भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर आजाद रावण (Chandra Shekhar Azad) को टाइम मैगजीन ने दुनिया के 100 नेताओं की सूची (TIME 100 emerging leaders) में शामिल किया है. सूची में दुनिया भर के उन उभरते लीडर्स को शामिल किया गया है जो भविष्य को संवारने की उम्मीद जगा रहे हैं. चंद्रशेखर आजाद के सहित भारतीय मूल के पांच लोगों को इस सूची में जगह मिली है.
2019 के चुनाव में चंद्रशेखर आजाद की तरफ से वाराणसी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने के संकेत दिये गये थे. अपने साथियों के साथ बनारस पहुंच कर चंद्रशेखर ने रैली भी कर डाली थी, लेकिन फिर पूरा मामला टांय टांय फिस्स ही नजर आया.
महीनों जेल में गुजार चुके चंद्रशेखर आजाद को दलितों की राजनीति करने वाली मायावती हमेशा ही खारिज करती आयी हैं - और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी मुलाकात और समर्थन में ट्वीट करने से ज्यादा तवज्जो देतीं अब तक कभी देखने को नहीं मिली हैं.
चंद्रशेखर आजाद कई साल से लगातार संघर्ष कर रहे हैं और भीम आर्मी के बाद अपना राजनीतिक फोरम भी बना चुके हैं, लेकिन मुख्यधारा की राजनीति में अभी तक जगह बना पाने में वो असफल रहे हैं - आखिर क्या वजह है कि चंद्रशेखर आजाद की प्रतिभा का लोहा टाइम जैसी जानी मानी मैगजीन मान रही है और वो घर में ही अपनी पहचान बनाने के लिए जूझ रहे हैं - सवाल है कि क्या 2022 में होने जा रहे यूपी विधानसभा चुनावों तक सूबे की दलित राजनीति (Dalit Politics) में चंद्रशेखर आजाद अपनी जगह बना पाएंगे?
टाइम ने तारीफ में कहा क्या है
चंद्रशेखर रावण के संघर्ष को पहचानने और मन सुकून देने वाली ये खबर उस वक्त आयी है जब वो अपने उन्नाव की घटना की शिकार बच्चियों को इंसाफ दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. उन्नाव के एक खेत में बंधी हुई हालत में तीन लड़कियां मिली थीं जिनमें से दो की मौत हो गयी और एक जिंदा है और उसका इलाज चल रहा है.
खबरों के मुताबिक, यूपी में उन्नाव के बबुरहा गांव में तीन लड़कियां चारा लेने गई थीं - और जब वे घर नहीं लौटीं तो परिवारवालों ने...
भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर आजाद रावण (Chandra Shekhar Azad) को टाइम मैगजीन ने दुनिया के 100 नेताओं की सूची (TIME 100 emerging leaders) में शामिल किया है. सूची में दुनिया भर के उन उभरते लीडर्स को शामिल किया गया है जो भविष्य को संवारने की उम्मीद जगा रहे हैं. चंद्रशेखर आजाद के सहित भारतीय मूल के पांच लोगों को इस सूची में जगह मिली है.
2019 के चुनाव में चंद्रशेखर आजाद की तरफ से वाराणसी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने के संकेत दिये गये थे. अपने साथियों के साथ बनारस पहुंच कर चंद्रशेखर ने रैली भी कर डाली थी, लेकिन फिर पूरा मामला टांय टांय फिस्स ही नजर आया.
महीनों जेल में गुजार चुके चंद्रशेखर आजाद को दलितों की राजनीति करने वाली मायावती हमेशा ही खारिज करती आयी हैं - और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी मुलाकात और समर्थन में ट्वीट करने से ज्यादा तवज्जो देतीं अब तक कभी देखने को नहीं मिली हैं.
चंद्रशेखर आजाद कई साल से लगातार संघर्ष कर रहे हैं और भीम आर्मी के बाद अपना राजनीतिक फोरम भी बना चुके हैं, लेकिन मुख्यधारा की राजनीति में अभी तक जगह बना पाने में वो असफल रहे हैं - आखिर क्या वजह है कि चंद्रशेखर आजाद की प्रतिभा का लोहा टाइम जैसी जानी मानी मैगजीन मान रही है और वो घर में ही अपनी पहचान बनाने के लिए जूझ रहे हैं - सवाल है कि क्या 2022 में होने जा रहे यूपी विधानसभा चुनावों तक सूबे की दलित राजनीति (Dalit Politics) में चंद्रशेखर आजाद अपनी जगह बना पाएंगे?
टाइम ने तारीफ में कहा क्या है
चंद्रशेखर रावण के संघर्ष को पहचानने और मन सुकून देने वाली ये खबर उस वक्त आयी है जब वो अपने उन्नाव की घटना की शिकार बच्चियों को इंसाफ दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. उन्नाव के एक खेत में बंधी हुई हालत में तीन लड़कियां मिली थीं जिनमें से दो की मौत हो गयी और एक जिंदा है और उसका इलाज चल रहा है.
खबरों के मुताबिक, यूपी में उन्नाव के बबुरहा गांव में तीन लड़कियां चारा लेने गई थीं - और जब वे घर नहीं लौटीं तो परिवारवालों ने तलाश शुरू की. खोजते खोजते खेतों में पहुंचे घरवालों तीनों ही दुपट्टे से लिपटी हुई मिलीं और उनके मुंह से झाग निकल रहा था. अस्पताल ले जाने पर दो को मृत घोषित कर दिया गया, जबकि एक का इलाज चल रहा है.
चंद्रशेखर आजाद ने उन्नाव की घटना को लेकर ट्विटर पर अपनी डिमांड रखी है - 'हाथरस की तरह उनको आनन-फानन में जलाने का मतलब होगा लीपापोती... हमारी मांग है कि एक सीनियर मेडिकल बोर्ड AIIMS, दिल्ली में इनका पोस्टमॉर्टम करे - और बोर्ड के कम से कम आधे डॉक्टर बहुजन हों.'
चंद्रशेखर आजाद ने उन्नाव को लेकर हाथरस जैसी जो आशंका जतायी है, टाइम मैगजीन ने भीम आर्मी चीफ को सौ नेताओं की सूची में शामिल करते हुए उनकी मुहिम का भी जिक्र किया है.
मैगजीन ने लिखा है, चंद्रशेखर आजाद और भीम आर्मी ने हाथरस में 19 साल की दलित युवती के साथ हुए गैंग रेप के मामले में इंसाफ दिलाने के लिए मुहिम चलायी थी. सितंबर, 2020 में हाथरस में हुए गैंगरेप के बाद पीड़ित को दिल्ली के अस्पताल में भर्ती कराया गया था, लेकिन बचाया न जा सका. बाद में पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने घरवालों को भी दूर रखते हुए उसका आधी रात को उसका अंतिम संस्कार कर दिया था. यूपी पुलिस के बड़े अफसर तो रेप की घटना से ही इंकार करते रहे, लेकिन सीबीआई जांच न सिर्फ रेप के सबूत मिले बल्कि आरोपी भी वे ही बने जिन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर जेल भेजा था. चंद्रशेखर आजाद के बारे में टाइम मैगजीन ने लिखा है कि वो दलित समुदाय को गरीबी से उबारने के लिए शिक्षा को महत्व देते हैं और स्कूल भी चलाते हैं. चंद्रशेखर आजाद के बारे में मैगजीन का कहना है कि वो आक्रामक हैं और बाइकों पर जातीय हिंसा के शिकार लोगों की रक्षा के मकसद से गांवों में जाते हैं. मैगजीन का मानना है कि चंद्रशेखर आजाद का असली इम्तिहान 2022 में होने वाला है जब यूपी में विधानसभा के लिए चुनाव होंगे.
2022 इम्तिहान की कैसी है तैयारी
चंद्रेशखर आजाद के साथ ही भीम आर्मी चीफ ने अपने नाम में रावण भी जोड़ रखा है और रावण कहलाना उनको पंसद है. नाम में रावण जोड़ने को लेकर चंद्रशेखर आजाद का कहना है कि ऐसा वो इसलिए करते हैं क्योंकि वो रावण को खलनायक नहीं बल्कि नायक मानते हैं. कहते हैं, रावण ने अपनी बहन शूर्पनखा के अपमान का बदला लेने के लिए सीता हरण किया था, बावजूद इसके उसने सीता को पूरा सम्मान दिया.
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से आने वाले चंद्रशेखर आजाद रावण की उम्र अभी 34 साल है - और अब तक जो पहचान बनी है वो कम भी नहीं है, लेकिन जिस तेजी से वो यूपी की दलित राजनीति में उभरे उसमें एक ठहराव सा नजर आने लगा है - बल्कि, भटकाव कहना ज्यादा ठीक होगा.
कानून की पढ़ाई करने वाले चंद्रशेखर आजाद को बतौर पेशा वकालत पसंद रहा और इसके लिए वो अमेरिका जाकर पढ़ाई करना चाहते थे. एक दिन वो अपने पिता की बीमारी को लेकर सहारनपुर के अस्पताल गये और वहां उनको दलितों की मुश्किलों का करीब से एहसास हुआ - और तभी अमेरिका जाने का विचार छोड़ कर दलित एक्टिविस्ट बन गये. 2015 में चंद्रशेखर आजाद ने भीम आर्मी एकता मिशन नाम से संगठन बनाया - और बाद में अपनी गतिविधियों को राजनीतिक रूप देने के लिए पिछले साल आजाद समाज पार्टी भी बना ली है.
2017 में बीजेपी के सत्ता में आने के कुछ दिन बाद ही मई में सहारनपुर हिंसा को लेकर सबसे पहले भीम आर्मी का नाम आया और उसके साथ ही चंद्रशेखर आजाद रावण चर्चित हो गये.
हिंसा के बाद यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री और बीएसपी नेता मायावती ने हिंसा प्रभावित इलाके का दौरा किया था. तब मायावती ने चंद्रशेखर आजाद का नाम तो नहीं लिया लेकिन कुछ युवा कह कर उनको संबोधित करते हुए सलाह दी कि वो बीएसपी के बैनर तले दलितों की लड़ाई लड़ें तो उन्हें राजनीतिक संरक्षण मिल सकता है और वे अपनी लड़ाई को आगे बढ़ा सकते हैं. हिंसा के आरोप में चंद्रशेखर को जेल भेज दिया गया - और जब छूट कर बाहर आये तो मायावती को अपनी बुआ जैसा बताया.
मायावती ने चंद्रशेखर की बातों को फौरन खारिज करते हुए बोल दिया कि वो किसी की बुआ नहीं हैं और न ही कोई उनका भतीजा है. ऐसा कहते हुए मायावती ने चंद्रशेखर आजाद के दलित आंदोलन में अस्तित्व को तब तो खारिज किया ही, बाद में उनके प्रदर्शनों को लेकर दलित समाज को सावधान रहने की भी सलाह दी.
मायावती ने तो ठुकरा दिया, लेकिन 2019 के आम चुनाव से पहले कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी चंद्रशेखर आजाद से मिलने मेरठ के अस्पताल पहुंच गयीं - और भीम आर्मी चीफ के कांग्रेस से करीबी की चर्चा को खूब हवा दी. तब यूपी में सपा-बसपा गठबंधन हुआ था और कुछ सीटों पर उम्मीदवार न खड़ा करने की घोषणा की गयी थी. मायावती इस वाकये से इतनी खफा हुईं कि अमेठी और रायबरेली में भी गठबंधन के उम्मीदवार उतारने पर आमादा हो गयीं और जैसे तैसे अखिलेश यादव को मनाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी थी.
प्रियंका गांधी ने तब भी चंद्रशेखर आजाद के स्टैंड को सपोर्ट किया और अब भी कभी उनके इलाज को लेकर तो कभी गिरफ्तारी को लेकर ट्विटर पर आवाज उठाती रहती हैं, लेकिन अब तक ऐसा कभी नहीं लगा कि भीम आर्मी और कांग्रेस के बीच कोई चुनावी समझौता होने जा रहा है.
ऐसा लगता है जो फैक्टर मायावती के चंद्रशेखर आजाद से खफा होने की वजह है, वही प्रियंका गांधी वाड्रा की राजनीतिक समीकरणों के फिट होने में आड़े आ रहा है. हो सकता है मायावती की ही तरह प्रियंका गांधी वाड्रा भी चंद्रशेखर आजाद को कांग्रेस ज्वाइन कराना चाह रही हों - और वो उसके लिए राजी न हो रहे हों.
अब तक जो कुछ देखने को मिला है उससे तो यही लगता है कि चंद्रशेखर आजाद कोई पार्टी ज्वाइन करने की जगह अपनी अलग पहचान के साथ राजनीति करना चाहते हैं - और कांग्रेस को ये वैसे ही मंजूर नहीं हो रहा होगा जैसे गुजरात में राहुल गांधी का रवैया हार्दिक पटेल को लेकर रहा. आखिरकार, मजबूर होकर हार्दिक पटेल को कांग्रेस का ही दामन थामना पड़ा.
गुजरात से ही आने वाले दलित नेता जिग्नेश मेवाणी भी कांग्रेस ज्वाइन करने से बचते रहे और कांग्रेस के सपोर्ट से विधायक भी बने लेकिन निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर.
हार्दिक पटेल की राजनीति तो पटेल समाज को लेकर शुरू हुई लेकिन मुद्दा सिर्फ आरक्षण तक सिमटा रहा. जिग्नेश मेवाणी की राजनीति जरूर दलित समुदाय तक फोकस रही है, लेकिन चंद्रशेखर आजाद रावण के मामले में काफी भटकाव नजर आता है. ये ठीक है कि चंद्रशेखर आजाद भी बाकियों की तरह किसान नेता राकेश टिकैत को सपोर्ट करने गाजीपुर बॉर्डर पहुंचते हैं, लेकिन वो सीएए के खिलाफ दिल्ली में भी प्रदर्शन करने लगते हैं और गिरफ्तार होकर जेल चले जाते हैं.
राजनीति में जेल जाना कोई बाधा नहीं है, लेकिन किसी मुद्दा विशेष पर फोकस होना कहीं ज्यादा मायने रखता है. अगर सत्ता विरोध की आंदोलनकारी राजनीति करनी है तो वो भी कोई बुरा नहीं है, लेकिन जरूरी नहीं कि वो स्थिति मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा बनाये भी - चंद्रशेखर आजाद की सबसे बड़ी समस्या यही लगती है और यही वजह है कि उनका संघर्ष लंबा खिंच रहा है.
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