2014 में असम में लोक सभा की 14 में से सात सीटें बटोर लेने-और 66 विधानसभा क्षेत्रों में उम्मीदवारों की लीड पोजीशन देख बीजेपी का हौसला सातवें आसमान पर रहा है. फिर भी बिहार की शिकस्त ने उसे पैंतरा बदलने के लिए मजबूर कर दिया. बिहार से सबक लेकर बीजेपी ने असम में दो बातों पर खास तौर पर ध्यान दिया. एक, उसने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार वक्त रहते घोषित कर दिया - और दूसरा बिहार में विपक्षी महागठबंधन की तर्ज पर खुद राज्य के क्षेत्रीय दलों से चुनावी समझौता किया, लेकिन थोड़ी सी चूक भी हो गई.
अब, लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री पद के दावेदार तरुण गोगोई के मुकाबले बीजेपी की ओर से मैदान में बीजेपी के सर्वानंद सोनवाल हैं.
दिल्ली जैसी गलती
असम को लेकर बीजेपी आलाकमान के फैसलों से स्थानीय नेताओं में अरसे से नाराजगी बनी हुई है. क्षेत्रीय दलों खासकर एजीपी यानी असम गण परिषद से समझौते के बाद तो वे बगावत पर ही उतर आए.
बीजेपी के स्थानीय नेता राज्य के अहोम, मटोक, शोतिया, कोच राजबंधी और टी ट्राइब्स समेत छह समुदायों को एससी का दर्जा दिए जाने की मांग कर रहे हैं. ये नेता चाहते थे कि केंद्र सरकार विधानसभा चुनाव से पहले ये बिल संसद में लाये या फिर इस बारे में कोई अध्यादेश लाए. हालांकि, बगावत का बहाना बना एजीपी के साथ गठबंधन.
जिस तरह दिल्ली में बीजेपी ने स्थानीय कार्यकर्ताओं को नाराज कर ऊपर से किरण बेदी को बतौर सीएम कैंडिडेट थोप दिया था - उसी तरह उनकी अनदेखी कर एजीपी से समझौता किया और उसके लिए 24 सीटें छोड़ने का फैसला कर लिया. बीजेपी का एक धड़ा इसी बात को लेकर बगावत पर उतर आया है. बागियों ने तृणमूल बीजेपी के नाम से नई पार्टी बनाने के साथ-साथ उन 24 सीटों पर बागी उम्मीदवार उतारने का फैसला किया है जो बीजेपी एजीपी के लिए छोड़ रही है.
बीजेपी ने एजीपी और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएम) सहित पांच क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन किया है. इसके तहत बीजेपी ने एजीपी के 24 और बीपीएफ के लिए 16 सीटें छोड़ी है. बीजेपी फिलहाल...
2014 में असम में लोक सभा की 14 में से सात सीटें बटोर लेने-और 66 विधानसभा क्षेत्रों में उम्मीदवारों की लीड पोजीशन देख बीजेपी का हौसला सातवें आसमान पर रहा है. फिर भी बिहार की शिकस्त ने उसे पैंतरा बदलने के लिए मजबूर कर दिया. बिहार से सबक लेकर बीजेपी ने असम में दो बातों पर खास तौर पर ध्यान दिया. एक, उसने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार वक्त रहते घोषित कर दिया - और दूसरा बिहार में विपक्षी महागठबंधन की तर्ज पर खुद राज्य के क्षेत्रीय दलों से चुनावी समझौता किया, लेकिन थोड़ी सी चूक भी हो गई.
अब, लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री पद के दावेदार तरुण गोगोई के मुकाबले बीजेपी की ओर से मैदान में बीजेपी के सर्वानंद सोनवाल हैं.
दिल्ली जैसी गलती
असम को लेकर बीजेपी आलाकमान के फैसलों से स्थानीय नेताओं में अरसे से नाराजगी बनी हुई है. क्षेत्रीय दलों खासकर एजीपी यानी असम गण परिषद से समझौते के बाद तो वे बगावत पर ही उतर आए.
बीजेपी के स्थानीय नेता राज्य के अहोम, मटोक, शोतिया, कोच राजबंधी और टी ट्राइब्स समेत छह समुदायों को एससी का दर्जा दिए जाने की मांग कर रहे हैं. ये नेता चाहते थे कि केंद्र सरकार विधानसभा चुनाव से पहले ये बिल संसद में लाये या फिर इस बारे में कोई अध्यादेश लाए. हालांकि, बगावत का बहाना बना एजीपी के साथ गठबंधन.
जिस तरह दिल्ली में बीजेपी ने स्थानीय कार्यकर्ताओं को नाराज कर ऊपर से किरण बेदी को बतौर सीएम कैंडिडेट थोप दिया था - उसी तरह उनकी अनदेखी कर एजीपी से समझौता किया और उसके लिए 24 सीटें छोड़ने का फैसला कर लिया. बीजेपी का एक धड़ा इसी बात को लेकर बगावत पर उतर आया है. बागियों ने तृणमूल बीजेपी के नाम से नई पार्टी बनाने के साथ-साथ उन 24 सीटों पर बागी उम्मीदवार उतारने का फैसला किया है जो बीजेपी एजीपी के लिए छोड़ रही है.
बीजेपी ने एजीपी और बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट (बीपीएम) सहित पांच क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन किया है. इसके तहत बीजेपी ने एजीपी के 24 और बीपीएफ के लिए 16 सीटें छोड़ी है. बीजेपी फिलहाल असम में बांग्लादेश घुसपैठ और हिंदुत्व के नाम पर पहचान का मुद्दा उठाकर आगे बढ़ती दिख रही है.
वैसे बीजेपी के उत्साहित होने की एक वजह कांग्रेस और बदरूद्दीन अजमल की पार्टी एआईयूडीएफ के बीच गठबंधन न हो पाना भी है. लोक सभा चुनाव में बदरुद्दीन की पार्टी को कांग्रेस के बराबर तीन सीटें मिली थीं. अगर विधानसभा चुनाव में एआईयूडीएफ मजबूत पड़ी तो कांग्रेस की राह मुश्किल हो सकती है.
गोगोई की ताकत
असम में कांग्रेस 2001 से ही सत्ता में है - और तरुण गोगोई अपनी चौथी पारी के लिए जोर लगा रहे हैं. अहोम जनजाति से आने वाले गोगोई ऊपरी असम के हैं - लेकिन उन्हें किसी खास समुदाय से जोड़ कर नहीं देखा जाता. ब्रह्मपुत्र घाटी में वो लोकप्रिय तो हैं ही, बराक घाटी में भी उनकी ठीक-ठाक पहचान देखी जा सकती है.
वैसे तो असम में 1952 से ही कांग्रेस का दबदबा रहा है - बीच में सिर्फ तीन मौके ऐसे आए हैं जब गैर कांग्रेसी दल सरकार बनाने में सफल हो पाए हैं. 1985 और 1996 में यहां एजीपी की सरकार बनी थी. इसी तरह 1978 में कुछ दिनों के लिए जनता पार्टी की भी सरकार बनी थी, लेकिन बीच में ही कांग्रेस ने उसे बेदखल कर खुद कब्जा जमा लिया था.
हाल के दिनों में माना जाता रहा है कि असम में जीत उसकी पक्की है जिसे एआईयूडीएफ का सपोर्ट हासिल हो. कांग्रेस नेतृत्व भी बदरुद्दीन से गठबंधन के पक्ष में रहा है लेकिन गोगोई की जिद के आगे किसी की एक न चल पाई. बिहार चुनाव के बाद से ही खुद नीतीश कुमार ने इसके लिए जीतोड़ कोशिश की - यहां तक कि इस काम में प्रशांत किशोर को भी लगाया.
लेकिन 81 साल के गोगोई ने साफ तौर पर जाहिर कर दिया कि उन्हें किसी प्रशांत किशोर की कोई जरूरत नहीं - वो खुद इतने सक्षम हैं कि अपने दम पर चौथी बार भी चुनाव जीत सकते हैं.
बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में एआईयूडीएफ नेता की बात से मालूम होता है कि खुद गोगोई नहीं बल्कि बकौल बदरुद्दीन अजमल उनकी सरकार के एक मुस्लिम मंत्री की जिद के चलते दोनों के बीच गठबंधन नहीं हो पाया. वैसे गोगोई ने बदरुद्दीन को लेकर बयान दिया था कि वो ऐसी चाल चल रहे हैं जिससे बीजेपी को फायदा हो.
फिलहाल बीजेपी के लिए बड़ा संकट घर में झगड़ा है. इतना ही नहीं कांग्रेस छोड़ कर आए हेमचंद बिस्वाल भी बहुत खुश नजर नहीं आ रहे. बाद में जो भी हो फिलहाल तो ये सारी बातें तरुण गोगोई के पक्ष में ही जा रही हैं.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.