सोनिया गांधी के साथ साथ मायावती (Mayawati) को भारत रत्न (Bharat Ratna) देने की बात एक साथ हो तो थोड़ा अजीब तो लगेगा ही. थोड़ा क्या ज्यादा ही अजीब लगेगा, जब मालूम हो कि ये मांग भी कांग्रेस के भीतर से हो रही है.
सोनिया गांधी के लिए ऐसी मांग कांग्रेस की भीतर से आने की बात समझ में आती है. कम से कम G-23 के चिट्ठी लिखने वाले नेताओं को छोड़ दें तो, बाकियों की तरफ से ऐसी डिमांड तो हो ही सकती है, लेकिन मायावती को लेकर भी वैसी ही डिमांड हो, तो कई तरह के सवाल खड़े होने लगते हैं.
ये तो बीएसपी नेता का मजाक उड़ाने जैसी बात लगती है, या फिर बीएसपी को लेकर कांग्रेस की किसी दूरगामी सोच वाली राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है?
ऐसे में जबकि कांग्रेस अपने मिशन यूपी-2022 को लेकर जोर शोर से तैयारी कर रही हो, हरीश रावत जैसे नेता का मायावती को लेकर ऐसा बयान देना यूं ही कान खड़े कर देने वाला है, खासकर तब जबकि यूपी प्रभारी कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) मायावती से खार खाये बैठी हों - और बीएसपी नेता को बीजेपी का अघोषित प्रवक्ता तक बता चुकी हों!
हरीश रावत के बयान के सियासी मायने
अब हरीश रावत के बयान को जीतनराम मांझी की बातों जैसा तो समझा नहीं जा सकता. वैसे तो दोनों ही अपने अपने राज्यों के मुख्यमंत्री रहे हैं. हरीश रावत उत्तराखंड के तो जीतनराम मांझी बिहार के. जीतनराम मांझी ने एक ही लाठी से सारी भैंसों को हांकने वाली जैसी बात कह डाली है - और बड़े ही अजीब तरीके से राहुल गांधी, तेजस्वी यादव और चिराग पासवान के अचानक सियासी सीन से गायब हो जाने को लेकर सवाल उठाया है. राहुल गांधी छुट्टी पर विदेश गये हुए हैं - और तेजस्वी यादव के लोक सभा चुनाव के बाद और फिर कोरोना के चलते हुए लॉकडाउन में भी लापता होने के किस्से सुनाये जाते रहे. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो चुनाव प्रचार के दौरान पूछ भी लिया - बताओ लॉकडाउन के दौरान किसके घर रह रहे थे.
वैसे हरीश रावत के बयान पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भी रिएक्श आ गया है. जब पत्रकारों ने नीतीश कुमार की राय जानी तो बड़े ही हल्के फुल्के अंदाज में बोले, ‘सब लोगों को मांग करने का अधिकार है. उन लोगों के पास तो पहले सरकार थी... आज मांग कर रहे हैं - पहले ही दिलवा देते.'
सोनिया गांधी और मायावती की ऐसी तस्वीर निकट भविष्य में नजर आने की संभावना तो बहुत ही कम लगती है
असल में देश के नागरिक सम्मान गणतंत्र दिवस के मौके पर ही दिये जाते हैं. इस बार तो गणतंत्र दिवस के आयोजन पर भी कोरोना वायरस का प्रभाव पड़ा है. मौके पर मेहमान बन कर आने वाले ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने अपना कार्यक्रम रद्द कर दिया है. कांग्रेस नेता शशि थरूर गणतंत्र दिवस कार्यक्रम ही रद्द कर देने की मांग की है और बीजेपी प्रवक्त संबित पात्रा के साथ तू-तू मैं-मैं का भी एक दौर हो ही चुका है. शिवसेना प्रवक्ता प्रियंका चतुर्वेदी ने भी कार्यक्रम रद्द करने की ही सलाह दी है.
हरीश रावत ने ट्विटर पर सोनिया गांधी और मायावती की तस्वीरें शेयर करते हुए लिखा है कि सोनिया गांधी और मायावती दोनों बड़ी राजनेता हैं. हरीश रावत का कहना है कि सोनिया गांधी की राजनीति से भले ही किसी की असहमति हो लेकिन महिला सशक्तिकरण में उनके किए कामों को कोई नकार नहीं सकता.
हरीश रावत के बयान पर बीएसपी और बीजेपी नेताओं की प्रतिक्रिया तो आ गयी है, लेकिन कांग्रेस की तरफ से न तो किसी ने सपोर्ट किया है, न ही आधिकारिक तौर पर निजी विचार बता कर पल्ला झाड़ने की कोशिश की गयी है. बीएसपी की तरफ से कुछ नेताओं ने कांग्रेस को सलाह दी है कि ऐसी बातों से मूर्ख बनाने की कोशिश न की जाये. बीएसपी की तरफ से याद दिलाया जा रहा है कि जब कांग्रेस सत्ता में रही तब बीएसपी के संस्थापक कांशीराम को भारत रत्न देने की मांग पर कभी ध्यान नहीं दिया गया.
सवाल ये उठता है कि हरीश रावत ने क्या मायावती का नाम महज इसलिए ले लिया है क्योंकि सोनिया का अकेले लेते तो शोर ज्यादा मचता? जो बीजेपी सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर इतना शोर मचा चुकी हो कि कांग्रेस नेता को प्रधानमंत्री पद ठुकराना पड़ा हो, वो पार्टी भला सोनिया को भारत रत्न देने के बारे में सोचेगी भी - सुन कर ही कितना अजीब लगता है.
ये तो हरीश रावत को भी नहीं लगता होगा कि प्रणब मुखर्जी को पूर्व राष्ट्रपति होने के नाते भारत रत्न मिला है, न कि कांग्रेस नेता के रूप में. हो सकता है उसके पीछे बीजेपी नेतृत्व की दूरगामी सोच भी रही हो. ये भी हो सकता है पश्चिम बंगाल चुनाव आते आते चुनावी रैलियों में बीजेपी नेता इस बात को लेकर भी क्रेडिट लेते नजर आयें. बावजूद इसके कि अपनी आखिरी किताब में मुखर्जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की जीभर कर आलोचना ही की है.
कहीं मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाने का इरादा तो नहीं?
प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में 2022 में होने जा रहे विधानसभा चुनावों की जोर शोर से तैयारी कर रही है. राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा का दिल्ली से हाथरस तक मार्च का मकसद भी यूपी चुनाव के साथ साथ, बिहार चुनाव से पहले वॉर्म अप सेशन जैसा रहा.
लेकिन बिहार के नतीजों ने कांग्रेस को नये सिरे से सोचने को मजबूर कर दिया है. बिहार में कांग्रेस ने तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में स्वीकार किया था, लेकिन चुनावों में खराब प्रदर्शन को लेकर पार्टी को आरजेडी नेताओं के ताने तक सुनने पड़े हैं.
कांग्रेस के पूर्णकालिक अध्यक्ष का मामला भी राहुल गांधी के अरुचि के कारण अधर में ही लटका हुआ है - और आगे को लेकर भी वैसी ही आशंका जतायी जाने लगी है. चर्चा है कि राहुल गांधी अब भी कांग्रेस का दोबारा अध्यक्ष बनने के लिए तैयार नहीं हैं.
यूपी में 2022 से पहले कांग्रेस पश्चिम बंगाल में लेफ्ट के साथ है, लेकिन केरल में वो वाम मोर्चा के खिलाफ चुनाव मैदान में होगी. तमिलनाडु में कांग्रेस का डीएमके के साथ वैसे ही चुनावी गठबंधन है, जैसे एआईएडीएमके के साथ बीजेपी का. असम में बीजेपी की सत्ता में वापसी की कोशिश होगी तो पुड्डुचेरी में कांग्रेस की ही सरकार है और वापसी की उसकी भी कोशिश होगी ही.
अब उत्तर प्रदेश में जो राजनीतिक हालात हैं और बिहार चुनाव में कामयाबी के बाद असदुद्दीन ओवैसी जिस तरीके से एक्टिव हैं, निश्चित तौर पर कांग्रेस की भी उस पर नजर होगी ही. पश्चिम बंगाल भले ही असदुद्दीन ओवैसी की पहुंच के बाहर नजर आ रहा हो - और पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के ओवैसी के साथ साथ सीपीएम और कांग्रेस के साथ ही समझौते की कोशिश का बयान आ चुका हो, लेकिन यूपी के नतीजे उनके लिए बिहार जैसे भी हो सकते हैं.
मायावती भी बिहार चुनाव के बाद असदुद्दीन ओवैसी के साथ गठबंधन खड़ा कर सकती हैं. वैसे ओवैसी लखनऊ जाकर यूपी के छोटे दलों के नेताओं के साथ मिल भी चुके हैं. निश्चित रूप से कांग्रेस को नये समीकरण और नये हालात में अपनी पैमाइश का मौका मिला ही होगा. जरूरत के हिसाब से रणनीति में बदलाव समय से हो जाये तो बेहतर ही होगा.
कांग्रेस की जो मौजूदा हालत में उसमें राहुल गांधी के वायनाड से सांसद होने के बावजूद केरल से भी कोई बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है. यूपी चुनाव के लिए कांग्रेस को तैयारी का अभी काफी वक्त भी मिल रहा है. ऐसे में हो सकता है कांग्रेस नये सिरे से गठबंधन की कोशिश कर रही हो. आम चुनाव में तो अखिलेश यादव के साथ गठबंधन कर मायावती ने कांग्रेस को दूरी बनाकर चलने की हिदायद दे डाली थी.
फिलहाल अखिलेश यादव और मायावती दोनों ही किसी भी बड़े दल के साथ चुनाव समझौता न करने की बात कह चुके हैं. जिस तरह कांग्रेस और बीएसपी से चुनावी गठबंधन कर अखिलेश यादव धोखा खा चुके हैं, लगता नहीं कि अगली बार वो ऐसा कोई प्रयोग करना चाहेंगे. हो सकता है कांग्रेस को लग रहा हो कि मायावती मुख्यमंत्री बनने के लिए अच्छा ऑफर मिलने पर ठुकराने पर दो बार सोच भी सकती हैं.
कांग्रेस के साथ मायावती समझौते के बारे में सोच भी सकती हैं, बशर्ते, कांग्रेस की तरफ से सार्वजनिक घोषणा की जाये कि वो मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में मायावती को भी वैसे ही स्वीकार करेगी जैसे बिहार में तेजस्वी यादव को किया था? सवाल ये है कि कांग्रेस ये सब गंभीरतापूर्वक सोचने को तैयार है भी या बस यूं ही मायावती के लिए भारत रत्न की मांग कर बहती गंगा में हाथ गीला कर लिया है? क्योंकि ये डिमांड तो बहती गंगा में हाथ धोने जैसा भी नहीं है!
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