में उस शाम को हुई थी.
साथ ही साथ राहुल गांधी देश की राजनीति, आर्थिक और सामाजिक हालात को ले कर भी कितने सीरियस हैं या सीरियस से ज़्यादा कहूं कितने चिंतित हैं इसे साबित करने के लिए उन्होंने अपनी बातों और कामों में सीरियसनेस दिखाने के बजाय 'मेक-ओवर' का रास्ता चुना अपने लुक्स के लिए. क्या लम्बी साल्ट-पेपर लुक वाली दाढ़ी और बिखरे बाल काफ़ी है राजनीतिक मेक-ओवर के लिए? हमारे देश में ऐसा मानते हैं कि लड़कों की जब दाढ़ी-मूंछ आ जाती है तो वो मर्द यानी परिपक्व हो जाते हैं.
तो क्या पचास से ज़्यादा सावन देख लेने वाले राहुल जी परिपक्व नहीं थे. ख़ैर. ये तो उनके लुक्स की बात हुई. वैसे होनी नहीं चाहिए थी लेकिन करना पड़ा क्योंकि राहुल जी के साथी कांग्रेसी उनके इसी दाढ़ी और मूंछ की वजह से उन्हें एक तपस्वी बताने लगे हैं. तो क्या एक इंसान जो राजकुमारों वाले ठाठ में पला हो, जिसका धूल-मिट्टी एयर ज़िंदगी के धूप से कभी पाला नहीं पड़ा हो, जिसे देश की सबसे पुरानी पार्टी की अध्यक्षता थाली में सजा कर दे दी गई हो, और उसके बाद उस पार्टी का पतन शुरू हो गया हो.
लोगों ने उस राजकुमार को 'पप्पू' का नाम दे दिया हो उसकी मासूम हरकतों की वजह से. चुनाव में बार-बार उसे हार का सामना करना पड़ा हो और फिर अपनी ही पार्टी में उस राजकुमार के ख़िलाफ़ बग़ावत के स्वर फूटने लगे हों, ऐसे में सिर्फ़ दाढ़ी बढ़ा लेने से वो 'पप्पू' परिपक्व राजनेता हो जाएगा क्या? जवाब आप ख़ुद तलाशिए.मीन-व्हाइल, एक बात जो इस पूरे भारत जोड़ो यात्रा के दौरान मुझे खटकती रही वो ये कि राहुल जी को एक यात्री कह कर पुकारा गया बार-बार, हर बार.
मुझे हर बार उन्हें यात्री कहे जाने पर ताज्ज़ुब होता रहा. मैं सोच में पड़ जाती थी कि क्या जो उन्हें यात्री पुकार रहे हैं उन्हें यात्री का अर्थ भी पता है? देखिए, यात्री और पर्यटक होने में बारीक़ फ़र्क़ है. मेरे लिए राहुल गाँधी इस भारत जोड़ो यात्रा के दौरान यात्री कम और पर्यटक ज़्यादा रहे हैं. आप कहिएगा कैसे. तो चलिए आपके इस सवाल का समाधान किए देती हूँ. सबसे पहली बात जो यात्री होते हैं वो बिना किसी साज़-सज्जा, सुविधा, सुख की सोचे बग़ैर निकल पड़ते हैं घर से. और बारीक़ी से अगर कहूं तो यात्रियों का कोई ठौर नहीं होता. वो रमता जोगी, बहता पानी सरीखा होता है.
वहीं जो पर्यटक यानी ट्यूरिस्ट होते हैं उनका लक्ष्य जगह घूमना-देखना, आराम से रहना, फोटो क्लिक करने के लिए लोकल जगहों पर जाना, लोकल लोगों से मिलना, उस जगह की जो भी ख़ासियत है उसके बारे में जानना भर होता है. तो अब आप ख़ुद ही बताइए कि राहुल गाँधी आपके लिए पर्यटक हैं या यात्री. ठीक न!
वैसे जो राजकुमार रहा हो. जो बुलेट प्रूफ़ कार से चला हो. जिसने AC के बग़ैर एक भी रात नहीं बिताई हो, जिसने पीने के लिए मिनरल वॉटर तो छोड़िये नहाने के लिए भी मिनरल वाटर ही इस्तेमाल किया हो, वैसे राजकुमार के लिए शायद ये यात्री टर्म उनके चाहने वाले इस्तेमाल कर सकते हैं मगर भारत का एक आम इंसान उन्हें यात्री नहीं मान सकता. राहुल जी के साथ उनके आगे पीछे उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखने के लिए वैन चला करती थी.
वो जिस भी लोकल दुकान पर चाय पीने के लिए रुकते थे उनके पहुंचने से 45 मिनट पहले उनके सुरक्षा कर्मी वहां पहुंच कर सुरक्षा से ज़रूरी हर चीज़ का मुआयना करते थे. यहाँ तक कि चाय भी उन सुरक्षा कर्मियों की मौजूदगी में ही बनती थी. और तो और वो जो प्रचारित किया गया कि राहुल जी राह चलते हर किसी से मिल ले रहें हैं, गले लगा रहे हैं सब प्री-प्लाण्ड था. कोई भी शख़्स बिना सुरक्षा जाँच के उन तक नहीं पहुँच सकता था, एकाद लोगों को छोड़ दें तो.
अब कहिए किस यात्री को ये सब सुविधा मिलती है और अगर सुविधा मिल ही गई तो आप काहे के यात्री और काहे के तपस्वी. चलिए ये तो हुई सिर्फ़ और सिर्फ़ राहुल जी की बात. अब थोड़ी बात करते हैं भारत जोड़ो यात्रा के लक्ष्य और कॉंग्रेस के भविष्य के बारे में. जैसा कि मैंने इस लेख की शुरुआत में ही लिखा था कि ये यात्रा जो कि यात्रा कम और एक मैराथन ज़्यादा था, उसके समाप्त होते ही दूसरे मैराथन की शुरुआत हो गई है उससे मेरा मतलब था 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव का.
तो क्या बढ़ी हुई दाढ़ी, एक सिरियस लुक और कई हज़ार किलोमीटर चल भर लेने से राहुल गांधी जी चुनाव जीत पाएंगे, मोदी जी को हरा पाएंगे? इसका जवाब उतना मुश्किल नहीं है जितना मुश्किल एक और सवाल और उसका जवाब है. क्या भारत जोड़ों यात्रा से कांग्रेस में जो आंतरिक बिखराव की स्थिति थी उसनें कोई सुधार हुआ है? क्या पार्टी जिसके नेता आपस में ही वर्चस्व की लड़ाई के लिए लड़ रहें हैं, (आप राजस्थान का उदाहरण याद कर लें) वो एकजुट हो पाये हैं क्या?
क्या भारत जोड़ो यात्रा के बाद कांग्रेस के वो कार्यकर्ता जो पार्टी की क़तार में सबसे पीछे खड़े हैं, जिनमें उत्साह की कमी है उनमें इस यात्रा ने कोई जान भरी है? इसका जवाब लोकसभा चुनाव वाले सवाल के जवाब से ज़्यादा उलझा और कठिन है. राहुल गांधी और उनके चाहने वालों को समझना होगा बीजेपी को हराने के बजाए उन्हें अभी अपनी पार्टी को जीत के लिए तैयार करने की दरकार है.
विपक्ष मज़बूत हो इसलिए छोटी-छोटी पार्टियों को अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा को एक तरफ रह कर एकजुट होने की दरकार है. लेकिन क्या ये छोटी-छोटी राजनीतिक पार्टियां राहुल गांधी को अपना नेता मनाने को तैयार है? क्या वो साल्ट-पेपर लुक वाले राहुल जी के नेतृत्व में 2024 का चुनाव लड़ने के लिए रेडी है? क्या भारत जोड़ो यात्रा के ख़त्म होने के बाद उन्हें ये सभी पार्टी विपक्ष का चेहरा मनाने को तैयार है?
देखिए भारत जोड़ो यात्रा तो ख़त्म हो गई है लेकिन वो सवालों का जवाब नहीं, सवालों का पहाड़ छोड़ कर गई है. हां इन सवालों के ढेर के बावजूद अगर इस यात्रा से अगर किसी को लाभ हुआ है तो वो सिर्फ़ और सिर्फ़ राहुल गांधी का हुआ है. पप्पू वाली इमेज टूटी है और परिपक्व नेता वाली इमेज उभरी है. जो सवाल करता है, सवालों के जवाब देने से नहीं चूकता है.
जो पहले राजकुमार था अब सड़कों पर चल कर आम आदमी से जुड़ने की कोशिश कर रहा है. जो कश्मीर में भाषण देते हुए ये कहता है कि, 'मैं जानता हूं अपनों के खोने का दर्द, मैं भी आप में से एक आप सा ही हूं.' जनता इस लाइन पर ताली बजाती है अब देखना दिलचस्प होगा कि ताली बजाने वाली यही जनता क्या राहुल गांधी जी को सत्ता में आसीन होते देखना चाहेगी!
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