हरिशंकर पारसाई जी किसी पिटनी बहू के बारे में बताते थे. बताते थे कि जब पिटनी बहू घर में सास की मार-पिटाई और गाली-गलौज से ऊब जाती थी तो नुक्कड़ के राम-मंदिर में भजन-कीर्तन करने चली जाती थी. और जब वो भजन-कीर्तन से ऊब जाती तो वापस घर चली आती थी. इस तरह उसके दो ठिकाने थे - घर और मंदिर.
पिटनी बहू ने कभी तीसरे ऑप्शन बारे में नहीं सोचा. तीसरा ऑप्शन उसे अपनी इमेज के खिलाफ़ लगता था. तो इस तरह पिटनी बहू की जिन्दगी सास से मार-पिटाई और गालियां खाकर भजन-कीर्तन करते बीती. इस देश की जनता भी पिटनी बहू हो गयी है. इसकी जिन्दगी भी सास और राम मंदिर के बीच उलझी हुई है. सास घर में चैन से रहने नहीं देती और मंदिर के भरोसे कोई कब तक जिन्दगी काट सकता है?
फिर भी, हमारे देश की जनता खानदानी है, यहां के लोग खानदानी हैं, और तो और हमारे यहां राजनीतिक रुझान भी खानदानी होते हैं. तमाम लोग तो आज भी सिर्फ इसीलिये कांग्रेसी हैं क्योंकि उनके बाप-दादा कांग्रेसी थे. बहुतेरे आज भी भाजपायी हैं क्योंकि उनके बाप-दादा जनसंघ से जुड़े थे.
अब चूंकि खानदानी लोग परंपराओं का सम्मान करते हैं, तो अव्वल तो उनमें विचलन नहीं होता, और होता भी है तो उनका विचलन भी खानदानी होता है. मतलब कांग्रेसी आदमी कांग्रेस से मोहभंग होने पर किसी दूसरे विकल्प के बारे में नहीं सोचेगा और चुपचाप भाजपायी हो जायेगा. और भाजपायी आदमी भी भाजपा से रूठकर सिवाय कांग्रेस के कहीं और नहीं जायेगा. पारसाई जी की पिटनी बहू भी दरअसल ऐसी ही खानदानी बहू थी.
पिछले साल देश के पांच राज्यों - मिजोरम, राजस्थान, मध्यप्रदेश, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ में हुए चुनावों के नतीजे देश की जनता के खानदानी होने का सुबूत हैं. अगर आपके...
हरिशंकर पारसाई जी किसी पिटनी बहू के बारे में बताते थे. बताते थे कि जब पिटनी बहू घर में सास की मार-पिटाई और गाली-गलौज से ऊब जाती थी तो नुक्कड़ के राम-मंदिर में भजन-कीर्तन करने चली जाती थी. और जब वो भजन-कीर्तन से ऊब जाती तो वापस घर चली आती थी. इस तरह उसके दो ठिकाने थे - घर और मंदिर.
पिटनी बहू ने कभी तीसरे ऑप्शन बारे में नहीं सोचा. तीसरा ऑप्शन उसे अपनी इमेज के खिलाफ़ लगता था. तो इस तरह पिटनी बहू की जिन्दगी सास से मार-पिटाई और गालियां खाकर भजन-कीर्तन करते बीती. इस देश की जनता भी पिटनी बहू हो गयी है. इसकी जिन्दगी भी सास और राम मंदिर के बीच उलझी हुई है. सास घर में चैन से रहने नहीं देती और मंदिर के भरोसे कोई कब तक जिन्दगी काट सकता है?
फिर भी, हमारे देश की जनता खानदानी है, यहां के लोग खानदानी हैं, और तो और हमारे यहां राजनीतिक रुझान भी खानदानी होते हैं. तमाम लोग तो आज भी सिर्फ इसीलिये कांग्रेसी हैं क्योंकि उनके बाप-दादा कांग्रेसी थे. बहुतेरे आज भी भाजपायी हैं क्योंकि उनके बाप-दादा जनसंघ से जुड़े थे.
अब चूंकि खानदानी लोग परंपराओं का सम्मान करते हैं, तो अव्वल तो उनमें विचलन नहीं होता, और होता भी है तो उनका विचलन भी खानदानी होता है. मतलब कांग्रेसी आदमी कांग्रेस से मोहभंग होने पर किसी दूसरे विकल्प के बारे में नहीं सोचेगा और चुपचाप भाजपायी हो जायेगा. और भाजपायी आदमी भी भाजपा से रूठकर सिवाय कांग्रेस के कहीं और नहीं जायेगा. पारसाई जी की पिटनी बहू भी दरअसल ऐसी ही खानदानी बहू थी.
पिछले साल देश के पांच राज्यों - मिजोरम, राजस्थान, मध्यप्रदेश, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ में हुए चुनावों के नतीजे देश की जनता के खानदानी होने का सुबूत हैं. अगर आपके मुताबिक़ विधानसभा चुनावों के परिणाम मेरी बात से मैच न करते हों तो पिछ्ले 30 सालों के लोकसभा चुनावों के परिणाम देख लीजिये. कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस, कभी सास तो कभी राम-मंदिर.
मई में लोकसभा चुनाव हैं और लोग फिर से इन्हीं दो दलों की राजनीति में उलझे हुए हैं. जबकि और भी तमाम राजनीतिक दल आपसी गठबंधन कर जनता को रिझाने में लगे हुए हैं. देखना ये है कि इस बार जनता पिटनी बहू बनने से इनकार करती है, या फिर अपने खानदानीपने को सच साबित करते हुए फिर से अगले पांच सालों के लिये सास और राम मंदिर के बीच उलझना स्वीकार करती है.
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