बवाना उपचुनाव कई मामलों में बिहार के मोदी-नीतीश गठबंधन जैसा ही एक्सपेरिमेंट रहा. फिर चाहें तो बवाना के रिजल्ट को मोदी-नीतीश गठजोड़ के पहले टेस्ट का रिपोर्ट कार्ड भी समझ सकते हैं.
बवाना उपचुनाव में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी अपनी सीट बचाने में कामयाब रही जबकि बीजेपी का पॉलिटिकल साइंस पूरी तरह फेल हो गया.
अगर बवाना के नतीजे किसी खास सियासी मॉडल का आईना हैं तो बिहार में मोदी-नीतीश गठजोड़ के लिए आने वाले दिन बहुत अच्छे तो नहीं लगते.
बिहार और बवाना में तुलना क्यों?
बिहार में नीतीश कुमार महागठबंधन बना कर लालू प्रसाद के साथ चुनाव लड़े, जीते और बीस महीने सरकार चलाने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बीजेपी से हाथ मिला कर कुर्सी पर नये सिरे से काबिज हो गये.
बवाना में वेद प्रकाश आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े थे. एमसीडी चुनावों से पहले तक आम आदमी पार्टी की सरकार के साथ रहे. फिर अचानक आप से इस्तीफा देकर बीजेपी से जा मिले.
नीतीश के पाला बदलने के बाद से जो बातें लालू प्रसाद एंड कंपनी लोगों को समझा रही है, ठीक वही बातें अरविंद केजरीवाल ने बवाना में लोगों को समझायीं. नतीजा सबके सामने है.
वेद प्रकाश लोगों को समझाते रहे कि वो वही शख्स हैं जो दो साल तक उनका विधायक रहा है और आगे भी बना रहेगा, बस फर्क ये आया है कि सफेद टोपी की जगह भगवा ने ले ली है. वेद प्रकाश के लिए ये भले ही मामूली बात रही होगी, लेकिन लोगों को इसमें बड़ा अंतर नजर आया. लोगों को तो बस यही समझ आया कि उन्होंने जिस शख्स को बीजेपी के खिलाफ वोट दिया था वो बीजेपी में जा मिला. वेद प्रकाश और बीजेपी के लाख समझाने पर भी लोगों को यकीन नहीं हुआ और दोबारा उन्होंने केजरीवाल पर भरोसा...
बवाना उपचुनाव कई मामलों में बिहार के मोदी-नीतीश गठबंधन जैसा ही एक्सपेरिमेंट रहा. फिर चाहें तो बवाना के रिजल्ट को मोदी-नीतीश गठजोड़ के पहले टेस्ट का रिपोर्ट कार्ड भी समझ सकते हैं.
बवाना उपचुनाव में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी अपनी सीट बचाने में कामयाब रही जबकि बीजेपी का पॉलिटिकल साइंस पूरी तरह फेल हो गया.
अगर बवाना के नतीजे किसी खास सियासी मॉडल का आईना हैं तो बिहार में मोदी-नीतीश गठजोड़ के लिए आने वाले दिन बहुत अच्छे तो नहीं लगते.
बिहार और बवाना में तुलना क्यों?
बिहार में नीतीश कुमार महागठबंधन बना कर लालू प्रसाद के साथ चुनाव लड़े, जीते और बीस महीने सरकार चलाने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बीजेपी से हाथ मिला कर कुर्सी पर नये सिरे से काबिज हो गये.
बवाना में वेद प्रकाश आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े थे. एमसीडी चुनावों से पहले तक आम आदमी पार्टी की सरकार के साथ रहे. फिर अचानक आप से इस्तीफा देकर बीजेपी से जा मिले.
नीतीश के पाला बदलने के बाद से जो बातें लालू प्रसाद एंड कंपनी लोगों को समझा रही है, ठीक वही बातें अरविंद केजरीवाल ने बवाना में लोगों को समझायीं. नतीजा सबके सामने है.
वेद प्रकाश लोगों को समझाते रहे कि वो वही शख्स हैं जो दो साल तक उनका विधायक रहा है और आगे भी बना रहेगा, बस फर्क ये आया है कि सफेद टोपी की जगह भगवा ने ले ली है. वेद प्रकाश के लिए ये भले ही मामूली बात रही होगी, लेकिन लोगों को इसमें बड़ा अंतर नजर आया. लोगों को तो बस यही समझ आया कि उन्होंने जिस शख्स को बीजेपी के खिलाफ वोट दिया था वो बीजेपी में जा मिला. वेद प्रकाश और बीजेपी के लाख समझाने पर भी लोगों को यकीन नहीं हुआ और दोबारा उन्होंने केजरीवाल पर भरोसा किया.
इस लिहाज से देखा जाय तो वेद प्रकाश की भी वही स्थिति रही जो नीतीश कुमार की अभी है और आगे भी बनी रह सकती है.
नीतीश के बीजेपी से जा मिलने को राहुल गांधी ने धोखेबाजी बताया था. शरद यादव ने तो जेडीयू से बगावत ही कर दी. नीतीश और साथियों की धमकियों की परवाह न कर लालू की पटना रैली में शामिल भी हुए. हाल के बिहार के तूफानी दौरे से लेकर अब तक शरद यादव यही समझा रहे हैं कि नीतीश ने जनादेश के साथ धोखा किया.
तेजस्वी यादव तो पूरे बिहार के जनादेश अपमान यात्रा पर ही निकल पड़े. पटना रैली में सिर्फ मेजबान लालू परिवार ही नहीं, सारे मेहमान भी जितना संभव हुआ मोदी और नीतीश पर गरजते बरसते रहे.
कौन कितने पानी में
बिहार की राजनीति में एम-वाय फैक्टर यानी मुस्लिम यादव गठजोड़ शुरू से ही लालू प्रसाद की असली ताकत रहा है. लालू एंड कंपनी एक बार फिर उसी राह पर चलने लगी है.
नीतीश कुमार जेडीयू से अली अनवर जैसे नेताओं को संसद भेज कर और कुछ मुस्लिम नेताओं को अपनी सरकार में मंत्री बनाकर मुसलमानों को अपनी ओर खींचने की कोशिश करते रहे हैं. अब तक नीतीश कुमार इसमें सफल रहे हैं और एक बार फिर उनकी ओर से ऐसी कोशिशें जारी हैं. नीतीश के अल्पसंख्यक चेहरे मुस्लिम बहुल इलाकों में जाकर समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि नीतीश के खिलाफ जो कुछ भी प्रचारित किया जा रहा है वो सही नहीं है. वे लोगों को बताने की कोशिश कर रहे हैं कि नीतीश के एनडीए में जाने के बावजूद मुसलमानों से किये गये उनके वादों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला. जेडीयू प्रवक्ता भी मीडिया में नीतीश के फैसले का बचाव इस तरह से कर रहे हैं कि जेडीयू को जिन मुद्दों की फिक्र रही है - बीजेपी भी तो उससे दूर ही है - चाहे वो धारा 370 की बात हो या फिर यूनिफॉर्म सिविल कोड की. ये बात अलग है कि इसी तरह के मुद्दों पर कश्मीर में सारे दल बीजेपी के खिलाफ लामबंद हो चुके हैं, महबूबा मुफ्ती भी अलगाववादियों के पैरोकार नजर आ रहे कट्टर दुश्मन फारूक अब्दुल्ला को पिता तुल्य बताने लगी हैं.
ये तो साफ है कि एम-वाय फैक्टर के यादव वोट कोई भी लालू से तो ले लेने से रहा. रही बात मुस्लिम वोटों की तो वे भी अब नीतीश की बातों में आने से रहे. वैसे भी बीजेपी बिहार में पूरी तरह वे तरीके नहीं अख्तियार कर सकती जो उसने यूपी चुनाव में किये थे. नीतीश कुमार वैसे भी यूपी में बीजेपी के गठबंधन साथियों की तुलना में ज्यादा मजबूत स्थिति में हैं. यूपी में बीजेपी ने किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया था.
फिर तो एम-वाय फैक्टर के हिसाब से देखें तो नीतीश के मुकाबले लालू का पलड़ा बहुत ज्यादा भारी पड़ता है. इसका पहला टेस्ट तो 2019 में ही हो पाएगा. 2020 के विधानसभा चुनाव में भी अगर अभी के हिसाब से देखें तो नीतीश को बीजेपी वैसे ही सीटें देगी जैसे यूपी चुनाव में समाजवादी पार्टी ने कांग्रेस को दिया था. ऐसी स्थिति में लालू अपने खाते में ज्यादा सीटें खींच सकते हैं.
लालू के पास केजरीवाल जैसे प्रोग्राम नहीं
बवाना चुनाव के दौरान और केजरीवाल की स्ट्रैटेजी और बिहार में लालू एंड कंपनी की रणनीति में अब तक एक बड़ा फर्क देखने को मिला है. लालू एंड कंपनी लोगों को अब तक ये नहीं समझा पायी है कि उनके पास क्या प्रोग्राम है? नीतीश ने धोखा दिया है ये बात अभी समझाने के लिए तो ठीक है, लेकिन अगले चुनाव तक इन बातों को लोग भूल चुके होंगे.
जिस तरह लालू एंड कंपनी नये सेट पर हमलावर है उससे कहीं ज्यादा आक्रामक केजरीवाल मोदी सरकार के खिलाफ रहे हैं. बवाना चुनाव में केजरीवाल ने रणनीति में बदलाव करते हुए सिर्फ अपनी पार्टी और सरकार की बातें की. लोगों को बताया कि किस तरह वो दिल्ली में काम कर रहे हैं. हालांकि, उन्होंने एमसीडी चुनावों की तरह थोड़ा धमकाया भी था कि अगर लोगों ने बीजेपी कैंडिडेट को जिता दिया तो वहां की सारी स्कीम रुक जाएंगी. इसके पीछे केजरीवाल की दलील थी कि चुनाव जीत जाने के बाद बीजेपी विधायक दिल्ली सरकार के सारे कामों में सिर्फ अड़ंगा डालने की कोशिश करेगा. लालू प्रसाद, उनके परिवार के लोग और साथी अब तक इस बारे में कोई खाका पेश नहीं कर पाये हैं.
दलितों और पिछड़ों को मिलाने की लड़ाई
लालू की पटना रैली में तेजस्वी यादव की बातें गौर करने लायक हैं. तेजस्वी ने कार्यकर्ताओं से अपील की थी कि वे दलितों के पास जायें, उनके दुख दर्द बांटें, उनकी मुश्किलों को समझें और हर संभव मदद करें.
मतलब साफ है - तेजस्वी की भी निगाह दलित और गैर-यादव वोट यानी अतिपिछड़ों पर है. महादलित नीतीश की खोज जरूर है और उन्हीं के बूते वो बिहार में लालू के साथ थोड़ा टक्कर देते हुए खड़े रहे. बीजेपी भी ओबीसी कोटे में कोटा फिट करने की कवायद में जुटी है जिसमें उसकी सीमा छह लाख से बढ़ा कर आठ लाख कर दी गयी है. देश के बाकी हिस्सों की बात अलग है लेकिन बिहार में इसका बहुत फर्क नहीं पड़ने वाला.
कुल मिला कर देखा जाय तो बिहार में अब दलितों और अतिपिछड़ों को साथ मिलाने की होड़ शुरू हो गयी है. अभी तो यही लगता है कि तेजस्वी इस मामले में काफी तेज निकले.
लालू के गाढ़े वक्त में शरद यादव के साथ देने से कितना फर्क पड़ेगा ये सिर्फ आने वाले चुनाव के नतीजे ही बता सकते हैं, लेकिन ये भी साफ हो चुका है कि तेजस्वी की जनादेश यात्रा से आरजेडी पहले के मुकाबले ज्यादा मजबूत हुआ है.
बहरहाल, पटना रैली और शरद यादव के पैंतरों से ये तो लगने ही लगा है कि बिहार में लालू राज की वापसी होने वाली है - अब ये बात अलग है कि लालू राज को जंगल राज के रूप में देखा जाता है या फिर दलितों, वंचितों और गरीबों की आवाज के तौर पर. चुनावी राजनीति के हिसाब से देखें तो लालू राज के पुनरागमन में चुनावी राजनीति नहीं बल्कि मुख्यधारा के राजनीतिक दांव पेंच ही फिलहाल बड़ी दीवार बन कर खड़े हैं - क्योंकि लालू का पूरा परिवार भ्रष्टाचार के मामलों में बुरी तरह फंसा हुआ है.
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