देश सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के विभाजन की सुगबुगाहट बीते एकाध सप्ताह से सोशल मीडिया पर तो है ही, अब चर्चाओं का बाजार दिल्ली से लेकर लखनऊ तक जोर पकड़ चुका है. सूबे का एक हिस्सा नंबर- 2000 में उत्तराखंड के रूप में पहले ही अलग हो चुका है. अब दो या तीन हिस्सों में और विभाजित करने की तैयारी है. हालांकि प्रदेश बांटने की चर्चा आज की नहीं, बल्कि तत्कालीन मायावती सरकार से चली आ रही है.
अब दूसरी मर्तबा चर्चा हो रही है. क्यों हो रही है, इसके गहरे सियासी मापदंड हैं. पर, अबकी बार के हालात पूर्ववर्ती मांगों से अलहदा हैं. बंटवारे की मौजूदा सुगबुगाहट में कुछ गहरे सियासी राज छिपे हैं. वैसे, देखा जाए तो केंद्र की मौजूदा हुकूमत इस तरह के चौंकाने वाले मामलों के लिए कुख्यात है. कब कौन सा अचंभित करने वाला निर्णय ले ले, किसी को पता नहीं चलता? केंद्र सरकार के चमत्कारी निर्णयों का अपना अंदाज है.
नोटबंदी हो, सर्जिकल स्ट्राइक करना हो, या फिर एयर स्ट्राइक का निर्णय हो, देशवासियों को कानो कान भनक नहीं होती. एक ऐसा फैसला भी हुआ जिसे शायद ही कोई सरकार करने का साहस दिखा पाती. जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए को हटाना? इन फैसलों को देखकर लगता है, कुछ भी हो सकता है. इसलिए यूपी को बांटने की जो सुगबुगाहट हो रही है उसमें कोई आश्चर्य नहीं कि केंद्र सरकार देर-सवेर राज्य पुनर्गठन विधेयक लाकर प्रदेश को एक झटके में बांटने में देरी नहीं करेगी. क्योंकि प्रदेश विभाजन में इस बार केंद्र सरकार की सहमति दिखाई है.
केंद्र के लिए बंटवारा वह ब्रह्मास्त्र साबित होगा, जिससे कई सियासी मसले एक साथ सुलझ जाएंगे. गौरतलब है कि केंद्र के इस निर्णय से न सिर्फ नरेंद्र मोदी के सबसे बड़े सियासी प्रतिद्वंद्वी...
देश सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के विभाजन की सुगबुगाहट बीते एकाध सप्ताह से सोशल मीडिया पर तो है ही, अब चर्चाओं का बाजार दिल्ली से लेकर लखनऊ तक जोर पकड़ चुका है. सूबे का एक हिस्सा नंबर- 2000 में उत्तराखंड के रूप में पहले ही अलग हो चुका है. अब दो या तीन हिस्सों में और विभाजित करने की तैयारी है. हालांकि प्रदेश बांटने की चर्चा आज की नहीं, बल्कि तत्कालीन मायावती सरकार से चली आ रही है.
अब दूसरी मर्तबा चर्चा हो रही है. क्यों हो रही है, इसके गहरे सियासी मापदंड हैं. पर, अबकी बार के हालात पूर्ववर्ती मांगों से अलहदा हैं. बंटवारे की मौजूदा सुगबुगाहट में कुछ गहरे सियासी राज छिपे हैं. वैसे, देखा जाए तो केंद्र की मौजूदा हुकूमत इस तरह के चौंकाने वाले मामलों के लिए कुख्यात है. कब कौन सा अचंभित करने वाला निर्णय ले ले, किसी को पता नहीं चलता? केंद्र सरकार के चमत्कारी निर्णयों का अपना अंदाज है.
नोटबंदी हो, सर्जिकल स्ट्राइक करना हो, या फिर एयर स्ट्राइक का निर्णय हो, देशवासियों को कानो कान भनक नहीं होती. एक ऐसा फैसला भी हुआ जिसे शायद ही कोई सरकार करने का साहस दिखा पाती. जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए को हटाना? इन फैसलों को देखकर लगता है, कुछ भी हो सकता है. इसलिए यूपी को बांटने की जो सुगबुगाहट हो रही है उसमें कोई आश्चर्य नहीं कि केंद्र सरकार देर-सवेर राज्य पुनर्गठन विधेयक लाकर प्रदेश को एक झटके में बांटने में देरी नहीं करेगी. क्योंकि प्रदेश विभाजन में इस बार केंद्र सरकार की सहमति दिखाई है.
केंद्र के लिए बंटवारा वह ब्रह्मास्त्र साबित होगा, जिससे कई सियासी मसले एक साथ सुलझ जाएंगे. गौरतलब है कि केंद्र के इस निर्णय से न सिर्फ नरेंद्र मोदी के सबसे बड़े सियासी प्रतिद्वंद्वी योगी आदित्यनाथ का हल निकल जाएगा, बल्कि सूबे की दोनों बड़े क्षेत्रीय दल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का भी काम तमाम हो जाएगा. क्योंकि यही दो दल ऐसे रहे हैं जो केंद्र में बनने वाली कई सरकारों के लिए रोड़ा बने हैं.
देखिए, जब प्रदेश दो या तीन भागों में बंट जाएगा, तो उनके नेता अपने-अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में सिमट जाएंगे? ठीक वैसा ही महाराज योगी के साथ भी होगा. उनका प्रभाव पूर्वांचल में ज्यादा है, पूर्वांचल के हिस्से में पच्चीस-एक सीटें ही आएंगी, जिससे उनकी राष्टृीय छवि धीरे-धीरे धरातल में समा जाएगी. इसके अलावा दूसरे फनफनाने वाले दल जैसे अपना दल, निषाद पार्टी, आरएलडी आदि दूसरी पार्टियां स्वतः ही समाप्त हो जाएंगी.
इसलिए यूपी के बंटवारे का रामबाण फार्मूला नरेंद्र मोदी के लिए किसी बड़े ब्रह्मास्त्र से कम नहीं होगा. इस ब्रह्मास्त्र से सांप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी? पूर्व का अनुभव बताता है कि प्रदेशों के विभाजन से क्षेत्रीय दलों का क्या हाल हुआ. नए राज्यों में राष्ट्रीय पार्टियों का दबदबा अचानक बढ़ जाता है. उत्तराखंड का उदाहरण सामने है.
जब यूपी का हिस्सा हुआ करता था तो वहां सपा-बसपा का बोलबाला हुआ करता था. लेकिन बीते दो दशकों में दोनों पार्टियों का नामोनिशान मिट गया. उनकी जगह कांग्रेस और भाजपा ने ले ली. दूसरा उदाहरण आंध्र प्रदेश का है. जहां कभी पूरे प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की तूती बोलती थी, लेकिन जैसे ही तेलंगाना अलग राज्य बना, उस क्षेत्र से उनका वजूद खत्म हो गया.
कमोबेश, ऐसा ही कुछ बिहार से झारखंड को अलग करने के बाद देखने को मिला. जहां कभी जेडीयू और आरजेडी जैसी क्षेत्रीय पार्टियों का एकछत्र राज था. लालू प्रसाद यादव और नितिश कुमार ने वहां अपना जनाधार यथावत रखने के लिए लाख कोशिशें की, बावजूद इसके अलग राज्य झारखंड बनने के बाद दोनों ही पार्टियां हवा में उड़ गईं.
एक सच्चाई ये भी है, कभी ऐसा भी नहीं हुआ कि किसी क्षेत्रीय दल की एक साथ दो प्रदेशों में हुकुमतें रही हों. इसलिए निश्चित है अगर यूपी का बंटवारा होता है, तो उसमें फायदा प्रत्यक्ष रूप से मोदी और भाजपा को होगा. उत्तर प्रदेश में चुनाव को अभी आठ-नौ महीने शेष हैं. बंटवारे का काम केंद्र सरकार बिना किसी परेशानी के कर सकती है.
वैसे, भी बड़े किसी निर्णयों में मोदी सरकार किसी से राय लेती ही नहीं? कानूनी अड़चने भी नहीं आएंगी. संवैधानिक रूप से किसी भी प्रदेश का बंटवारा करना केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र माना जाता है. संविधान की धारा-3 के मुताबिक बंटवारे का एक सादा बिल भारत के राष्ट्रपति को अनुमोदन के लिए प्रस्तुत करना होता है और संसद में सामान्य बहुमत कराना होता है.
ऐसा वक्त है जब कोई विरोध भी नहीं करेगा. केंद्र सरकार के इस फैसले को सूबे की सरकार भी किसी कीमत पर नहीं रोक सकती. राजनीतिक गलियारों में एक हवा कुछ वर्षों से जोर पकड़ रही है कि मोदी के बाद दूसरा प्रभावशाली नेता कौन है? ऐसे में पहला नाम योगी आदित्यनाथ का आता है. बस दिक्कत यहीं से शुरू हो जाती है.
दरअसल, भारतीय जनता पार्टी में लगी लंबी कतार में सिर्फ योगी ही अकेले नेता ऐसे हैं जिन्हें मोदी का घोर प्रतिद्वंद्वी माना जा रहा है. वह अलग बात है, दोनों नेताओं एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी होने की कोई तस्वीर अभी तक सार्वजनिक नहीं की है. लेकिन बीते सप्ताह जब मोदी-योगी की मुलाकात दिल्ली में हुई, उस दौरान की जो तस्वीर सामने आई, दोनों के चेहरों के भाव बहुत कुछ बयां कर रहे थे.
राजनीतिक पंड़ित इस बात को मानते हैं कि केंद्रीय सिंहासन के लिए यूपी को साधना जरूरी होती है. इसके लिए पहली शर्त राष्ट्रीय छवि अनिवार्य होती है. इस लिहाज से इसमें कोई संदेह नही है कि मुख्यमंत्री योगी की छवि राष्ट्रीय स्तर न बन चुकी हो.
बहरहाल, सच्चाई तो यही है उन्हें कमजोर करने की हजारों कोशिशें एक साथ हो रही हैं, लेकिन वह भी घंटाधारी हैं, अंगद की भांति पांव जमाए हुए हैं. केंद्र ने अगर वास्तव में यूपी को बांटने का मन बना लिया है, तो इसमें दो बड़े कारण हो सकते हैं. अव्वल, बंटवारे का निर्णय सियासी रूप से तो बड़ी घटना कही ही जाएगी, कइयों की राजनीति भी खत्म हो जाएगी.
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