दलित समुदाय की नाराजगी झेल रही बीजेपी की मुश्किल खत्म होने की जगह बढ़ती ही जा रही है. आरक्षण को लेकर अमित शाह की सफाई और आश्वासन के बावजूद असर न होते देख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुद दखल देना पड़ा है.
यूपी के चार दलित सांसदों की चिट्ठी को 2019 के लिए चेतावनी के तौर पर लेते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को दिल्ली बुलाया - और डिप्टी सीएम केशव मौर्या की मौजूदगी में विस्तार से बात की. साथ ही, यूपी बीजेपी से डिटेल रिपोर्ट भी मांगी है. प्रधानमंत्री ने सांसदों द्वारा उठाये गये मसलों के लिए जल्द समाधान निकालने को कहा है.
कुछ कुछ सियासी भी है सांसदों की नाराजगी
हफ्ते भर से कुछ ज्यादा वक्त बीता होगा - और इस दौरान बीजेपी के ही चार सांसदों ने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिख कर दलितों का उत्पीड़न, उनके साथ भेदभाव और 2014 में किये गये वादे पूरे न करने का इल्जाम लगाया है. ये सांसद हैं - सावित्री बाई फूले, छोटेलाल खरवार, अशोक दोहरे और यशवंत सिंह. ये सभी यूपी से हैं और खास तौर पर मुख्यमंत्री योगी से खासे खफा हैं. रॉबर्ट्सगंज से सांसद खरवार का तो बड़ा आरोप है कि जब वो अपनी फरियाद लेकर योगी के पास पहुंचे तो मुख्यमंत्री ने डांट कर भगा दिया.
बगावत का बिगुल सबसे पहले बजाया बहराइच से सांसद सावित्री बाई फूले ने. फूले ने तो बहराइच से चल कर लखनऊ में संविधान और आरक्षण बचाओ रैली भी की.
सवाल ये उठता है कि क्या ये सब सिर्फ दलितों के हित के लिए हो रहा है? या फिर बगावत पर उतर आये इन सांसदों का अपना कुछ निजी स्वार्थ भी है?
गौर करने वाली बात है कि चारों पहली बार संसद पहुंचे हैं - और इनमें ज्यादातर बाहर से बीजेपी में आये हैं. मतलब ये कि मौका मिलते ही ये...
दलित समुदाय की नाराजगी झेल रही बीजेपी की मुश्किल खत्म होने की जगह बढ़ती ही जा रही है. आरक्षण को लेकर अमित शाह की सफाई और आश्वासन के बावजूद असर न होते देख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुद दखल देना पड़ा है.
यूपी के चार दलित सांसदों की चिट्ठी को 2019 के लिए चेतावनी के तौर पर लेते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को दिल्ली बुलाया - और डिप्टी सीएम केशव मौर्या की मौजूदगी में विस्तार से बात की. साथ ही, यूपी बीजेपी से डिटेल रिपोर्ट भी मांगी है. प्रधानमंत्री ने सांसदों द्वारा उठाये गये मसलों के लिए जल्द समाधान निकालने को कहा है.
कुछ कुछ सियासी भी है सांसदों की नाराजगी
हफ्ते भर से कुछ ज्यादा वक्त बीता होगा - और इस दौरान बीजेपी के ही चार सांसदों ने प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिख कर दलितों का उत्पीड़न, उनके साथ भेदभाव और 2014 में किये गये वादे पूरे न करने का इल्जाम लगाया है. ये सांसद हैं - सावित्री बाई फूले, छोटेलाल खरवार, अशोक दोहरे और यशवंत सिंह. ये सभी यूपी से हैं और खास तौर पर मुख्यमंत्री योगी से खासे खफा हैं. रॉबर्ट्सगंज से सांसद खरवार का तो बड़ा आरोप है कि जब वो अपनी फरियाद लेकर योगी के पास पहुंचे तो मुख्यमंत्री ने डांट कर भगा दिया.
बगावत का बिगुल सबसे पहले बजाया बहराइच से सांसद सावित्री बाई फूले ने. फूले ने तो बहराइच से चल कर लखनऊ में संविधान और आरक्षण बचाओ रैली भी की.
सवाल ये उठता है कि क्या ये सब सिर्फ दलितों के हित के लिए हो रहा है? या फिर बगावत पर उतर आये इन सांसदों का अपना कुछ निजी स्वार्थ भी है?
गौर करने वाली बात है कि चारों पहली बार संसद पहुंचे हैं - और इनमें ज्यादातर बाहर से बीजेपी में आये हैं. मतलब ये कि मौका मिलते ही ये बीजेपी में एंट्री लिये और टिकट पाकर मोदी लहर में लोक सभा चुनाव जीत लिये.
फूले कांशीराम की विचारधारा से प्रभावित होकर राजनीति में आयीं, लेकिन 2002 में बीजेपी में शामिल हो गयीं. फूले भगवाधारी तो हैं लेकिन अब उन पर नीले रंग का असर ज्यादा दिखायी दे रहा है. यहां तक कि लखनऊ में जो रैली उन्होंने की थी उसमें भी नीले रंग का ही दबदबा दिखा. मंच पर भी दीनदयाल उपाध्याय या फिर मोदी-शाह की तस्वीर की जगह कांशीराम की तस्वीर ही नजर आयी. बाकी तस्वीर अपने आप साफ हो जाती है, किसी इशारे की भी जरूरत नहीं लगती.
अशोक दोहरे और यशवंत सिंह दोनों ही बीजेपी सांसद, मायावती सरकार में मंत्री रह चुके हैं. बीएसपी ज्वाइन करने से पहले यशवंत सिंह राष्ट्रीय लोक दल में हुआ करते थे.
छोटेलाल खरवार ने प्रधानमंत्री को जो चिट्ठी लिखी है उसमें योगी के साथ साथ यूपी बीजेपी प्रभारी सुनील बंसल की भी शिकायत की है - पत्रकारों से बातचीत में कहते भी हैं कि बंसल को वो फूटी आंख नहीं सुहाते. खरवार की नाराजगी समझें तो दलित हित से ज्यादा उनके भाई को नौगढ़ के ब्लॉक प्रमुख पद से हटाये जाने को लेकर है. खरवार का कहना है कि उन्होंने राष्ट्रीय अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग से भी संपर्क कर अपनी शिकायतें दर्ज कराई हैं. एक दिलचस्प बात और - खरवार खुद बीजेपी के अनुसूचित जाति-जनजाति इकाई के प्रदेश अध्यक्ष हैं.
सांसदों की शिकायत में और भी लोचे लगते हैं. अगले चुनाव को लेकर इन्हें कम से कम दो बातों का डर है. एक, कहीं प्रधानमंत्री मोदी 2019 में इन्हें देख न लें यानी इनका टिकट न कट जाये - और दूसरा, टिकट मिल भी जाये तो जीत पाएंगे जरूरी नहीं है. दरअसल, मोदी लहर में तो पिछली बार ये जीत गये अब समाजवादी पार्टी और बीएसपी मिल कर चुनाव मैदान में उतर रहे हैं, ऐसे में उनकी हैसियत कितनी बचेगी. अगर बीजेपी ने इन्हें जीतने योग्य नहीं समझा तो टिकट तो मिलने से रहा. ऐसे में बेहतर तो यही है कि मौका मिले और मायावती मान जायें तो घर वापसी कर लेने में ही भलाई है. यही वजह है कि चारों सांसदों की बगावत का आधार कमजोर लगता है - चार साल चुपचाप मोदी-मोदी जपते रहे और अचानक जब 2019 नजदीक दिखा तो दलित हित की फिक्र होने लगी.
दलित समुदाय की नाराजगी
दलित समुदाय से विरोध की एक आवाज कानपुर से उठी है. गौर करने वाली बात है कि राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी कानपुर से ही आते हैं और दलित समुदाय से ही हैं. बीजेपी की मोदी सरकार ने उन्हें देश की सबसे बड़ी कुर्सी पर दलितों का दिल जीतने के मकसद से ही बिठाया है. कानपुर से भारतीय दलित पैंथर पार्टी के सदस्यों ने खून से खत लिख कर सरकार से अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट का ऑर्डर बदलने की मांग की है. खत में लिखा है, "महामहिम राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री जी भारत सरकार, अनु. जाति / जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 को संसद में अध्यादेश द्वारा कानून बनाकर पुनः पूर्व की स्थिति में उक्त अधिनियम को बहाल किया जाय."
देश सवा सौ करोड़ आबादी (प्रधानमंत्री मोदी के मुताबिक, वास्तव में अब तक 1,350,566,386 - रविवार, 8 अप्रैल, 2018, सयुंक्त राष्ट्र के अनुमान के अनुसार.) में 20.14 करोड़ दलित समुदाय से हैं, समझो - कुल आबादी का 16.60 फीसदी. कर्नाटक में जहां चुनावी गर्मी काफी तेज है वहां दलितों की आबादी 19 फीसदी है.
20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट में कुछ तब्दीली करते हुए एक ऑर्डर जारी किया था. राहुल गांधी के सलाहकारों को इसमें सियासी फायदा सूझा और फिर विरोध का फैसला हुआ. कोर्ट के फैसले का सीधा विरोध भारी पड़ता इसलिए केंद्र की मोदी सरकार को दलितों का पक्ष ठीक से न रखने के लिए जिम्मेदार बताते हुए दलित विरोधी समझाने की मुहिम शुरू हुई. मुहिम का असर भी हुआ. एनडीए के कई दलित सांसदों को भी बात समझ में फौरन आ गयी और हरकत में आ गये. रामविलास पासवान ने भी पुनर्विचार याचिका की वकालत की. भारत बंद के दौरान हिंसा और मारे गये दर्जन भर लोगों की दुहाई देते सरकार अदालत तो पहुंची लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्टे देने से मना कर दिया. हां, कोर्ट ने सभी पक्षों से जवाब दाखिल करने का हुक्म जरूर दिया और 10 दिन बाद सुनवाई की बात कही.
सिर पर कर्नाटक चुनाव. फिर राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव - और फिर 2019 का मैदान. दलित समुदाय की नाराजगी से बीजेपी बुरी तरह घबराई हुई है. तभी तो प्रधानमंत्री मोदी ने सांसदों को कम से कम दो रात उन गांवों में गुजराते का फरमान जारी किया है जहां दलित आबादी 50 फीसदी के आस पास है.
क्या यही वजह है कि आरक्षण पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं और बीजेपी की आधिकारिक लाइन अलग अलग हो चुकी है? संघ नेता आरक्षण की समीक्षा से लेकर खत्म करने तक की बातें करते हैं, लेकिन बीजेपी का कहना है कि न तो वो खुद खत्म होने देगी और न ही किसी को ऐसा करने देगी. अमित शाह के किसी को से आशय भले विपक्ष हो लेकिन इस पैमाने पर तो संघ भी अपने आप आ जाता है. तो आरक्षण को लेकर संघ और बीजेपी के रास्ते अलग अलग हो चुके हैं, मान कर चलना चाहिये.
प्रधानमंत्री मोदी ने खुद पहल कर दलित सांसदों की शिकायतें दूर करने के लिए आगे आये हैं. मुमकिन है वो सांसदों को मना भी लेंगे, लेकिन दलित समुदाय की नाराजगी कैसे दूर कर पाएंगे? क्या मोदी सरकार सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपना ऑर्डर रद्द न करने की स्थिति में कोई अध्यादेश लाएगी. ठीक वैसे ही जैसे किसी दौर में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने शाहबानो केस में किया था. बीजेपी तो ऐसे कदमों की कट्टर विरोधी रही है. अब क्या होगा?
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