पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में वेस्ट बंगाल पर सबकी नजर थी. मोदी-शाह की जोड़ी के आक्रामक प्रचार, लेफ्ट-कांग्रेस की मौजूदगी में बंगाल के संभावित त्रिकोणीय माहौल और बाद में एग्जिट पोल से लगने लगा था कि ममता बनर्जी के 10 साल के शासन का अंत होने जा रहा है. मगर मतगणना में चीजें उलट गईं. लेफ्ट-कांग्रेस सिर ही नहीं उठा पाया और ममता ने प्रचंड बहुमत से वापसी कर ली. सिर्फ अपने बलबूते बंगाल जीतने वाली ममता के लिए क्या यह माना जाए कि उनके लिए सभी चीजें सही होने जा रही है प्रचंड ताकत से जोर आजमाइश करने वाली भाजपा की राहें ख़त्म हो गई हैं?
मुझे लगता है कि बंगाल हारने के बावजूद भाजपा के हाथों में बहुत सारे लड्डू हैं. चुनाव के बाद भी ममता के पीछे भाजपा वैसी ही खड़ी रहेगी जैसे कि चुनाव से पहले थी. इसकी वजहें हैं. दरअसल, मौजूदा चुनाव तक पिछले पांच साल में बंगाल की सियासत की एक पूरी धारा बदल चुकी है. अब तक के बदलाव में पांच बड़े मायने निकल कर आते हैं.
लेफ्ट-कांग्रेस का सफाया कर बंगाल को दो ध्रुवीय बनाया
करीब ढाई दशक से बंगाल की राजनीति तीन ध्रुवीय रही है. एक ध्रुव पर लेफ्ट, दूसरे पर तृणमूल कांग्रेस और तीसरे पर कांग्रेस काबिज रही. भाजपा का प्रभाव कोलकाता समेत उन शहरी इलाकों में था जहां हिंदी भाषी बड़ी संख्या में थे. समाज में हिंदू-मुस्लिम की बातें तो थीं, मगर यह कम से कम बंगाल के लिए राजनीतिक विषय नहीं था. मोदी के बाद 2021 के विधानसभा चुनाव में लेफ्ट-कांग्रेस के सफाए के बाद तीन ध्रुवीय राजनीति पूरी तरह से दो ध्रुव में बदल गई है.
निश्चित ही अब यहां हिंदू-मुस्लिम राजनीति का ध्रुवीकरण है. बंगाल में हिंदुत्व पर दूसरी पार्टियों का क्लेम नहीं होने की वजह से भाजपा को हमेशा एज मिलेगा. भविष्य में. जबकि ममता को भाजपा के साथ ही लेफ्ट और कांग्रेस से भी मोर्चा लेना पड़ेगा. राज्य में लेफ्ट और कांग्रेस का किसी भी स्तर पर मजबूत होना सिर्फ और सिर्फ ममता को नुकसान पहुंचाएगा.
बंगाल की सर्व स्वीकार्य पार्टी बनी बीजेपी
बंगाल में...
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में वेस्ट बंगाल पर सबकी नजर थी. मोदी-शाह की जोड़ी के आक्रामक प्रचार, लेफ्ट-कांग्रेस की मौजूदगी में बंगाल के संभावित त्रिकोणीय माहौल और बाद में एग्जिट पोल से लगने लगा था कि ममता बनर्जी के 10 साल के शासन का अंत होने जा रहा है. मगर मतगणना में चीजें उलट गईं. लेफ्ट-कांग्रेस सिर ही नहीं उठा पाया और ममता ने प्रचंड बहुमत से वापसी कर ली. सिर्फ अपने बलबूते बंगाल जीतने वाली ममता के लिए क्या यह माना जाए कि उनके लिए सभी चीजें सही होने जा रही है प्रचंड ताकत से जोर आजमाइश करने वाली भाजपा की राहें ख़त्म हो गई हैं?
मुझे लगता है कि बंगाल हारने के बावजूद भाजपा के हाथों में बहुत सारे लड्डू हैं. चुनाव के बाद भी ममता के पीछे भाजपा वैसी ही खड़ी रहेगी जैसे कि चुनाव से पहले थी. इसकी वजहें हैं. दरअसल, मौजूदा चुनाव तक पिछले पांच साल में बंगाल की सियासत की एक पूरी धारा बदल चुकी है. अब तक के बदलाव में पांच बड़े मायने निकल कर आते हैं.
लेफ्ट-कांग्रेस का सफाया कर बंगाल को दो ध्रुवीय बनाया
करीब ढाई दशक से बंगाल की राजनीति तीन ध्रुवीय रही है. एक ध्रुव पर लेफ्ट, दूसरे पर तृणमूल कांग्रेस और तीसरे पर कांग्रेस काबिज रही. भाजपा का प्रभाव कोलकाता समेत उन शहरी इलाकों में था जहां हिंदी भाषी बड़ी संख्या में थे. समाज में हिंदू-मुस्लिम की बातें तो थीं, मगर यह कम से कम बंगाल के लिए राजनीतिक विषय नहीं था. मोदी के बाद 2021 के विधानसभा चुनाव में लेफ्ट-कांग्रेस के सफाए के बाद तीन ध्रुवीय राजनीति पूरी तरह से दो ध्रुव में बदल गई है.
निश्चित ही अब यहां हिंदू-मुस्लिम राजनीति का ध्रुवीकरण है. बंगाल में हिंदुत्व पर दूसरी पार्टियों का क्लेम नहीं होने की वजह से भाजपा को हमेशा एज मिलेगा. भविष्य में. जबकि ममता को भाजपा के साथ ही लेफ्ट और कांग्रेस से भी मोर्चा लेना पड़ेगा. राज्य में लेफ्ट और कांग्रेस का किसी भी स्तर पर मजबूत होना सिर्फ और सिर्फ ममता को नुकसान पहुंचाएगा.
बंगाल की सर्व स्वीकार्य पार्टी बनी बीजेपी
बंगाल में भले ही ममता बनर्जी बड़ी नेता हैं, लेकिन उनकी भूमिका राज्य तक ही सीमित रहेगी. अब तक के विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों में तृणमूल को मिलने वाली सीटें इसका सबूत हैं. ममता के खिलाफ स्थानीय चेहरा नहीं होने से बीजेपी को नुकसान हुआ. पूरा चुनाव मोदी के नाम पर ही लड़ा गया. उनकी सभाओं में लोगों की भीड़ इस बात का साफ इशारा है. खुद प्रशांत किशोर (ममता के चुनावी रणनीतिकार) ये बात मान चुके हैं कि यहां भी लोकप्रियता के मामले में नरेंद्र मोदी, ममता बनर्जी से बहुत आगे हैं. टीएमसी चीफ को ये बात परेशान करने वाली है. केंद्र के लिहाज से मोदी बंगाल में स्वीकार्य बने रहेंगे.
3 से 75 सीट तक पहुंचने वाली बीजेपी के विधायकों के पास 'केंद्रीय' पावर होगा
2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के पास मात्र तीन विधायक थे और अब वो छह दर्जन के आंकड़े के पार है. यानी हार के बावजूद विधानसभा में विपक्ष के रूप में भाजपा की स्थिति बहुत मजबूत है. विपक्षी दल के रूप में भाजपा की राजनीति देखने वालों को पता है कि इसके क्या मायने हैं? ममता शांत नहीं बैठ पाएंगी और उनपर लगातार भारी दबाव रहेगा. केंद्र में बीजेपी के होने की वजह से बंगाल में विपक्षी भाजपा के हमले ज्यादा धारदार रहेंगे. और बीजेपी विधायकों के पास केंद्र सरकार की छत्रछाया भी तो होगी!
विधानसभा चुनाव में बीजेपी का वोट प्रतिशत 10 से 38
भाजपा का मजबूत वोटबैंक लगभग उसके साथ बना हुआ है. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने करीब 40 परसेंट वोट शेयर के साथ 18 सीटें जीती थीं. विधानसभा चुनाव में पार्टी ने करीब तीन परसेंट वोट शेयर गंवाया है. लोकसभा चुनाव के मुकाबले तृणमूल का वोट शेयर करीब 48.31 पर्सेट (विधानसभा से 4 परसेंट ज्यादा) है. जबकि लेफ्ट और कांग्रेस का लोकसभा में कुल 12 परसेंट से ज्यादा वोट शेयर था. जो इस बार 8 परसेंट से भी नीचे गिरा है. यानी भाजपा के पांव बंगाल में मजबूत बने हुए हैं. भाजपा के प्रदर्शन में फर्क केंद्र और राज्य की राजनीति की वजह से दिख रहा है. भाजपा की असल चुनौती इसी फर्क को ख़त्म करना होगा.
भाजपा को सत्ता तो न मिली, लेकिन अच्छा खासा संगठन मिल गया
सबसे अहम बात ये है कि 2021 विधानसभा चुनाव के साथ पार्टी ने तृणमूल से कई दिग्गजों को अपने साथ जोड़ा. भविष्य में संगठन के स्तर पर भाजपा को इसका बहुत फायदा मिलेगा. क्योंकि अब बंगाल के चप्पे-चप्पे में संगठन और उसके लोग हैं. भाजपा का ज्यादा बड़ा विस्तार और नए तगड़े नेताओं की फ़ौज भविष्य में शायद लोकसभा-विधानसभा के फर्क को कम कर सके.
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