21 अक्टूबर को हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव (Maharashtra Assembly Election) में भाजपा-शिवसेना के गठबंधन (BJP-Shiv Sena Alliance) ने कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन (Congress-NCP Alliance) को हरा दिया. हालांकि, इतने दिन बीत जाने के बावजूद भाजपा-शिवसेना का गठबंधन अपनी सरकार बनाने में नाकाम रहा है. इसकी वजह ये है कि कांग्रेस को धूल चटाने वाली भाजपा अपनी सहयोगी शिवसेना की वजह से बेबस होती जा रही है. चुनाव से पहले भाजपा ने सीट बंटवारे पर 50-50 का वादा किया था, लेकिन खुद अधिक सीटों पर लड़ी और शिवसेना को कम दीं. अब शिवसेना भी वही बाजी खेल रही है. शिवसेना की मांग है कि महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री पद ढाई साल फडणवीस संभालें, लेकिन उसके बाद बचे ढाई साल आदित्य ठाकरे सीएम की कुर्सी पर बैठेंगे. भाजपा को ये बिल्कुल रास नहीं आ रहा. फडणवीस तो साफ कह चुके हैं कि सीएम पद के साथ कोई समझौता नहीं होगा और वही 5 साल सीएम रहेंगे.
दिमाग पर थोड़ा जोर डालते हुए पिछले साल में जाइए, मई महीने में. 15 मई 2018, कर्नाटक चुनाव की मतगणना का दिन. भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, लेकिन बहुमत नहीं जुटा पाई. जेडीएस ने कांग्रेस को समर्थन कर दिया और बदले में सीएम की कुर्सी मांग ली. कांग्रेस ने भाजपा को हराने के मकसद से जेडीएस की सारी मांगें मान भी लीं, लेकिन 15 महीने बाद ही वो सरकार गिर गई और आज कर्नाटक में भाजपा की सरकार है. इन 15 महीनों में भी सियासी नाटक चलता रहा. जेडीएस भले ही कांग्रेस के साथ थी और सीएम पद भी उसे मिल गया था, लेकिन दोनों में खटपट लगी रही. कई बार तो कुमारस्वामी रो भी दिए. अब ऐसा लग रहा है कि महाराष्ट्र की हालत भी कर्नाटक जैसी हो गई है और महाराष्ट्र को कर्नाटक बनाने के लिए जिम्मेदारी भाजपा को ही लेनी चाहिए. जिस तरह कर्नाटक में सब कुछ जानते-समझते हुए भी कांग्रेस ने विरोधी जेडीएस से हाथ मिलाया था, कुछ-कुछ उसी तरह महाराष्ट्र में भाजपा ने शिवसेना से गठबंधन किया है.
फडणवीस सबसे कह रहे हैं कि वही मुख्यमंत्री होंगे और शिवसेना 50-50 फॉर्मूले के बिना आगे बढ़ने के तैयार ही नहीं है.
शिवसेना के समर्थन बिना फडणवीस मुख्यमंत्री कैसे बनेंगे?
महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा का गठबंधन (BJP-Shiv Sena Alliance) किसी मजबूरी से कम नहीं है. शिवसेना की हिंदूवादी छवि होने के चलते वह एनसीपी और कांग्रेस जैसी सेकुलर पार्टियों से गठबंधन की सोच नहीं सकती. घूम-फिर कर शिवसेना के पास भाजपा ही आखिरी रास्ता बचा. लेकिन शिवसेना ये भी समझ रही है कि वह एक मजबूत स्थिति में है या यूं कहें कि भाजपा पहले से कमजोर हो गई है. ऐसे में शिवसेना की कोशिश है कि भाजपा पर दबाव बनाकर 50-50 फॉर्मूले पर अमल करवा लिया जाए. खैर, फडणवीस की मानें तो वह 5 साल सीएम रहेंगे, आदित्य ठाकरे को कुर्सी पर नहीं बैठने देंगे. वह तो यहां-वहां कहते भी नजर आ रहे हैं कि सीएम वही बनेंगे और वो भी पूरे कार्यकाल के लिए, जबकि गठबंधन में होने के बावजूद शिवसेना का समर्थन अभी अधर में है.
कर्नाटक में भी येदियुरप्पा चुनाव नतीजे आने के बाद से ही खुद को सीएम बता रहे थे, सीएम पद की शपथ तक ले ली थी, लेकिन बहुमत साबित नहीं कर सके और इस्तीफा देना पड़ा. फडणवीस भी अभी अतिउत्साहित दिख रहे हैं, जबकि जिस शिवसेना के दम पर सत्ता उनके हाथ आनी है, वह 50-50 फॉर्मूले के बिना साथ आने को तैयार ही नहीं है. यहां तक कि संजय राउत ये भी बोल चुके हैं कि शिवसेना की हरियाणा जैसी कोई मजबूरी नहीं है, शिवसेना में किसी के पिता जेल में नहीं है. आपको बता दें कि उनका इशारा दुष्यंत चौटाला की ओर है, जिनकी जेजेपी की 10 सीटों ने हरियाणा में भाजपा को मजबूत बनाने का काम किया है. वह कहते हैं जब हरियाणा में हो सकता है तो महाराष्ट्र में क्यों नहीं? यानी वह ये कहकर भाजपा को डरा रहे हैं कि अगर शिवसेना की मांगें नहीं मानी गईं तो वह भाजपा का साथ छोड़ सकते हैं और कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन को समर्थन दे सकते हैं.
शिवसेना का खराब रिकॉर्ड, फिर क्यों किया गठबंधन?
पिछले कार्यकाल को ही याद करें तो एक-दो नहीं बल्कि कई ऐसे वाकये मिलेंगे, जब शिवसेना ने सत्ता का हिस्सा होने के बावजूद भाजपा के खिलाफ बयानबाजी की थी. 2014 के चुनाव में भाजपा और शिवसेना अलग-अलग लड़े थे तब भाजपा को 122 सीटों पर विजय मिली थी, जबकि शिवसेना 63 सीटों पर जीती थी. इस बार दोनों ने गठबंधन (BJP-Shiv Sena Alliance) क्या किया, दोनों की ही सीटें गिर गईं. भाजपा को 105 सीटें मिलीं, जबकि शिवसेना को 56 सीटें. भाजपा की सीटें गिरने की सबसे बड़ी वजह शिवसेना के साथ गठबंधन ही है, जो लोगों को पसंद नहीं आया.
पिछली बार भाजपा ने शिवसेना के साथ मिलकर सरकार तो बना ली, लेकिन पूरे टाइम शिवसेना की ओर से विरोधी बातें होती रहीं. देखा जाए तो शिवसेना ने महाराष्ट्र की राजनीति में विभीषण की भूमिका निभाई है, लेकिन भाजपा ने फिर से उसके साथ गठबंधन कर लिया. अगर किसी पार्टी के साथ गठबंधन के बाद वो गले की फांस बन जाए तो भाजपा का स्टाइल उसे हटाते हुए अकेले चुनाव लड़ने का रहा है, लेकिन न जाने किस दबाव में भाजपा ने शिवसेना के साथ गठबंधन कर लिया. इस गठबंधन का खामियाजा भी भाजपा को भुगतना पड़ा और सीटों में तगड़ी गिरावट दर्ज की गई. यहां सबसे बड़ा सवाल ये है कि जब शिवसेना पहले ही भाजपा के लिए मुसीबत का सबब बनी हुई थी तो फिर उसके साथ गठबंधन किया ही क्यों?
चुनाव नतीजे आने के बाद से शिवसेना हमलावर है
एक तरफ 24 अक्टूबर को महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव (Maharashtra Assembly Election) के नतीजे आए, दूसरी तरफ शिवसेना ने अपनी मांगों की लिस्ट बना ली. नतीजे देखकर ये तो साफ हो गया था कि जिस भाजपा ने पहली बार शिवसेना को पीछे करते हुए बड़े भाई की भूमिका निभाई और अधिक सीटों पर चुनाव लड़ा, उसे चुनाव में तगड़ा झटका लगा है. वैसे झटका तो शिवसेना को भी लगा, लेकिन ठाकरे को भाजपा की मजबूरी दिख रही है और इसी वजह से वह अपनी मांगें लेकर मजबूती से खड़े हो गए हैं. भाजपा कितनी मजबूर है इस बात का अंदाजा इससे भी लगा सकते हैं कि नतीजे आने के बाद से ही शिवसेना मोदी सरकार पर हमलावर है. शिवसेना की ओर से सामना में एक संपादकीय लिखा है और 'इतना सन्नाटा क्यों है भाई?' डायलॉग के जरिए देश की आर्थिक सुस्ती की बात करते हुए केंद्र सरकार पर निशाना साधा. अभी भाजपा को मिला ये जख्म भरा भी नहीं था कि शिवसेना ने एक और तीर छोड़ दिया. हाल ही में कश्मीर के दौरे पर आए यूरोपियन सांसदों के दल को लेकर हमला बोल दिया. शिवसेना ने कहा कि 'अगर कश्मीर में सब कुछ ठीक है तो इनको लाने का क्या मकसद?' देखा जाए तो भाजपा का शिवसेना से गठबंधन ठीक वैसा है जैसे कोई शख्स बोले- 'आ बैल मुझे मार.'
कब तक चलेगा ये सियासी नाटक?
कर्नाटक की राजनीति में सरकार बनने से पहले एक सियासी नाटक शुरू हुआ था, जो सरकार बनने के बाद भी बदस्तूर जारी रहा. तब तक जारी रहा, जब तक जेडीएस-कांग्रेस के गठबंधन की कुमारस्वामी सरकार गिर नहीं गई. तो क्या कर्नाटक की तरह ही महाराष्ट्र में भी आने वालों साले में सिर्फ सियासी नाटक की देखने को मिलेगा? वैसे देखा जाए तो पिछले कार्यकाल में भी ये नाटक तो चला ही, बस इसकी फ्रीक्वेंसी थोड़ी कम रही. इस बार भी शिवसेना अपनी फितरत के मुताबिक भाजपा के खिलाफ बातें कर रही है, बयान दे रही है, लेकिन सरकार बनने से पहले ही ये सब शुरू हो गया है. यानी इस बात की आशंकाएं काफी अधिक हैं कि भाजपा-शिवसेना के गठबंधन की सरकार बनने के बाद भी सियासी नाटक चलता रहे.
सरकार बन भी गई तो भी दरार रहेगी
पिछले पूरे कार्यकाल में शिवसेना ने भाजपा के विरोध में बयानबाजी की. इस बार तो सरकार बनने से पहले ही बयान देने शुरू कर दिए हैं. शिवसेना हमेशा ही दबाव की राजनीति करती रही है. अभी भी वह भाजपा पर दबाव ही डाल रही है कि आदित्य ठाकरे को आधे समय के लिए सीएम की कुर्सी पर बैठाया जाए. शिवसेना की कोशिश है कि भाजपा की मजूबरी का फायदा उठाते हुए जितना अधिक हो सके उतना ले लिया जाए. खैर, शिवसेना के बर्ताव में बदलाव जरूर दिखा था, लेकिन वो क्षणिक था. फिर से शिवसेना अपने रवैये पर आ गई है. ऐसे में अगर भाजपा और शिवसेना के गठबंधन की सरकार बन भी जाती है तो एक तो शिवसेना अपनी दबाव की राजनीति जारी रखेगी और दूसरा इस गठबंधन के भीतर की दरार हमेशा दिखाई देगी.
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