महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों को लेकर सत्ताधारी बीजेपी और विपक्ष दोनों से जितना बन पड़ा किया. चुनाव प्रचार के आखिरी दौर तक बीजेपी नेतृत्व ने खूब मेहनत की तो विपक्ष कहीं यथाशक्ति तो कुछ जगह रस्मअदायगी भर प्रदर्शन किया. अब वो घड़ी भी काफी करीब आ चुकी है जब 21 अक्टूबर को लोग अपना फैसला सुनाएंगे - और वो 24 अक्टूबर को जगजाहिर हो जाएगा.
चुनाव के तारीखों के ऐलान के पहले से ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और हरियाणा के सीएम मनोहरलाल खट्टर ने खुद को पेश तो ऐसे ही किया है कि वो दोबारा सत्ता में लौट रहे हैं. बीजेपी नेताओं के इस आत्मविश्वास की असल वजह तो राजनीतिक समीकरण हैं. जब विपक्ष के एक से एक कद्दावर नेता सत्तापक्ष के गठबंधन के साथ हो जायें तो जाहिर है चैलेंज करने वाला कोई बचता कहां है.
अव्वल तो यही लग रहा था कि जिस तरह राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का बस नामोनिशान बचा है, महाराष्ट्र और हरियाणा में भी हालत वही होने वाली है - लेकिन कुछ ओपिनियन पोल में जिस हिसाब से विपक्ष के हिस्से में विधानसभा सीटों की संभावना जतायी गयी है वो तो यही जता रहा है कि जीत के प्रति बीजेपी के पक्के यकीन में कुछ न कुछ लोचा तो जरूर है.
विपक्ष को हल्के में लेना बीजेपी के लिए कितना ठीक है
हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में दो चीजें तो पूरी तरह साफ हैं - एक, सत्ताधारी बीजेपी का आत्मविश्वास से भरपूर होना और विपक्षी खेमे में घोर निराशा. खासतौर पर विपक्षी नेतृत्व में ये ज्यादा देखने को मिला है - और ये महाराष्ट्र के मुकाबले हरियाणा में थोड़ा ज्यादा है. हरियाणा में सोनिया गांधी की एकमात्र रैली का रद्द हो जाना और अरविंद केजरीवाल का पूरी तरह दूर रहना. ये जता तो यही रहा है कि वे मान कर चल रहे हैं कि कुछ नहीं होने वाला.
बीजेपी को...
महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों को लेकर सत्ताधारी बीजेपी और विपक्ष दोनों से जितना बन पड़ा किया. चुनाव प्रचार के आखिरी दौर तक बीजेपी नेतृत्व ने खूब मेहनत की तो विपक्ष कहीं यथाशक्ति तो कुछ जगह रस्मअदायगी भर प्रदर्शन किया. अब वो घड़ी भी काफी करीब आ चुकी है जब 21 अक्टूबर को लोग अपना फैसला सुनाएंगे - और वो 24 अक्टूबर को जगजाहिर हो जाएगा.
चुनाव के तारीखों के ऐलान के पहले से ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और हरियाणा के सीएम मनोहरलाल खट्टर ने खुद को पेश तो ऐसे ही किया है कि वो दोबारा सत्ता में लौट रहे हैं. बीजेपी नेताओं के इस आत्मविश्वास की असल वजह तो राजनीतिक समीकरण हैं. जब विपक्ष के एक से एक कद्दावर नेता सत्तापक्ष के गठबंधन के साथ हो जायें तो जाहिर है चैलेंज करने वाला कोई बचता कहां है.
अव्वल तो यही लग रहा था कि जिस तरह राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष का बस नामोनिशान बचा है, महाराष्ट्र और हरियाणा में भी हालत वही होने वाली है - लेकिन कुछ ओपिनियन पोल में जिस हिसाब से विपक्ष के हिस्से में विधानसभा सीटों की संभावना जतायी गयी है वो तो यही जता रहा है कि जीत के प्रति बीजेपी के पक्के यकीन में कुछ न कुछ लोचा तो जरूर है.
विपक्ष को हल्के में लेना बीजेपी के लिए कितना ठीक है
हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में दो चीजें तो पूरी तरह साफ हैं - एक, सत्ताधारी बीजेपी का आत्मविश्वास से भरपूर होना और विपक्षी खेमे में घोर निराशा. खासतौर पर विपक्षी नेतृत्व में ये ज्यादा देखने को मिला है - और ये महाराष्ट्र के मुकाबले हरियाणा में थोड़ा ज्यादा है. हरियाणा में सोनिया गांधी की एकमात्र रैली का रद्द हो जाना और अरविंद केजरीवाल का पूरी तरह दूर रहना. ये जता तो यही रहा है कि वे मान कर चल रहे हैं कि कुछ नहीं होने वाला.
बीजेपी को लगता है कि सारी बातें उसके पक्ष में हैं. विपक्षी दलों के सारे अहम नेता भगवा धारण कर चुके हैं और छोटी-छोटी बातों की जगह देश की बात करने लगे हैं. फिर भी ओपिनियन पोल में विपक्ष के खाते में ठीक-ठाक सीटें जाने की संभावना नये इशारे कर रहा है. मालूम नहीं बीजेपी की रणनीति बनाने वालों का इस ओर ध्यान है भी या नहीं.
निश्चित तौर पर बीजेपी आम चुनाव में पहले से बेहतर प्रदर्शन के बाद आत्मविश्वास से लबालब है, लेकिन महाराष्ट्र और हरियाणा में 'इंडिया शाइनिंग कॉन्फिडेंस' ने अनजाने में ही कोई चूक करा दी तो लेने के देने भी पड़ सकते हैं. जो हाल महाराष्ट्र को लेकर है, बीजेपी वैसे ही ख्याल हरियाणा के बारे में भी रख रही है.
1. ये ठीक है कि 2019 के आम चुनाव के नतीजे बीजेपी के लिए 2014 से बेहतर रहे हैं. देश में मोदी लहर रही है और अपने ही सांसदों के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर को रोकने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर अपने लिए वोट मांगा था और उसका पूरा फायदा भी मिला. महाराष्ट्र में बीजेपी देवेंद्र फडणवीस और हरियाणा में मनोहरलाल खट्टर के नाम पर वोट मांग रही है - बीजेपी ये भूल रही है कि आम चुनाव जैसा राष्ट्रवाद का असर हो ही जरूरी नहीं है.
2. ये भी ठीक है कि आम चुनाव में मिले वोटों के आंकड़े विधानसभा स्तर पर भी बीजेपी का साथ दे रहे हैं - लेकिन क्या इस बात को नजरअंदाज किया जा सकता है कि विधानसभा चुनावों में लोक सभा के मुकाबले स्थानीयता का भाव ज्यादा हावी होती है.
3. ऐसा देखने को मिला कि प्रधानमंत्री मोदी महाराष्ट्र में मुंबई हमले का जिक्र करते हैं और हरियाणा में धारा 370 पर ज्यादा जोर होता है. PoK पर पाकिस्तान से बातचीत की चर्चा भी राजनाथ सिंह ने हरियाणा में ही एक रैली से आगे बढ़ाई थी - लेकिन क्या जमीनी स्तर पर भी ये बातें उतना ही मायने रखती हैं?
4. क्या हरियाणा जैसे राज्य में जातिगत फैक्टर बिलकुल मायने नहीं रखते? गैर-जाट मुख्यमंत्री से लेकर गैर-जाट राजनीति तक बीजेपी के प्रयोग सफल रहे हैं - लेकिन ओपिनियन पोल से मालूम होता है कि भूपिंदर सिंह हुड्डा और दुष्यंत चौटाला जैसे नेताओं को कम करके आंकना बीजेपी के लिए नुकसानदेह भी हो सकता है.
विधानसभा चुनाव में राष्ट्रवाद की पैठ कितनी
महाराष्ट्र और हरियाणा दोनों ही राज्यों में विपक्ष अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा है, भले भी बीजेपी के हिसाब से अंतिम सांसे ही क्यों न गिन रहा हो. मगर, विपक्ष के साथ क्या सलूक करना है ये फैसला तो वोट देने वालों को लेना है - हां, बीजेपी को पूरा हक है अपनी बात समझाने का.
दावे तो पवार परिवार की तीसरी पीढ़ी के नेता रोहित पवार भी काफी बड़े बड़े कर रहे हैं, लेकिन धारा 370 को लेकर एक बात जो कही है वो काफी महत्वपूर्ण लगती है. अगर रोहित पवार के हिसाब से सोचें तो बीजेपी नेताओं का मुंबई हमले का जिक्र करना महाराष्ट्र के लोगों के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है, लेकिन जम्मू-कश्मीर को लेकर खत्म की गयी धारा 370 का तो कोई मतलब ही नहीं बनता. वैसे हरियाणा को लेकर बीजेपी नेताओं का दावा है कि अगर राज्य का जवान सीमा पर तैनात है तो धारा 370 और पाकिस्तान की चर्चा लोगों के लिए खास मायने रखती है.
जब ED के केस की चर्चा रही, तभी शरद पवार ने महाराष्ट्र के लोगों की प्रतिक्रिया की बात की थी. शरद पवार के मुताबिक विपक्षी नेताओं को लोगों में जबरदस्त रिस्पॉन्स मिल रहा है. महाराष्ट्र में सरप्राइज और एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन की सरकार बनने का दावा कर रहे रोहित पवार इकनॉमिक टाइम्स से कहते हैं, 'पहली बात, बहुत लोगों को तो आर्टिकल 370 का पता भी नहीं. जो जानते हैं वो सिर्फ ये समझते हैं कि इससे बड़े लोग कश्मीर में जमीन खरीद सकेंगे. लोग तो बस यही समझ रहे हैं.'
हरियाणा चुनाव में लोगों के बीच एक मैसेज की खूब चर्चा है. बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक लोगों को इस मैसेज के जरिये '35 बनाम 1' के स्लोगन की याद दिलाना है. माना जा रहा है कि पहले जातिवाद की जिस राजनीति का फायदा जाट नेता उठाते आ रहे थे उसे पलट कर बीजेपी ने अपने पक्ष में कर लिया है. सिर्फ तरीका बदला है राजनीति का मिजाज वही है.
जिस स्लोगन की चर्चा हो रही है वो लोक सभा चुनाव 2019 के दौरान भी जगह जगह शेयर हो रहा था. इस स्लोगन का आधार को जातीय जनगणना नहीं बल्कि एक आम अवधारणा है. जैसे समाज में 36 बिरादरी होती है और सबको मिल कर रहना चाहिये. इसी 36 को राजनीति के लिए 35 और एक में बांट दिया गया है जिसमें एक तरफ जाट होते हैं और दूसरी तरफ बाकी बिरादरी. बीजेपी अपने कुछ नेताओं के जरिये इस राजनीति में सफल रही है.
कहते हैं 2014 में बीजेपी ने जाटों के खिलाफ बाकी जातियों की गोलबंदी करायी और चुनाव नतीजे आने के बाद किसी जाट नेता को मुख्यमंत्री बनाने की जगह पंजाबी कम्युनिटी से आने वाले मनोहर लाल खट्टर को आगे कर दिया. जाट आंदोलन तोड़ने में भी बीजेपी का यही दांव काम आया. जिन नेताओं ने जाट आंदोलन की अगुवाई की उनके बारे में लोगों को समझा दिया गया कि वे अपने निहित स्वार्थ के चलते जाटों को भड़का रहे हैं - और लोग समझ भी गये.
राजनीति के इसी रणनीतिक समीकरण के दूसरी छोर पर कांग्रेस के भूपिंदर सिंह हुड्डा खड़े हैं जो जाट समुदाय को समझाने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं, 'अगर खट्टर की वापसी हो गई तो उन लोगों का वजूद बिल्कुल खत्म हो जाएगा, इसलिए जाटों को राजनीतिक ताकत अपने हाथ मे रखनी चाहिए.'
देखना है जाट समुदाय हुड्डा की बात को कहां तक समझना चाहता है - क्योंकि मुख्यमंत्री रहते हुड्डा का ये दावा कि 'पहले वो जाट हैं उसके बाद सूबे के सीएम' पहले ही अपना रंग दिखा चुके हैं. माना जाता है कि जाटों के सम्मेलन में दस साल मुख्यमंत्री रहने के बावजूद हरियाणा के गैर-जाट समुदाय ने हुड्डा को इसी बात के लिए 2014 में खारिज कर दिया था.
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