नागरिकता क़ानून का विरोध और उसपर देशभर में आक्रामक राजनीति करती दिख रही कांग्रेस अल्पसंख्यकों को रिझाकर खोई राजनीतिक जमीन तलाश करने की कोशिश में है. लेकिन उसकी तलाश को फिलहाल मंजिल मिलती नहीं दिख रही. पूर्वोत्तर के सबसे बड़े राज्य और एक समय तक कांग्रेस का मजबूत गढ़ रहे असम के संकेत तो कम से कम यही हैं. एग्जिट पोल्स के बड़े रुझानों में पहले मजबूत नजर आ रहा कांग्रेस का मोर्चा बीजेपी के मोर्चे से बहुत पीछे है. हालांकि कुछ पोल्स में कांटे की टक्कर भी बताई जा रही है.
पांच राज्यों में असम इकलौता राज्य है जहां एनडीए (भाजपा, असम गण परिषद, और यूनाइटेड पीपल्स पार्टी लिबरल) की लहर दिख रही है. वो भी सत्ता में काबिज रहने के बावजूद. यहां विधानसभा की कुल 126 सीटें हैं और बहुमत का आंकड़ा 64 है. फिलहाल सर्बानंद सोनावाल मुख्यमंत्री हैं. जबकि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को हटाने के लिए बीजेपी बराबर की लड़ाई में बताई जा रही है. ये साफ समझा जाना चाहिए कि अगर एग्जिट पोल्स के रुझान नतीजों में बदले तो 'हताश' कांग्रेस की सीएए-एनआरसी जैसे मुद्दों के सहारे भविष्य की योजनाओं पर पानी फिर जाएगा. पार्टी को नए सिरे से जंग के औजार तराशने होंगे. पूर्वोत्तर के राज्य से देशभर के लिए राजनीतिक संदेश भी निकलने जा रहा है.
2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में नागरिकता क़ानून (सीएए) और एनआरसी को कानूनी रूप दिया था. दोनों कानूनों का मकसद अवैध लोगों की पहचान कर बाहर निकालना और दूसरे देशों के अल्पसंख्यकों को तय शर्तों के आधार पर भारत में शरण लेने के बाद नागरिकता प्रदान करना था. संसद में क़ानून पारित भी करा दिया गया. लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ने तीखा विरोध किया और कानूनों को मुस्लिम विरोधी बताया. मुस्लिमों के नागरिक संगठनों ने तो देशभर में प्रतिक्रया जताई. कोरोना महामारी के आने तक दिल्ली समेत देश के कई हिस्सों में लंबा आंदोलन चला.
राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा समेत कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने तीखा विरोध किया. सड़कों पर भी उतरे. असम में चुनाव से काफी पहले ही सीएए-एनआरसी की सुगबुगाहट के साथ ही मुसलमानों को खदेड़ने की सरकारी कोशिश का मुद्दा बनाकर तीखा विरोध हुआ, जिसका नेतृत्व कांग्रेस और बदरुद्दीन की एआईयूडीएफ ने किया. राज्य में डिटेंशन कैम्प चलाए जाने की खबरें आईं. सीएए-एनआरसी विरोध पर देश के इस हिस्से में जिस तरह कांग्रेस को मुसलमानों का साथ मिला उसका राजनीतिक असर दिखाई देने लगा. भाजपा को बार-बार सफाई देनी पड़ी कि क़ानून, धार्मिक वजहों से किसी को देश से बाहर निकालने के लिए नहीं है. दबाव में नजर आ रही भाजपा ने असम के लिए जारी पार्टी के घोषणापत्र में सीएए का जिक्र नहीं किया.
दूसरी ओर राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के मोर्चे ने ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट, बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट , आंचलिक गण मोर्चा, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, आरजेडी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने सरकार बनने पर सीएए और एनआरसी को राज्य में लागू नहीं करने की बात की. इस घोषणापत्र में भी जगह दी गई. राहुल गांधी और प्रियंका ने सभाओं में बार-बार दोहराया कि असम में सरकार बनाते ही वो क़ानून को यहां ख़त्म करेंगे. बीजेपी के खिलाफ मतों के बंटवारे से होने वाले संभावित नुकसान से बचने के लिए मुसलमानों की राजनीति के लिए मशहूर बदरुद्दीन अजमल (एआईयूडीएफ) से गठबंधन किया. वामदलों को भी साथ मिलाया और एनडीए से बीपीएफ को तोड़ लिया.
राहुल-प्रियंका के रूप में कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व असम में ही सबसे ज्यादा सक्रिय दिखा. पार्टी ने तमिलनाडु, पुद्दुचेरी और पश्चिम बंगाल में भी मोर्चा बनाया, मगर सबसे अनुकूल स्थिति असम में ही दिखी. यही वजह है कि पार्टी का ज्यादातर रिसोर्स यहां इस्तेमाल किया गया. छत्तीसगढ़ और राजस्थान की टीमों ने कैम्पेन के काम की देखरेख की. लगभग बीजेपी की तर्ज पर कांग्रेस ने बड़े पैमाने पर दूसरे राज्यों के नेताओं और कार्यकर्ताओं को असम के मोर्चे पर उतार दिया.
कांग्रेस ने सीएए एनआरसी के अलावा बेरोजगारी, महंगाई, लॉकडाउन, खस्ताहाल अर्थव्यवस्था और कोरोना के मोर्चे पर मोदी सरकार की नाकामी को भी बड़ा मुद्दा बनाया. एक तरह से देखें तो असम में (पश्चिम बंगाल में भी) बड़ी पार्टी के रूप में पहली बार कांग्रेस ने वो सबकुछ किया जो बीजेपी के खिलाफ उसके लिए कारगर हो सकता था. इसकी दो बड़ी वजहें मान सकते हैं.
एक तो कांग्रेस को पूर्वोत्तर के इस राज्य में मौजूदा राजनीतिक वजहों से सत्ता की गंध महसूस होने लगी थी.
दूसरा कांग्रेस के लिए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए से लड़ने के तरीके और उसकी ताकत को आंकने की सबसे अच्छी जगह भी असम ही है. कमजोर कांग्रेस ने गठबंधन की राजनीतिक मजबूरियों से लगभग समझौता कर लिया है. महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, आन्ध्रप्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक जैसे राज्यों के लिए भविष्य में अपनाई जाने वाले रणनीतियों को धक्का लग सकता है. क्योंकि इन राज्यों के लिए कांग्रेस के तरकश के सारे तीर असम में आजमा लिए गए.
एग्जिट पोल्स के रुझान अगर बीजेपी के पक्ष में ही रहे तो इसके चार बड़े मतलब निकलते हैं.
पहला - सीएए-एनआरसी को लेकर लोगों ने कांग्रेस उसके गठबंधन की बात नहीं मानी. असम में सर्बानंद सोनावाल के काम, मोदी के नेतृत्व में पूरा भरोसा जताया.
दूसरा- राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस की राजनीतिक नाकामयाबी से सहयोगी दल भविष्य को लेकर अपनी रणनीतियां बनाएंगे. यानी अपना रास्ता अलग कर सकते हैं.
तीसरा- विपक्ष का गैर कांग्रेसी धड़ा मोदी से निपटने के लिए बेहतर नेतृत्व की तलाश में तीसरे मोर्चे की तरफ आगे बढ़ सकता है. राहुल की असफलताओं की वजह से इसकी सुगबुगाहट है. पिछले दिनों शरद पवार के नाम को ऐसे ही आगे करने की कोशिश देखी जा चुकी है.
चौथा- उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में जहां कांग्रेस क्षेत्रीय दलों (सपा-बसपा) से पीछे है, वहां पार्टी की कोशिशों को धक्का लग सकता है. कांग्रेस मुसलमानों और बेहद छोटे दलों के सहारे राजनीतिक विकल्प और मोर्चा बनाने की कोशिश में है. ऐसा होने पर कांग्रेस नेतृत्व का मौका गंवा देगी. उसे अस्तित्व बचाए रखने के लिए क्षेत्रीय दलों का पिछलग्गू ही बनना पड़ेगा.
बीजेपी राज्यों के लिए भी है एक सबक
असम से एक सबक बीजेपी राज्यों को भी मिल रहा है. आखिर में अच्छे काम ही मददगार साबित होते हैं. असम में कांग्रेस नेताओं ने पांच साल में सरकार के मौजूदा काम के आधार पर माना कि पहले (कांग्रेस की सरकार में) गलतियां हुई हैं, लेकिन इसे दोहराया नहीं जाएगा. दूसरे राज्यों की बीजेपी सरकारों को चाहिए कि वो ऐसे काम और उनका प्रचार करे जो उसे पिछली सरकारों से अलग साबित करे. सिर्फ विवाद खड़े करने और पीआर से चर्चा तो बराबर मिलती है लेकिन राजनीतिक सफलता नहीं. सत्ताविरोधी स्वाभाविक रुझान से बचने के लिए एनडीए सरकारों के लिए असम से महामंत्र मिल सकता है.
फोटो कांग्रेस के ट्विटर पेज से साभार.
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