कर्नाटक (Karnataka Election 2023) को लेकर बीजेपी को जो रिपोर्ट मिली है, वो कहीं से भी अच्छी नहीं है. बसवराज बोम्मई सरकार के भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे होने और आपसी गुटबाजी के अलावा एंटी इनकमबैंसी फैक्टर बीजेपी नेतृत्व को कुछ ज्यादा ही डराने लगा - और यही वजह है कि बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने अपनी सबसे मजबूत और अनुभवी टीम को मोर्चे पर तैनात किया है.
बीजेपी नेतृत्व ने मुश्लिक मोर्चों के लिए अपने सबसे भरोसेमंद इलेक्शन मैनेजर केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान (Dharmendra Pradhan) को कर्नाटक में जीत सुनिश्चित करने का टास्क दिया है - और उनके साथ साथी मंत्री मनसुख मांडविया को भी लगा दिया है, ताकि कर्नाटक में भी बीजेपी की जीत के गुजरात मॉडल को लागू करने में कोई कसर बाकी न रहे. धर्मेंद्र प्रधान की टीम में एक नया नाम के. अन्नामलाई भी शामिल हैं, जिनका फील्ड में प्रदर्शन तेजस्वी सूर्या, अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा जैसे नेताओं की तरह महसूस किया जा रहा है.
बीजेपी नेतृत्व को ये तो मालूम है ही कि आखिरकार सरकार तो अपनी ही बननी है, लेकिन नये चुनावी इम्तिहान में उतरने का मकसद नतीजे सुधारने की कोशिश होगी. पांच साल पहले बीजेपी की गाड़ी रास्ते में ही पंक्चर हो गयी थी - और फिर सरकार बनाने के लिए अपने ब्रह्मास्त्र ऑपरेशन-लोटस की मदद लेनी पड़ी थी.
मुश्किल ये है कि बीजेपी अब तक कर्नाटक में ऑपरेशन लोटस के जनक बीएस येदियुरप्पा (BS Yediyurappa) की जगह कोई नेता नहीं तैयार कर पायी है. येदियुरप्पा से कब्जा लेने के लिए बीजेपी ने बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया और बदलने का भी फैसला नहीं किया, लेकिन एक बार फिर ऐसा लगता है कि बीजेपी को अपने लिंगायत नेता की शरण में ही जाना पड़ रहा है.
अन्नामलाई इन, अनुराग आउट!
कर्नाटक चुनाव प्रभारी बनाये गये...
कर्नाटक (Karnataka Election 2023) को लेकर बीजेपी को जो रिपोर्ट मिली है, वो कहीं से भी अच्छी नहीं है. बसवराज बोम्मई सरकार के भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे होने और आपसी गुटबाजी के अलावा एंटी इनकमबैंसी फैक्टर बीजेपी नेतृत्व को कुछ ज्यादा ही डराने लगा - और यही वजह है कि बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने अपनी सबसे मजबूत और अनुभवी टीम को मोर्चे पर तैनात किया है.
बीजेपी नेतृत्व ने मुश्लिक मोर्चों के लिए अपने सबसे भरोसेमंद इलेक्शन मैनेजर केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान (Dharmendra Pradhan) को कर्नाटक में जीत सुनिश्चित करने का टास्क दिया है - और उनके साथ साथी मंत्री मनसुख मांडविया को भी लगा दिया है, ताकि कर्नाटक में भी बीजेपी की जीत के गुजरात मॉडल को लागू करने में कोई कसर बाकी न रहे. धर्मेंद्र प्रधान की टीम में एक नया नाम के. अन्नामलाई भी शामिल हैं, जिनका फील्ड में प्रदर्शन तेजस्वी सूर्या, अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा जैसे नेताओं की तरह महसूस किया जा रहा है.
बीजेपी नेतृत्व को ये तो मालूम है ही कि आखिरकार सरकार तो अपनी ही बननी है, लेकिन नये चुनावी इम्तिहान में उतरने का मकसद नतीजे सुधारने की कोशिश होगी. पांच साल पहले बीजेपी की गाड़ी रास्ते में ही पंक्चर हो गयी थी - और फिर सरकार बनाने के लिए अपने ब्रह्मास्त्र ऑपरेशन-लोटस की मदद लेनी पड़ी थी.
मुश्किल ये है कि बीजेपी अब तक कर्नाटक में ऑपरेशन लोटस के जनक बीएस येदियुरप्पा (BS Yediyurappa) की जगह कोई नेता नहीं तैयार कर पायी है. येदियुरप्पा से कब्जा लेने के लिए बीजेपी ने बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया और बदलने का भी फैसला नहीं किया, लेकिन एक बार फिर ऐसा लगता है कि बीजेपी को अपने लिंगायत नेता की शरण में ही जाना पड़ रहा है.
अन्नामलाई इन, अनुराग आउट!
कर्नाटक चुनाव प्रभारी बनाये गये धर्मेंद्र प्रधान की टीम में एक तेजतर्रार नेता की कमी खल रही है. वो नेता भी केंद्रीय मंत्री ही हैं, अनुराग ठाकुर. यूपी चुनाव में धर्मेंद्र प्रधान के साथ ही अनुराग ठाकुर को भी मोर्चे पर उतारा गया था - और चुनावी जीत तो यही बताती है कि योगी आदित्यनाथ की जीत पक्की करने में अनुराग ठाकुर ने भी कोई कसर बाकी नहीं रखी थी.
ऐसा लगता है, हिमाचल प्रदेश में बीजेपी की हार और हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस को खुल कर खेलने का मौका मिल जाना अनुराग ठाकुर को भारी पड़ा है - और ये अनुराग ठाकुर की भविष्य की राजनीति के लिए खतरे की घंटी भी लगती है.
केंद्रीय मंत्री मनसुख मंडाविया को भी कर्नाटक की जंग के लिए तैयार फौज का हिस्सा बनाया गया है. बेशक चुनावी प्रबंधन का नेतृत्व तो धर्मेंद्र प्रधान ही करेंगे, लेकिन मनसुख मांडविया की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं लगती.
ऐतिहासिक चुनावी जीत के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीजेपी को देश में होने जा रहा हर विधानसभा चुनाव गुजरात मॉडल के आधार पर ही लड़ने की सलाहियत दे रहे हैं. हाल ही में त्रिपुरा के दौरे पर पहुंचे प्रधानमंत्री मोदी बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं को गुजरात मॉडल को ही अपनाने और पूरी तरह अमल में लाने के निर्देश दे रहे थे.
गुजरात बीजेपी अध्यक्ष सीआर पाटिल की भी चुनावी जीत के लिए प्रधानमंत्री मोदी दिल खोल कर तारीफ कर चुके हैं. जिस तरह से सीआर पाटिल ने बूथ लेवल पर फोकस किया, बीजेपी ने रिकॉर्ड जीत दर्ज कर डाली. अमित शाह ने गुजरात में जितनी सीटों का लक्ष्य रखा था, बीजेपी उससे भी ज्यादा जीतने में सफल रही.
गुजरात से होने के कारण मनसुख मांडविया भी चुनावी तैयारियों में हर स्तर पर एक्टिव रहे. अब मनसुख मांडविया को कर्नाटक के कठिन मोर्चे पर वैसी ही जीत दोहराने की जिम्मेदारी मिली है - देखा जाये तो मनसुख मांडविया को कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बीजेपी के नये 'गुजरात मॉडल' का सारथी बनाया गया है.
और तमिलनाडु बीजेपी के अध्यक्ष के. अन्नामलाई को लगता है एमके स्टालिन सरकार के खिलाफ उनके हालिया प्रदर्शन का इनाम दिया गया है. के. अन्नामलाई को फिलहाल अनुराग ठाकुर का ही स्थानापन्न समझा जा रहा है - हालांकि, उनको लेकर बीजेपी की भविष्य की रणनीतियों का संकेत भी मिलता है.
के. अन्नामलाई मुद्दों को सही तरीके से उठा रहे हैं और एक ऐसे राज्य में जहां बीजेपी के पास खड़े होने भर की भी जमीन नहीं है, वो किसी मजबूत विपक्ष की तरफ सत्ताधारी डीएमके को परेशान करने लगे हैं. के. अन्नामलाई बीजेपी की तरफ से उठाये जा रहे मुद्दों के साथ खास तौर पर युवाओं को भी जोड़ने में कामयाब नजर आ रहे हैं.
कर्नाटक को भारतीय राजनीति में दक्षिण का द्वार कहा जाता है. बीजेपी की हालत ये है कि वो द्वार के अंदर दाखिल भी हो चुकी है, और उसके आगे बढ़ने का मौका मिलने पर भरपूर फायदा भी उठा रही है, लेकिन सत्ता अब भी बीजेपी की पहुंच से काफी दूर है.
कांग्रेस तो कर्नाटक में भी सत्ता में वापसी की कोशिश कर रही है, लेकिन दक्षिण में उसकी भी कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं रह गयी है. वैसे बीजेपी के मुकाबले देखें तो थोड़ी बेहतर पोजीशन तो है ही - और आने वाले चुनावों में कांग्रेस का उत्तर भारत के मुकाबले ज्यादा जोर दक्षिण भारत पर ही लगता है. राहुल गांधी को तो बीजेपी की वजह से ही दक्षिण भारत का रुख करना पड़ा है.
अन्नामलाई को धर्मेंद्र प्रधान के साथ लगा कर मोदी और अमित शाह ने साफ कर दिया है कि तमिलनाडु को लेकर बीजेपी कैसे तैयारी कर रही है - और अब अन्नामलाई का काम कर्नाटक के द्वार से आगे बढ़ा कर बीजेपी को तमिलनाडु तक पहुंचाने का टास्क मिलने वाला है.
थ्योरी में उम्दा प्रदर्शन के बाद मोदी-शाह की निगरानी में अन्नामलाई की कर्नाटक के मैदान में प्रैक्टिकल की ट्रेनिंग होनी है - और तमिलनाडु में एक दिन बीजेपी का वैसे ही भगवा लहराना है, जैसे पांच साल पहले बीजेपी नेताओं की एक टीम ने त्रिपुरा में ये करिश्मा कर दिखाया था. ये बात अलग है कि पांच साल बाद बीजेपी त्रिपुरा में फिर से संघर्ष कर रही है, लेकिन इसे तो बिप्लब देब और माणिक साहा जैसे नेताओं की नाकामी ही मानी जाएगी.
धर्मेंद्र प्रधान पहले भी कर्नाटक में बीजेपी के मामलों के प्रभारी के तौर पर काम कर चुके हैं, लेकिन यूपी चुनाव से पहले नंदीग्राम के संग्राम में उनका प्रदर्शन कभी न भुलाने वाला रहा है. 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में धर्मेंद्र प्रधान नंदीग्राम के प्रभारी बनाये गये थे. बेशक ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस चुनाव जीत गयी, लेकिन नंदीग्राम में तो अपने ही जूनियर नेता शुभेंदु अधिकारी के सामने उनको हार का मुंह देखना पड़ा था.
बीजेपी को अब भी येदियुरप्पा का ही आसरा
मोदी-शाह को अब ये अच्छी तरह मालूम हो चुका है कि ये बीएस येदियुरप्पा ही हैं जो कर्नाटक में बीजेपी को वैतरणी पार करा सकते है. ऐसे भी समझ सकते हैं कि येदियुरप्पा ने बीजेपी को अपनी जाल में उलझा रखा है - और थक हारकर बीजेपी को फिर से येदियुरप्पा की शरण में ही जाने का फैसला करना पड़ा है.
भारत जोड़ो यात्रा के कर्नाटक में प्रभाव को कम करने के लिए मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने राज्य भर की यात्रा का प्लान किया तो उसमें भी येदियुरप्पा को शामिल करना पड़ा. जाहिर है, ये बीजेपी नेतृत्व के निर्देश पर ही हुआ होगा. येदियुरप्पा कई जगह गये भी, लेकिन हर जगह तो नहीं ही देखा गया.
बीजेपी की उस यात्रा के अलावा ऐसे कई मौके भी गवाह हैं जहां निगाहें उनको खोजती रहीं और वो नदारत पाये गये. अब ये सब सिर्फ एकतरफा रहा या दोनों ही हाथों से ताली बज रही थी, अंदर की बात है.
ऐसा ही एक मौका बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के यात्रा में शामिल होने के दौरान समझ में आया. नड्डा के साथ यात्रा में शामिल होने के लिए येदियुरप्पा से हाथ जोड़ कर गुजारिश करनी पड़ी थी. येदियुरप्पा के समर्थकों का तो दावा रहा कि नड्डा की यात्रा के दौरान उनको बुलाया ही नहीं गया था. वैसे लिंगायतों के मठ से शुरू हुई विजय संकल्प यात्रा में येदियुरप्पा मौजूद रहे. मौजूदगी की वजह मुद्दा लिंगायतों से जुड़ा भी हो सकता है.
येदियुरप्पा को लेकर सबसे ज्यादा हैरानी तब हुई जब वो एक बार अमित शाह और एक बार प्रधानमंत्री मोदी के कार्यक्रम में नहीं दिखे - क्या ये सब येदियुरप्पा की तरफ से अपनी नाराजगी का प्रदर्शन रहा या वहां भी न्योता नहीं मिला था?
अब तो, मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई को साफ शब्दों में चेता दिया गया है कि किसी भी सूरत में उनकी तरफ से ऐसा कोई व्यवहार नहीं होना चाहिये जिससे येदियुरप्पा को कोई चीज बुरी लगे और वो नाराज हो जायें. बताते हैं कि बीजेपी नेतृत्व ने बोम्मई को साफ शब्दों में हिदायत दे दी है कि हर हाल में येदियुरप्पा का खास तौर पर ख्याल रखा जाना चाहिये.
किस बात से नाराज हैं येदियुरप्पा?
अव्वल तो येदियुरप्पा की नाराजगी इसी बात से है कि कर्नाटक में बीजेपी की सरकार बनवाने वाले को ही कुर्सी से बेदखल कर दिया गया. ये भी है कि जब तक येदियुरप्पा की चली, 75 साल से ज्यादा उम्र के हो जाने के बाद भी वो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज रहे.
कर्नाटक की राजनीति को ध्यान से देखें तो मालूम पड़ता है कि वहां येदियुरप्पा को छूने वाला भी कोई नहीं था. भ्रष्टाचार के आरोपों में मुख्यमंत्री पद गंवाकर जेल जा चुके येदियुरप्पा गुजरते वक्त के साथ सारी मुसीबतों से उबर चुके थे. 2018 के चुनाव में बहुमत से पिछड़ जाने के बाद भी वो जबरन मुख्यमंत्री पद की शपथ लिये - और करीब सवा साल बाद ही खेल करके जेडीएस और कांग्रेस गठबंधन की सरकार गिराकर खुद मुख्यमंत्री भी बन गये.
येदियुरप्पा की पकड़ तक कमजोर पड़ने लगी जब वो अपनी जगह बेटे को स्थापित करने की कोशिश में जुट गये. ये बात बीजेपी नेतृत्व तक सबूतों के साथ पहुंचा दी गयी - और फिर उनके खिलाफ अंदरूनी राजनीतिक चालें चली जाने लगीं.
कर्नाटक में लिंगायतों के सबसे बड़े नेता का गुस्सा शांत करने के लिए बीजेपी के संसदीय बोर्ड में शामिल किया गया. बोर्ड से शिवराज सिंह चौहान को बाहर कर, और योगी आदियनाथ जैसे मुख्यमंत्री को बाहर रख, ये भी जताने की कोशिश हुई कि येदियुरप्पा को बीजेपी कितनी अहमियत दे रही है - लेकिन ऐसी चीजों में येदियुरप्पा की कोई दिलचस्पी नहीं रही.
और यही वजह है कि येदियुरप्पा को खुश करने के लिए उनके बेटे बीएस विजयेंद्र को उनकी सीट से चुनाव मैदान में उतारने के प्रस्ताव को हरी झंडी दे दी गयी है. कर्नाटक बीजेपी में विजयेंद्र उपाध्यक्ष हैं, और येदियुरप्पा चाहते हैं कि लिंगायतों में बेटा ही उनका उत्तराधिकारी बने - और अगर ऐसा वो चाहते हैं तो भारतीय राजनीति की परंपरा में ये गलत कहां से है?
जैसे बीजेपी के लिए वसुंधरा राजे हैं
कर्नाटक में बीजेपी नेतृत्व के लिए येदियुरप्पा वैसे ही मुसीबत बने हुए हैं, जैसे राजस्थान में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे. गुजरात में तो नितिन पटेल का हटाने के बावजूद बीजेपी की सेहत पर कोई भी फर्क नहीं पड़ा, लेकिन हिमाचल प्रदेश में प्रेम कुमार धूमल को चुनाव से दूर करने का खामियाजा तो बीजेपी को भुगतना ही पड़ा है.
एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीएस येदियुरप्पा की अलग से मुलाकात रखी गयी थी. ये मुलाकात करीब 15 मिनट चली थी - ऊपरी तौर पर चर्चा तो यही रही कि कर्नाटक में बने एक एयरपोर्ट के उद्घाटन को लेकर रही. ये एयरपोर्ट असल में येदियुरप्पा के बड़े बेटे राघवेंद्र के शिमोगा क्षेत्र में बना है.
लेकिन मुलाकात को लेकर असल बात कुछ और रही. असल में येदियुरप्पा ने बीजेपी नेतृत्व के संदेश पर कर्नाटक की कुर्सी तो छोड़ दी, लेकिन उनकी अपनी जो शर्तें रहीं भुला दी गयीं. ठीक वैसे ही जैसे बाकियों के साथ होता रहा है.
येदियुरप्पा भी तो देख ही रहे हैं कि किस तरह लालकृष्ण आडवाणी से लेकर बनारस में श्यामदेव रॉय चौधरी तक, बीजेपी अपने नेताओं के साथ क्या व्यवहार करती रही है? लेकिन येदियुरप्पा वैसे नेताओं में से तो हैं नहीं - और वैसे भी जिस नेता की जनता में पैठ हो, उसकी ताकत को भुलाया जा सकता है क्या?
कर्नाटक चुनाव तो नजदीक आ चुका है, लेकिन राजस्थान में भी ज्यादा वक्त नहीं बचा है. वसुंधरा राजे से भी मोदी-शाह को वैसे ही जूझना होगा, जैसे अभी येदियुरप्पा सबको छका रहे हैं. अभी से तैयार हो जाना चाहिये.
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