बात निकली है, तो दूर तलक जाने से ज्यादा समझने की है. और ऐसा कदापि नहीं है कि, समझदारों को समझ में नहीं आ रहा है. शायद जो हुआ सो हुआ कहकर आगे बढ़ा जा सकता था. लेकिन बातें कई हैं राह में. गुजरात सरकार का कदम राजनीति वश हैं और अब जमकर राजनीति भी हो रही है. दुनिया भर के तर्क वितर्क हो रहे हैं लेकिन सिर्फ़ सतही तौर पर क्योंकि दामन तो किसी का पाक नहीं है. महिला सम्मान पर आईना सिर्फ़ मोदी जी (लाल किले से) ही क्यों देखें? भूपेंद्रभाई पटेल (रेपिस्टों को रिहा करने पर) देखें. गहलोत जी (रेपिस्टों को फांसी की सजा के प्रावधान पर) देखें. केरल के मुख्यमंत्री (पी शशि की नियुक्ति) देखें. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता दीदी (नदिया कि 24 साल की युवती के गैंगरेप की घटना पर संदेह) भी देखें. सो आईना कॉमन है, चेहरे तमाम है. अब क़ानून के मैदान के खिलाड़ियों की बात करें तो खेला थोड़ा कठिन ज़रूर है लेकिन केस फ़ॉर और केस अगेंस्ट का कंपल्शन है जो निःसंदेह स्वार्थ से परे भी नहीं है.
लग सकता है कि लीगल सिस्टम राजनीति के ट्रैप में फंस गया है. चूंकि इस बार शीर्ष न्यायालय के एक दोषी की माफ़ी की याचिका पर गुजरात सरकार को निर्देशित किया है कि वह अपनी रेमिशन पॉलिसी के तहत उचित निर्णय लें. परंतु अभी ऐसा कहना जल्दबाजी होगी. हो सकता है और आशा भी यही की जानी चाहिए कि शीर्ष अदालत स्वतः संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार के इस निर्णय को खारिज करेगी. सवाल है शीर्ष अदालत कैसे ऐसा कर सकती है ? क्या तथ्य हैं ?
शायद तथ्य हैं - 'Every saint has a past every sinner has a future' की दलील कम से कम जघन्य अपराधियों के लिए तो लागू नहीं की जा सकती. शीर्ष अदालत ने 13 मई 2022 के दिन 11दोषियों में...
बात निकली है, तो दूर तलक जाने से ज्यादा समझने की है. और ऐसा कदापि नहीं है कि, समझदारों को समझ में नहीं आ रहा है. शायद जो हुआ सो हुआ कहकर आगे बढ़ा जा सकता था. लेकिन बातें कई हैं राह में. गुजरात सरकार का कदम राजनीति वश हैं और अब जमकर राजनीति भी हो रही है. दुनिया भर के तर्क वितर्क हो रहे हैं लेकिन सिर्फ़ सतही तौर पर क्योंकि दामन तो किसी का पाक नहीं है. महिला सम्मान पर आईना सिर्फ़ मोदी जी (लाल किले से) ही क्यों देखें? भूपेंद्रभाई पटेल (रेपिस्टों को रिहा करने पर) देखें. गहलोत जी (रेपिस्टों को फांसी की सजा के प्रावधान पर) देखें. केरल के मुख्यमंत्री (पी शशि की नियुक्ति) देखें. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता दीदी (नदिया कि 24 साल की युवती के गैंगरेप की घटना पर संदेह) भी देखें. सो आईना कॉमन है, चेहरे तमाम है. अब क़ानून के मैदान के खिलाड़ियों की बात करें तो खेला थोड़ा कठिन ज़रूर है लेकिन केस फ़ॉर और केस अगेंस्ट का कंपल्शन है जो निःसंदेह स्वार्थ से परे भी नहीं है.
लग सकता है कि लीगल सिस्टम राजनीति के ट्रैप में फंस गया है. चूंकि इस बार शीर्ष न्यायालय के एक दोषी की माफ़ी की याचिका पर गुजरात सरकार को निर्देशित किया है कि वह अपनी रेमिशन पॉलिसी के तहत उचित निर्णय लें. परंतु अभी ऐसा कहना जल्दबाजी होगी. हो सकता है और आशा भी यही की जानी चाहिए कि शीर्ष अदालत स्वतः संज्ञान लेते हुए राज्य सरकार के इस निर्णय को खारिज करेगी. सवाल है शीर्ष अदालत कैसे ऐसा कर सकती है ? क्या तथ्य हैं ?
शायद तथ्य हैं - 'Every saint has a past every sinner has a future' की दलील कम से कम जघन्य अपराधियों के लिए तो लागू नहीं की जा सकती. शीर्ष अदालत ने 13 मई 2022 के दिन 11दोषियों में से किसी एक की याचिका का निपटारा करते हुए कहा कि गुजरात सरकार सजा सुनाये जाने के दिन मौजूद अपनी रेमिशन पॉलिसी के अनुसार दोषी, जिसने 14 साल की सजा काट ली है, की माफ़ी पर विचार करे.
चूंकि गुजरात सरकार ने 2014 में अपेक्षित बदलाव किये थे जिसके अनुसार गैंगरेप और मर्डर के दोषी को सजा से छूट नहीं मिल सकती थी, तब यानि सजा सुनाये जाने के साल 2008 में 1992 वाली नीति ही लागू थी. और 1992 वाली नीति छूट के लिए जुर्म के आधार पर दोषियों में कोई भेदभाव नहीं करती थी. इसी ग्लिच को एक्सप्लॉइट किया राज्य सरकार ने और बिल्किस बानों मामले के 11 दोषियों को भी माफ़ी देते हुए 15 अगस्त के दिन रिहा कर दिया.
बेचारी राज्य सरकार को क्या मालूम कि इसी दिन लाल किले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नारी के आत्मसम्मान की बड़ी बड़ी बातें करेंगे और नतीजन जमकर किरकिरी होगी ? लेकिन बात सिर्फ बातों की ही नहीं है. राज्य सरकार ऐसा कर ही नहीं सकती थी. उनकी नीति सेंट्रल गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया के दोषियों की जल्द रिहाई के लिए जून 2022 में राज्य सरकारों के लिए जारी किये गए दिशा निर्देशों का उल्लंघन नहीं कर सकती थी.
कहने का मतलब दोषियों की एक समय बाद जल्द रिहाई की 1992 वाली नीति जरूर फॉलो होगी लेकिन केंद्र सरकार की गाइडलाइंस के अधीन रहते हुए. सुप्रीम कोर्ट ने मई 2022 में एक बात कही जब टेक्निकल पॉइंट था कि 2014 की गुजरात सरकार की नीति 1992 वाली नीति को ओवरराइड कर सकती है या नहीं! और इस पॉइंट पर फैसले की डेट को तरजीह मिली. तब यदि केंद्र सरकार के यह दिशा निर्देश होते तो शायद शीर्ष अदालत का स्पीकिंग आर्डर तदनुसार ही होता.
एक और बात है इस मामले को अंजाम दिया था सीबीआई ने. तो सीआरपीसी की धारा435 का रोल कैसे नकारा जा सकता है जिसके तहत राज्य सरकार को ऐसा कोई फैसला लेने के पहले केंद्र सरकार से कंसल्ट करना अनिवार्य है और इस सेक्शन में कंसल्टेशन का मतलब concurrence यानी सहमति है. तर्क दिया जा सकता है कि गुजरात सरकार ने केंद्र सरकार से सहमति लेकर ही निर्णय लिया है तो सवाल है केंद्र सरकार जून 2022 के अपने ही दिशा निर्देशों के खिलाफ जाकर कैसे सहमति दे सकती है ?
फिर वितर्क किया जा सकता है हो सकता है राज्य सरकार ने केंद्र सरकार से जून 2022 में जारी किये गए इन दिशा निर्देशों के जारी किये जाने के पहले ही सहमति ले ली होगी ! तो फिर राजनीति में बवाल होगा सरकार की मंशा पर ! दरअसल 'मंशा' महत्वपूर्ण है राजनीति में ! राजनीतिक मंशा में शुचिता नहीं होती.
और मंशा तय होती है वोट के गणित से. जरूरत इसी गणित के कैलकुलेशन को अपसेट करने की है और इसी तारतम्य में अंग्रेजी गाने की एक लाइन याद आती है "cause not going to stop till you wise up" अब पता नहीं जनता समझदार कैसे और कब होगी ? उम्मीद तो कम ही है वरना आपराधिक पृष्ठभूमि के सांसदों, विधायकों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती ना जाती. जनता को समझाना आसान जो है कि मामले राजनितिक 'मंशा' से प्रेरित हैं !
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