जिगर मुरादाबादी के हिसाब से देखें तो चुनाव भी आग का दरिया ही लगता है, लेकिन वैतरणी की तरह पार होना भी जरूरी होता है - क्योंकि राजनीति में हरिवंश राय बच्चन की वो फिलॉसफी नहीं चलती जिसमें कहते हैं, 'प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में - पा जाता तब हाय न इतनी प्यारी लगती मधुशाला', बल्कि जो सत्ताधारी बीजेपी ने वो चुना है जो ज्यादा कारगर लगता है - 'अग्निपथ... अग्निपथ... अग्निपथ!'
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की सरकार की 'अग्निपथ' (Agnipath) योजना को लेकर भी वैसी ही आगजनी, हिंसा और तोड़फोड़ हो रही है, जैसी सरकार के कई फैसलों के खिलाफ पहले भी देखी गयी है. समझ में ये नहीं आता कि जैसे जम्मू-कश्मीर से धारा-370 खत्म करने का संसद में प्रस्ताव लाने से पहले सरकार विरोध से निबटने के व्यापक इंतजाम कर लेती है, बाकी मामलों में क्यों नहीं हो पाता - क्योंकि 'एक ही लाठी से हर भैंस' हांकी भी तो नहीं जा सकती है.
कृषि कानूनों की तरह अग्निपथ का हर तबका विरोध भी नहीं कर रहा है, लेकिन खामियों पर बहस जरूरी माना जा रहा है, लेकिन ये समझाइश प्रदर्शनकारियों तक नहीं पहुंच पा रही है - और विडंबना ये है कि सरकार के ही हड़बड़ी में लिये गये एक फैसले की वजह से देश की सरकारी संपत्ति का नुकसान हो रहा है.
मानते हैं कि संभावित विरोध की हिंसक घटनाओं के बाद सरकार ने दो-तीन उपाय तय कर रखे हैं - जैसे बुलडोजर चलवाना, सार्वजनिक स्थानों पर आरोपियों के नाम, पते और तस्वीर लगा देना या फिर संपत्ति कुर्क किया जाना.
बड़ा सवाल ये है कि ऐसी नौबत आने ही की क्यों दी जाती है? आखिर एहतियाती उपाय पहले ही क्यों नहीं सोचे जाते? एहतियाती इंतजाम पहले से क्यों नहीं किये जाते? और ऐसे इंतजामों में विरोध को बलपूर्वक...
जिगर मुरादाबादी के हिसाब से देखें तो चुनाव भी आग का दरिया ही लगता है, लेकिन वैतरणी की तरह पार होना भी जरूरी होता है - क्योंकि राजनीति में हरिवंश राय बच्चन की वो फिलॉसफी नहीं चलती जिसमें कहते हैं, 'प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में - पा जाता तब हाय न इतनी प्यारी लगती मधुशाला', बल्कि जो सत्ताधारी बीजेपी ने वो चुना है जो ज्यादा कारगर लगता है - 'अग्निपथ... अग्निपथ... अग्निपथ!'
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की सरकार की 'अग्निपथ' (Agnipath) योजना को लेकर भी वैसी ही आगजनी, हिंसा और तोड़फोड़ हो रही है, जैसी सरकार के कई फैसलों के खिलाफ पहले भी देखी गयी है. समझ में ये नहीं आता कि जैसे जम्मू-कश्मीर से धारा-370 खत्म करने का संसद में प्रस्ताव लाने से पहले सरकार विरोध से निबटने के व्यापक इंतजाम कर लेती है, बाकी मामलों में क्यों नहीं हो पाता - क्योंकि 'एक ही लाठी से हर भैंस' हांकी भी तो नहीं जा सकती है.
कृषि कानूनों की तरह अग्निपथ का हर तबका विरोध भी नहीं कर रहा है, लेकिन खामियों पर बहस जरूरी माना जा रहा है, लेकिन ये समझाइश प्रदर्शनकारियों तक नहीं पहुंच पा रही है - और विडंबना ये है कि सरकार के ही हड़बड़ी में लिये गये एक फैसले की वजह से देश की सरकारी संपत्ति का नुकसान हो रहा है.
मानते हैं कि संभावित विरोध की हिंसक घटनाओं के बाद सरकार ने दो-तीन उपाय तय कर रखे हैं - जैसे बुलडोजर चलवाना, सार्वजनिक स्थानों पर आरोपियों के नाम, पते और तस्वीर लगा देना या फिर संपत्ति कुर्क किया जाना.
बड़ा सवाल ये है कि ऐसी नौबत आने ही की क्यों दी जाती है? आखिर एहतियाती उपाय पहले ही क्यों नहीं सोचे जाते? एहतियाती इंतजाम पहले से क्यों नहीं किये जाते? और ऐसे इंतजामों में विरोध को बलपूर्वक कुचल दिया जाना भी नहीं होता, ध्यान रहे.
लेकिन पहले से तय कर लिये गये मकसद के बाद ये सवाल बहुत मामने भी नहीं रखता. राजनीतिक नफे नुकसान के हिसाब से सोचें तो ये बात अलग ही लाइन पर समझ आती है. जो कुछ भी हो रहा है, सत्ता में होने के कारण भारतीय जनता पार्टी को फायदा तो हो ही रहा है. कहां बीजेपी नुपुर शर्मा प्रकरण में बचाव के रास्ते खोजती फिर रही थी - और कहां अब लोग अग्निपथ की बहस में उलझ चुके हैं. कोई इसे मीडिया मैनेजमेंट कहे या हेडलाइन मैनेजमेंट तो कहता फिरे. फर्क क्या पड़ता है.
नुपुर शर्मा (Nupur Sharma) विवाद से तो ध्यान तभी हटने लगा था जब राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की प्रवर्तन निदेशालय में पेशी की खबर आयी - और राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति चुनाव की कौन कहे, आने वाले विधानसभा चुनावों में भी अभी जो सब हो रहा है बीजेपी को पूरा फायदा मिलना भी अभी से निश्चित हो चुका है.
मकसद एक, 'अग्निपथ' अनेक!
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लेटेस्ट ड्रीम प्रोजेक्ट 'अग्निपथ' को लेकर लोगों की एक ही समय पर कम से कम दो राय बन रही है - और ऐसी राय बनने का आधार भी मोदी सरकार के पुराने फैसलों का ट्रैक रिकॉर्ड ही है.
एक तो तीन कृषि कानून रहे जिनको लेकर किसान आंदोलन के दबाव में हार मान कर कदम पीछे खींचने पड़े - और दूसरा नोटबंदी का फैसला, जिसे लेकर मोदी सरकार और बीजेपी चुपके से पीछे हट गये.
ये समझना भी जरूरी हो गया है कि मोदी सरकार को कुछ ही फैसलों से कदम पीछे क्यों खींचने पड़ रहे हैं? सीएए-एनआरसी पर हिंसक प्रदर्शनों का दौर लंबा चला, लेकिन केंद्र सरकार टस से मस न हुई.
गोरक्षकों के लगातार उत्पात और देश भर में मॉब लिंचिंग की कई घटनाओं के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी की तरफ से भी एक दो बयान देकर रस्मअदायगी कर ली गयी. गोडसे को देशभक्त बताने वाले साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को लेकर भी बस इतना ही कहा कि 'कभी दिल से माफ नहीं कर पाएंगे.'
लेकिन जैसे कृषि कानून वापस लिये थे, भविष्य के संभावित 'अग्निवीरों' के विरोध प्रदर्शन से फौरन ही दबाव में आ गये - और एक बार के लिए ही सही, दो साल की उम्र सीमा बढ़ाये जाने की घोषणा कर दी गयी. भले ही ये योजना का हिस्सा पहले से रहा हो, लेकिन मीडिया में खबर तो हिंसा से बड़ा नुकसान हो जाने के बाद ही आयी है.
बहाने तो हर बात के मिल ही जाते हैं. किसी भी विवादित मसले पर बचाव का रास्ता निकाला ही जा सकता है - और कुछ नहीं तो ये तो कहा ही जा सकता है, 'तपस्या में ही कोई कमी रह गयी होगी.'
ये जो क्रिया और प्रतिक्रिया का खेल चल रहा है, सवाल तो खड़ा कर ही रहा है - मोदी सरकार को एक कदम बढ़ाकर दो कदम पीछे क्यों जाना पड़ रहा है? क्या नुपुर शर्मा प्रकरण ने मोदी सरकार को कुछ ज्यादा ही झकझोर कर रख दिया है?
अग्निपथ के विरोध में हिंसक प्रदर्शनकारियों ने बीजेपी नेता और बिहार की डिप्टी सीएम रेणु देवी के घर को भी निशाना बनाया है. बिहार बीजेपी अध्यक्ष और पश्चिम चंपारण से लोकसभा सांसद संजय जायसवाल के घर पर भी हमला हुआ है.
बाकी चीजें अपनी जगह हैं, लेकिन बीजेपी का एक मकसद तो पूरा होता ही नजर आ रहा है - गुजरात, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक जैसे राज्यों के विधानसभा चुनाव जीतने जो हैं!
चुनावी राह आसान हो गयी है
राष्ट्रपति चुनाव में जीत पहले से ही पक्की हो गयी: राष्ट्रपति चुनाव को लेकर सक्रिय विपक्षी खेमे से नवीन पटनायक, जगनमोहन रेड्डी, अरविंद केजरीवाल और केसीआर से दूरी बना लेने से बीजेपी को राहत तो मिली ही है. बहुत ज्यादा फिक्र तो पहले भी नहीं रही होगी. बीजेपी नेतृत्व मान कर चल रहा होगा कि मैनेज तो कर लेंगे, लेकिन जब कोई काम अपनेआप हो जाता है तो उसकी बात ही कुछ और होती है.
2019 के आम चुनाव में पहले से भी ज्यादा बहुमत हासिल कर लेने के बाद बीजेपी की ये समस्या नहीं है कि किसे और कैसे राष्ट्रपति बनायें? एक छोटी सी मुश्किल बस यही है कि ऐसे कौन से नेता को राष्ट्रपति बनाया जाये जिसका क्रेडिट लेकर चुनावों में भी फायदा उठाया जा सके.
2017 के दलित राष्ट्रपति का कंसेप्ट वाया-बायपास ही सही, फायदेमंद तो रहा ही है. सीधे सीधे ये तो नहीं कह सकते कि रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाकर बीजेपी ने मायावती को यूपी में एक ही सीट पर समेट डाला, लेकिन नतीजों का गणित बता तो यही बता रहा है. केंद्र की सत्ता में होने के अपने राजनीतिक फायदे होते हैं. राजनीति के खेल तो अपनी जगह असरदार होते ही हैं, बीजेपी ने जैसा बिहार में किया, यूपी में भी वैसे ही मैनेज कर लिया.
फिक्र अभी की नहीं, 2024 की तो है ही: न तो बीजेपी को राष्ट्रपति चुनाव की चिंता है, न आने वाले विधानसभा चुनावों की. अगर विधानसभा चुनावों में किसी भी सूरत में 2018 के मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसा हाल हो गया तो मुश्किल खड़ी हो जाएगी. ये ठीक है कि हार के बावजूद मोदी लहर में बीजेपी को 2019 में तीनों ही राज्यों में कोई खास नुकसान नहीं हुआ, लेकिन 2024 में भी वैसा ही हो जरूरी भी तो नहीं है.
2014 के बाद से बीजेपी को चुनाव जीतने या सरकार बनाने की चिंता कम ही रहती है, लेकिन कम सीटें मिलने पर चुनौतियां बढ़ जरूर जाती हैं - और फिर नतीजे 2019 के महाराष्ट्र या हरियाणा जैसे झेलने पड़ते हैं.
बीजेपी के लिए महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ गठबंधन टूटना भी नुकसानदेह साबित होता है. और हरियाणा में सीटें कम पड़ने पर सरकार बनाने के लिए गठबंधन का सहारा लेना पड़ता है - किसान आंदोलन के दौरान हरियाणा में बीजेपी ने भी महसूस किया कि कैसे दुष्यंत चौटाला बार बार परेशान हो उठते थे - हालांकि, वो अकाली दल या राजस्थान के सांसद हनुमान बेनिवाल की तरह एनडीए नहीं छोड़े. आखिरकार सब कुछ मैनेज हो ही गया.
गुजरात, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक को लेकर बीजेपी कांग्रेस से कोई चिंता होगी, ऐसा कतई नहीं लगता. लेकिन आम आदमी पार्टी के सक्रिय होने से थोड़ी बहुत फिक्र तो स्वाभाविक है ही. पंजाब की परिस्थितियां बिलकुल अलग थीं, लेकिन अगर आने वाले चुनावों में लोगों ने 2018 जैसा 'खेला' कर दिया तो मुश्किल हो जाएगा - आगे के लिए लोक सभा के साथ साथ राज्य सभा के समीकरण भी बिगड़ जाएंगे.
राहुल गांधी के कानूनी मुश्किलों में उलझ जाने की वजह से बीजेपी को बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दों से कम जूझना होगा, लेकिन आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल के मैदान में जमे होने से ये चुनौती पूरी तरह खत्म नहीं हो पाएगी.
आगे से बेरोजगारी का मुद्दा न उठे और 'पकौड़ा तलने...' जैसे कटाक्ष न झेलने पड़ें - 'अग्निपथ' जैसी योजनाओं के जरिये चुनावी वैतरणी पार करने में आसानी तो होगी ही.
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