नीतीश कुमार की सरकार पर भले ही कोरोना वायरस पर काबू पाने को लेकर सवाल उठे हों. भले ही प्रवासी मजदूरों के मामले में मुंह मोड़ लेने के आरोप लगे हों - और भले ही स्वच्छता सर्वे में पटना को देश का सबसे गंदा शहर पाया गया हो, लेकिन बिहार की चुनावी गठबंधन की राजनीति (Alliance Politics) में जेडीयू नेता की सियासी सेहत पर इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता.
महागठबंधन छोड़ने के बाद जब नीतीश कुमार बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बने और फिर एनडीए में शामिल हुए तो उनके बयानों में अक्सर बेचारगी की झलक मिलती थी. जब भी वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करते तो स्वाभाविक तौर पर बीती बातें याद आने लगतीं कि कैसे मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने के बाद नीतीश कुमार ने एनडीए छोड़ दिया था - और मोदी के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही मुख्यमंत्री पद से भी किनारा कर लिया था. तब नीतीश कुमार ने जीतनराम मांझी को अपना अस्थायी उत्तराधिकारी बनाया था, लेकिन जब वो बहकने लगे तो मांझी को कुर्सी से हटाकर खुद बैठ गये. ये बात अलग है कि मांझी भी बीजेपी से लेकर आरजेडी तक का साथ निभाने के बाद फिर नीतीशं शरणं गच्छामि के संदेश दे रहे हैं.
लेकिन अब तो ऐसा लगता है जैसे नीतीश कुमार बिहार (Bihar Election 2020) के मामले में NDA में तो महागठबंधन से भी ताकतवर लगने लगे हैं - ताकतवर भी इतने कि सीटों को लेकर छटपटाते चिराग पासवान की बीजेपी भी मदद नहींं कर पाएगी, ऐसा लगता है!
फिर बने गठबंधन के नेता
बीजेपी के साथ दोबारा हाथ मिलाने से लेकर आम चुनाव तक नीतीश कुमार के पास इतनी हिम्मत नहीं दिखी कि वो 2019 में जेडीयू का मैनिफेस्टो लोगों के सामने पेश कर सकें. मोदी कैबिनेट 2.0 में एक ही विभाग ऑफर होने पर नीतीश कुमार ने इंकार तो कर दिया था, लेकिन तीन तलाक, धारा 370 और नागरिकता संशोधन कानून बनने तक जेडीयू नेता को खामोशी अख्तियार किये हुए ही देखा गया - लेकिन एक बार फिर ये सब बीती बातों का हिस्सा हो चुका है. गौर करने वाली बात ये भी है कि NRC के खिलाफ...
नीतीश कुमार की सरकार पर भले ही कोरोना वायरस पर काबू पाने को लेकर सवाल उठे हों. भले ही प्रवासी मजदूरों के मामले में मुंह मोड़ लेने के आरोप लगे हों - और भले ही स्वच्छता सर्वे में पटना को देश का सबसे गंदा शहर पाया गया हो, लेकिन बिहार की चुनावी गठबंधन की राजनीति (Alliance Politics) में जेडीयू नेता की सियासी सेहत पर इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता.
महागठबंधन छोड़ने के बाद जब नीतीश कुमार बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बने और फिर एनडीए में शामिल हुए तो उनके बयानों में अक्सर बेचारगी की झलक मिलती थी. जब भी वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करते तो स्वाभाविक तौर पर बीती बातें याद आने लगतीं कि कैसे मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाये जाने के बाद नीतीश कुमार ने एनडीए छोड़ दिया था - और मोदी के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही मुख्यमंत्री पद से भी किनारा कर लिया था. तब नीतीश कुमार ने जीतनराम मांझी को अपना अस्थायी उत्तराधिकारी बनाया था, लेकिन जब वो बहकने लगे तो मांझी को कुर्सी से हटाकर खुद बैठ गये. ये बात अलग है कि मांझी भी बीजेपी से लेकर आरजेडी तक का साथ निभाने के बाद फिर नीतीशं शरणं गच्छामि के संदेश दे रहे हैं.
लेकिन अब तो ऐसा लगता है जैसे नीतीश कुमार बिहार (Bihar Election 2020) के मामले में NDA में तो महागठबंधन से भी ताकतवर लगने लगे हैं - ताकतवर भी इतने कि सीटों को लेकर छटपटाते चिराग पासवान की बीजेपी भी मदद नहींं कर पाएगी, ऐसा लगता है!
फिर बने गठबंधन के नेता
बीजेपी के साथ दोबारा हाथ मिलाने से लेकर आम चुनाव तक नीतीश कुमार के पास इतनी हिम्मत नहीं दिखी कि वो 2019 में जेडीयू का मैनिफेस्टो लोगों के सामने पेश कर सकें. मोदी कैबिनेट 2.0 में एक ही विभाग ऑफर होने पर नीतीश कुमार ने इंकार तो कर दिया था, लेकिन तीन तलाक, धारा 370 और नागरिकता संशोधन कानून बनने तक जेडीयू नेता को खामोशी अख्तियार किये हुए ही देखा गया - लेकिन एक बार फिर ये सब बीती बातों का हिस्सा हो चुका है. गौर करने वाली बात ये भी है कि NRC के खिलाफ प्रस्ताव पारित करने वाला बिहार पहला राज्य रहा और फिर नीतीश कुमार के दिखाये रास्ते पर चलते हुए कई और भी राज्यों ने ऐसा प्रस्ताव पारित किया.
अब जरा याद कीजिये - 5 अगस्त 2020 को नीतीश कुमार ने क्या कार्यक्रम बनाया था?
जिस दिन राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन करने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अयोध्या पहुंचे थे. कांग्रेस और एनडीए के दूसरे नेताओं के साथ साथ बिहार से आने वाले राम विलास पासवान तक ने जश्न में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया, लेकिन नीतीश कुमार खगड़िया सहित बिहार के बाढ़ग्रस्त इलाकों का दौरा करते हुए हालात का जायजा लेते रहे - और डंके की चोट पर तस्वीरें भी ट्विटर पर शेयर की.
आम चुनाव से लेकर हाल तक हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर बीजेपी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलते देखे गये नीतीश कुमार एक बार फिर से दूरी बनाते नजर आ रहे हैं. ऐसा करने की वजह सिर्फ और सिर्फ मुस्लिम वोट बैंक है. वो मुस्लिम वोट बैंक को मैसेज देने की कोशिश कर रहे हैं कि बीजेपी के साथ होते हुए भी जेडीयू की अलग राजनीति के वो नेता हैं. अब ये बात मुस्लिम समुदाय के गले उतरती है या नहीं ये अलग मामला है.
नीतीश कुमार चुनावों के दौरान ताकतवर कैसे बन जाते हैं?
दरअसल, नीतीश कुमार मौके की राजनाीति के माहिर हैं और भविष्य के हालात का बहुत पहले ही अंदाजा लगा लेते हैं. नीतीश कुमार को ये भरोसा भी रहता है कि लोगों की स्मृतियां बड़ी कमजोर होती हैं और वे गुजरते वक्त के साथ सब कुछ भूल जाते हैं. वो मान कर चल रहे हैं कि सुशांत सिंह राजपूत केस में सीबीआई जांच करा लेने में सफल हो जाने के बाद लोगों को न तो बाढ़ की मुश्किलें याद रह पाएंगी और न ही चमकी बुखार या फिर प्रवासी मजदूरों का कदम कदम पर ठोकरें खाना.
चुनाव मैदान में कूदने से पहले नीतीश कुमार के सामने एक ही चुनौती होती है - साथी राजनीतिक दलों की तरफ से खुद को गठबंधन का नेता घोषित करवाना. 2015 में भी ऐसा ही हुआ था और 2020 में भी. बीजेपी में संजय जायसवाल और नित्यानंद राय से लेकर गिरिराज सिंह तक नीतीश कुमार पर हमले से लेकर मुख्यमंत्री की कुर्सी बीजेपी के लिए छोड़ने तक की सलाह देते रहे. नीतीश कुमार भी तब तक खासे परेशान रहे जब तक बीजेपी की तरफ से ऐसी कोई सार्वजनिक घोषणा नहीं हुई थी. जैसे ही अमित शाह ने सबके सामने बोल दिया कि बिहार में एनडीए के नेता नीतीश कुमार ही रहेंगे और देश के बाकी हिस्सों में हर कोई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में मिल कर हर चुनाव में खड़ा रहेगा. नीतीश कुमार ने ये बात झारखंड में तो नहीं मानी लेकिन दिल्ली में पहली बार अरविंद केजरीवाल के खिलाफ अमित शाह के साथ मंच शेयर करते हुए उसकी भरपायी भी कर दी थी.
2015 में भी नीतीश कुमार की आखिरी चुनौती गठबंधन का नेता बनने तक ही रही. तब महागठबंधन में राहुल गांधी से दबाव बनवा कर नीतीश कुमार ने लालू यादव को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करा लिया - उसके बात तो सीटों के बंटवारे में खुद तो बेहतर डील की ही, कांग्रेस को भी उम्मीदों से ज्यादा सीटें दिला दिये.
अब एनडीए में भी नीतीश कुमार नेता तो बन ही चुके हैं सीटों का बंटवारा होना बाकी है - चिराग पासवान की हद से ज्यादा सक्रियता भी तो यही बता रही है.
एनडीए में भी नीतीश का दबदबा
अव्वल तो श्याम रजक जेडीयू से इस्तीफा देने वाले थे, लेकिन उससे पहले ही नीतीश कुमार ने मंत्री पद से बर्खास्त करते हुए जेडीयू से भी बाहर कर दिया. श्याम रजक नीतीश कुमार की पार्टी के प्रमुख दलित चेहरा थे - और नीतीश कुमार के लिए ऐसा करना जोखिम भरा था, इसलिए भी क्योंकि चिराग पासवान युवा बिहारी दलित नेता के तौर पर नीतीश कुमार पर लगातार हमला बोल कर चैलेंज कर रहे हैं. फिर भी नीतीश ने वही किया जो उनका मन किया.
ऊपर से तो ऐसा ही लगता है कि जीतनराम मांझी के जरिये नीतीश कुमार ने श्याम रजक की भरपाई कर रहे हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि ऐसा ही हो. नीतीश कुमार की राजनीति भी दो कदम आगे होती है. नीतीश कुमार का साथ छूटने के बाद से जीतनराम मांझी सुर्खियां तो खूब बटोरते रहे हैं, लेकिन जमीनी राजनीति में कदम कदम पर फेल ही हुए हैं.
नीतीश कुमार ने जीतनराम मांझी की तरफ फिर से वैसे ही दोस्ती का हाथ बढ़ाया है जैसे लालू यादव से पांच साल पहले मिलाया था - और कुछ हो न हो जीतनराम मांझी मंच पर दलित चेहरे के तौर पर सजाने के काम तो आ ही सकते हैं. ये होने का सबसे बड़ा फायदा तो यही है कि दलित राजनीति के नाम पर चिराग पासवान और रामविलास पासवान मिल कर नीतीश कुमार को कोई नुकसान तो नहीं पहुंचा सकते.
नीतीश कुमार के खिलाफ चिराग पासवान का एक्शन बीजेपी को तो मन ही मन भा ही रहा होगा, लेकिन बीजेपी खामोशी के साथ बस देख रही है. न तो चिराग पासवान को रोक रही है, न सपोर्ट कर रही है. नीतीश कुमार बीजेपी की रणनीतियों से सजग तो हैं लेकिन उनको भी मालूम है कि बीजेपी के पास कोई चारा भी नहीं बचा है. ऐसे में नीतीश कुमार खुल कर राजनीति कर रहे हैं.
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