दिल्ली नगर निगम चुनाव (MCD Polls) में प्रयोग के ढेरों विकल्प हैं और बीजेपी बिलकुल वही कर रही है. किसी भी मौके का भरपूर फायदा उठाना भारतीय जनता पार्टी (BJP) से बेहतर जानता कौन है. तभी तो गुजरते वक्त के साथ बीजेपी धीरे धीरे समाज के हर तबके में घुसपैठ कर चुकी है, लेकिन एक तबका जरूर बच जाता है जिसके लिए बीजेपी को अक्सर कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है - और वो है मुस्लिम समुदाय!
पहले तो बीजेपी पर वोटों के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के खूब आरोप लगते थे, लेकिन जब से बीजेपी के राजनीतिक विरोधियों ने सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीतिक राह पकड़ ली है, ऐसे आरोप खुद ब खुद कमजोर पड़ने लगे हैं. राहुल गांधी और मायावती तो सॉफ्ट हिंदुत्व के प्रयोगों से थक चुके हैं, लेकिन अरविंद केजरीवाल जैसे नेता तो लगता है जैसे वो आगे बढ़ कर बीजेपी के साथ ही होड़ लगा रहे हों.
मुस्लिम समुदाय से डिस्कनेक्ट के आरोपों को नकारने के लिए ही बीजेपी ने 'सबका साथ, सबका विकास' स्लोगन काफी पहले ही गढ़ लिया था, लेकिन जब भी चुनावों में मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने की बात आती है, बीजेपी स्किप कर जाती है - और मुख्तार अब्बास नकवी जैसा कोई बीजेपी नेता सामने आकर जिताऊ कैंडिडेट न मिल पाने का बहाना पेश कर पल्ला झाड़ लिया करते.
देखा जाये तो 2024 के आम चुनाव के हिसाब से एमसीडी चुनाव बीजेपी के लिए बेहतरीन चुनावी मॉडल है. ये चीज चुनाव के कई आयामों से समझी जा सकती है. सबसे बड़ा फैक्टर तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हैं, जिन्हें लेकर बीजेपी में ऊपर तक दहशत है.
दिल्ली की शराब नीति में गड़बड़ी को लेकर डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया के घर पर सीबीआई की रेड के वक्त से ही आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने सबसे बड़े चैलेंजर के तौर पर पेश...
दिल्ली नगर निगम चुनाव (MCD Polls) में प्रयोग के ढेरों विकल्प हैं और बीजेपी बिलकुल वही कर रही है. किसी भी मौके का भरपूर फायदा उठाना भारतीय जनता पार्टी (BJP) से बेहतर जानता कौन है. तभी तो गुजरते वक्त के साथ बीजेपी धीरे धीरे समाज के हर तबके में घुसपैठ कर चुकी है, लेकिन एक तबका जरूर बच जाता है जिसके लिए बीजेपी को अक्सर कठघरे में खड़ा कर दिया जाता है - और वो है मुस्लिम समुदाय!
पहले तो बीजेपी पर वोटों के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के खूब आरोप लगते थे, लेकिन जब से बीजेपी के राजनीतिक विरोधियों ने सॉफ्ट हिंदुत्व की राजनीतिक राह पकड़ ली है, ऐसे आरोप खुद ब खुद कमजोर पड़ने लगे हैं. राहुल गांधी और मायावती तो सॉफ्ट हिंदुत्व के प्रयोगों से थक चुके हैं, लेकिन अरविंद केजरीवाल जैसे नेता तो लगता है जैसे वो आगे बढ़ कर बीजेपी के साथ ही होड़ लगा रहे हों.
मुस्लिम समुदाय से डिस्कनेक्ट के आरोपों को नकारने के लिए ही बीजेपी ने 'सबका साथ, सबका विकास' स्लोगन काफी पहले ही गढ़ लिया था, लेकिन जब भी चुनावों में मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने की बात आती है, बीजेपी स्किप कर जाती है - और मुख्तार अब्बास नकवी जैसा कोई बीजेपी नेता सामने आकर जिताऊ कैंडिडेट न मिल पाने का बहाना पेश कर पल्ला झाड़ लिया करते.
देखा जाये तो 2024 के आम चुनाव के हिसाब से एमसीडी चुनाव बीजेपी के लिए बेहतरीन चुनावी मॉडल है. ये चीज चुनाव के कई आयामों से समझी जा सकती है. सबसे बड़ा फैक्टर तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हैं, जिन्हें लेकर बीजेपी में ऊपर तक दहशत है.
दिल्ली की शराब नीति में गड़बड़ी को लेकर डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया के घर पर सीबीआई की रेड के वक्त से ही आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने सबसे बड़े चैलेंजर के तौर पर पेश करने लगे हैं. गुजरात बीजेपी के नेताओं को तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पहले ही अरविंद केजरीवाल के खिलाफ अलर्ट कर चुके हैं. बीजेपी अरविंद केजरीवाल के प्रति किस हद तक गंभीर है, आसानी से समझा जा सकता है.
एमसीडी की ही तरह बीजेपी के सामने 2024 में एक बड़ी चुनौती सत्ता विरोधी लहर भी होगी. एमसीडी चुनाव में भी फिलहाल बीजेपी के सामने ये बहुत बड़ा चैलेंज साबित हो रहा है और उसकी काट के लिए पार्टी तमाम तरीके आजमा रही है. कुछ ऐसे प्रयोग तो 2017 के चुनाव में भी किये गये थे.
और बीजेपी की अब तक जो सबसे कमजोर कड़ी बनी हुई है, वो है मुस्लिम वोटर. ये मुस्लिम वोट बीजेपी के लिए दुधारी तलवार साबित होता है. हिंदू वोटों के बंटवारे से बचने के लिए बीजेपी की रणनीति मुस्लिम वोट से दूरी बनाने की होती है, लेकिन बीजेपी के राजनीतिक विरोधी उसका पूरा फायदा उठा लेते हैं. लिहाजा बीजेपी के सामने हिंदू वोटों को अपने करीब रखते हुए मुस्लिम वोटर के पास पहुंचने की तलब महसूस होने लगी है.
मुस्लिम समुदाय से कनेक्ट होने के बीजेपी के अपने तरीके होते हैं. तीन तलाक कानून तो मुस्लिम घरों में घुस कर स्त्री और पुरुष वोटों को बांट डालने की ही रही, ये बात अलग है कि कोई खास सफलता नहीं मिल पायी - लेकिन संघ और बीजेपी नेतृत्व को अब पसमांदा मुस्लिम (Pasmanda Muslims) समुदाय से ज्यादा ही उम्मीद लग रही है.
हैदराबाद में हुई बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पार्टी को मुस्लिम तबके में पिछड़ा माने जाने वाले पसमांदा समुदाय से जुड़ने का मंत्र काफी अच्छा लगा है. जाहिर है ये तैयारी यानी विचार विमर्श पहले से ही चल रहा होगा और ये बात तो बाद में ही आयी होगी. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत के भाषणों में तो मुस्लिम समुदाय का जिक्र पहले से ही आता रहा है, लेकिन दिल्ली में इमाम से मुलाकात और मदरसे का दौरा - इशारे तो एक ही तरफ करते हैं.
ये तो सबने देखा ही कि कैसे प्रधानमंत्री मोदी ने 2019 में 'सबका साथ, सबका विकास' में 'सबका विश्वास' भी जोड़ दिया था - अगर कुछ दिनों से बीजेपी के पसमांद मुस्लिम तक पहुंचने की कोशिशों को समझें तो बात काफी आगे तक बढ़ी हुई लगती है.
जिस तरह से एमसीडी चुनाव में बीजेपी ने चार मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है - आगे की चुनावी राजनीति को लेकर बीजेपी के इरादे स्वाभाविक तौर पर साफ हो जाते हैं.
बीजेपी की राजनीतिक प्रयोगशाला बना एमसीडी चुनाव
भारतीय जनता पार्टी ने एमसीडी चुनाव में इस बार चार मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है. देखा जाये तो पिछली बार के मुकाबले संख्या कम ही है. 2017 के एमसीडी चुनाव में बीजेपी ने छह उम्मीदवारों को टिकट दिया था. तब एक उम्मीदवार का नामांकन रद्द हो गया था और बाकी सभी पांच चुनाव हार गये थे.
एक फर्क ये है कि पिछली बार बीजेपी ने जिन मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था, उनमें पसमांदा समुदाय से सिर्फ दो थे, लेकिन इस बार बीजेपी ने एमसीडी चुनाव में सिर्फ पसमांदा मुस्लिमों को ही उम्मीदवार बनाया है - और खास बात ये है कि उनमें तीन महिलाएं हैं.
एमसीडी चुनाव में बीजेपी से टिकट पाने वाले ये चार उम्मीदवार हैं - चौहान बांगर वार्ड से सबा गाजी, कुरैश नगर वार्ड से शमीना रजा, मुस्तफाबाद से शबनम मलिक और चांदनी महल से इरफान मलिक. दिल्ली में मुस्लिम आबादी 15 फीसदी के आस पास है और ये ओखला, मटिया महल, सीलमपुर, मुस्तफाबाद, बल्ली मरान, बाबरपुर, सदर बाजार, चांदनी महल, अबुल फजल एनक्लेव के अलावा श्रीराम कालोनी और बृजपुरी जैसे इलाकों में भी अच्छी खासी मुस्लिम आबादी है.
जो प्रयोग बीजेपी विधानसभा चुनावों या आम चुनाव में नहीं कर पाती या कर पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती, नगर निगम और स्थानीय निकायों के चुनाव ऐसे प्रयोगों के लिए बढ़िया मौका उपलब्ध कराते हैं. ऐसा भी नहीं कि एमसीडी में मुस्लिम उम्मीदवारों को बीजेपी पहली बार मैदान में उतार रही है. 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव के बाद मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट न देने को लेकर सवाल उठा था - और फिर ठीक वैसे ही सवाल मुख्तार अब्बास नकवी का कार्यकाल खत्म होने के बाद भी उठाये जा रहे थे.
2017 में बीजेपी ने एमसीडी चुनाव के साथ साथ बीजेपी ने पश्चिम बंगाल में भी नगर निगमों के चुनाव में मुस्लिम उम्मीदवारों को लेकर ऐसे ही प्रयोग किये थे, लेकिन न तो एमसीडी में सफलता मिली, न ही पश्चिम बंगाल में. पश्चिम बंगाल में तब हुए सात नगर निगमों के चुनावों में बीजेपी ने सिर्फ तीन में हिस्सा लिया था. दोमकल और पुजाली जैसे मुस्लिम बहुल इलाकों में बीजेपी 10 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है. दोमकल में बीजेपी के कुल 20 उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे जिनमें से 7 मुस्लिम थे. वैसे ही पुजाली के 16 प्रत्याशियों में से तीन मुस्लिम थे.
पसमांदा से मिलेगा सबका विश्वास?
मुमकिन है, 2024 के आम चुनाव तक बीजेपी के बहुप्रचारित स्लोगन 'सबका साथ, सबका विकास' में 'सबका विश्वास' में कोई ऐडऑन फीचर 2019 की तरह फिर से जोड़ दिया जाये - क्योंकि दिल्ली के साथ साथ बीजेपी जिस तरह तेलंगाना और यूपी-बिहार में पसमांदा समुदाय से जुड़ने को आतुर है, ये स्वाभाविक ही लगता है.
मुस्लिम समुदाय की आबादी में पसमांदा मुसलमानों की 80-85 फीसदी हिस्सेदारी मानी जाती है - और ये सभी पिछड़े वर्ग में आते हैं. बीजेपी की तरफ से काफी दिनों से यूपी में जगह जगह पसमांदा सम्मेलन कराये जा रहे हैं - और नजर बिहार की राजनीति पर भी टिकी हुई है.
हाल ही में, राष्ट्रवादी मुस्लिम पसमांदा महाज ने बरेली में पसमांदा मुसलमानों का एक सम्मेलन कराया था, जिसमें बीजेपी ने भी मौजूदगी दर्ज करायी. सम्मेलन में बीजेपी की यूपी सरकार के कई मंत्री शामिल हुए थे - धर्मपाल सिंह, नरेंद्र कुमार कश्यप और दानिश आजाद अंसारी. ध्यान रहे दानिश आजाद अंसारी भी पसमांदा मुस्लिम समुदाय से ही आते हैं. बीजेपी से मुस्लिम समुदाय के पसमांदा समाज को जोड़ने के लिए ही राष्ट्रवादी मुस्लिम पसमांदा के अध्यक्ष आतिफ रशीद पश्चिम यूपी से लेकर रुहलेखंड तक मुस्लिम बहुल इलाकों में पसमांदा सम्मेलन करा रहे हैं.
पसमांदा सम्मेलनों में बीजेपी के मंत्री भी हिस्सा ले रहे हैं, लेकिन पार्टी की तरफ से लीड रोल सबसे बड़े मुस्लिम चेहरे मुख्तार अब्बास नकवी को मिला है. मुख्तार अब्बास नकवी के राज्य सभा का कार्यकाल खत्म हो जाने के बाद उनकी नयी भूमिका को लेकर काफी कयास लगाये गये, लेकिन सारे गलत साबित हुए. उपराष्ट्रपति बनाये जाने की कौन कहे, बीजेपी ने तो मुख्तार अब्बास नकवी को रामपुर उपचुनाव में उम्मीदवार तक नहीं बनाया था, लेकिन बाद उनको उसी इलाके में भेज दिया गया - मुस्लिम समाज में बीजेपी की पैठ बढ़ाने का टास्क देकर.
अब बीजेपी जगह जगह जो पसमांदा सम्मेलन करा रही है, मुख्तार अब्बास नकवी प्रमुख भूमिका में रहते हैं. अभी तो रामपुर विधानसभा के लिए उपचुनाव भी होना है - 5 दिसंबर को. लिहाजा मुख्तार अब्बास नकवी के जिम्मे एक पंथ दो काज हो गया है. पसमांदा सम्मेलन और इलाके में चुनाव प्रचार साथ साथ चल रहा है. रामपुर लोक सभा सीट खुद भी चुनाव लड़ चुके मुख्तार अब्बास नकवी का दावा है कि रामपुर में इस बार कमल जरूर खिलेगा. मुख्तार अब्बास नकवी के साथ साथ यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार में मंत्री दानिश अंसारी भी रामपुर में बीजेपी के लिए मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन जुटाने में जुटे हुए हैं.
पसमांदा सम्मेलनों में मुख्तार अब्बास नकवी को मोदी मंत्र पर अमल करते देखा जा सकता है. हैदराबाद कार्यकारिणी के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने पसमांदा समुदाय के लोगों तक उन सरकारी योजनाओं की जानकारी पहुंचाने की सलाह दी थी, जिनमें वे भी लाभार्थी हैं - मुख्तार अब्बास नकवी पसमांदा सम्मेलनों में फिलहाल यही काम कर रहे हैं.
रामपुर के महात्मा गांधी स्टेडियम में बीजेपी अल्पसंख्यक मोर्चा की ओर से आयोजित पसमांदा सम्मेलन में मुख्तार अब्बास नकवी ने पहले तो केंद्र सरकार की योजनाओं के बारे में बताया और ये भी बताया कि योजना का लाभ कितने लोगों तक पहुंचा - और बातों बातों में नकवी ने जोर देकर ये भी समझाया कि सभी योजनाओं के लाभार्थियों में 22 से 35 फीसदी अल्पसंख्यक वर्ग के जरूरतमंद शामिल हैं. मुख्तार अब्बास नकवी ने ये भी समझाने की कोशिश की कि कैसे सरकारी योजनाओं से जरूरतमंद लोगों की आंखों में खुशी और जिंदगी में खुशहाली सुनिश्चित हुई है.
सवाल है कि क्या एमसीडी चुनाव में अगर मुस्लिम उम्मीदवार जीतने में कामयाब रहे तो बीजेपी आने वाले चुनावों में भी ये प्रयोग दोहराएगी? आने वाले चुनावों से भी आशय नगर निगम या स्थानीय निकाय चुनाव नहीं बल्कि विधानसभा और लोक सभा चुनाव हैं - सवाल ये भी है कि क्या बीजेपी ये सब विपक्षी दलों के नेताओं की गतिविधियों को काउंटर करने के लिए कर रही है? खासकर नीतीश कुमार और अरविंद केजरीवाल की 2024 के आम चुनाव की तैयारियों के मद्देनजर?
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