25/26 जून 1975 को सुबह सुबह जब मेरी नींद खुली तो तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी आपातकाल लगा चुकी थीं. सफारी सूट में दो सीआईडी ऑफिसरों ने मेरे घर की घंटी बजाई. अपनी आईडी दिखाने के बाद, उन्होंने मेरे हैरान माता-पिता से कहा कि वे मुझसे पूछताछ करने आए हैं. मैं अभी तक स्टूडेंट ही था लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया और न्यूयॉर्क के India Abroad सहित कई अन्य अखबारों के लिए मैंने लेख लिखना शुरू कर दिया था. शायद मेरा कोई एक लेख सरकार की आंखों में चुभ गया होगा.
मैंने ठीक से आंखे भी न खोली थी. उनींदी आंखों से ही मैंने उन दोनों सीआईडी अधिकारियों को समझाया कि वे यहां अपना समय बर्बाद कर रहे हैं. उन्होंने मुझे बताया कि मेरे आर्टिकल के बारे में उन्हें एक जानकारी मिली है. और भविष्य में मैं क्या लिखूंगा इसके लिए मुझे सावधान रहने के लिए कहा. "लोगों को आपातकाल के खिलाफ लिखने पर जेल भेजा जा रहा है," जाते जाते उन्होंने मुझे ये चेतावनी भी दी.
1,00,000 से अधिक लोगों को जेल भेजा जा चुका था. उनमें अटल बिहारी वाजपेयी, जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी और युवा अरुण जेटली भी शामिल थे. जेल जाने वालों में आज के प्रमुख विपक्षी नेता एचडी देवेगौड़ा, लालू प्रसाद यादव और एमके स्टालिन भी थे.
आज कई लोग आपातकाल का 1970 के समय की राजनीतिक अशांति को देखते हुए एक स्वाभाविक परिणति के रुप में समर्थन करते हैं. उस समय कई छात्रों ने पत्रकारिता, सामाजिक और सार्वजनिक क्षेत्रों को अपने करियर के रुप में चुना. ताकि वे उन लोकतंत्र विरोधी ताकतों से लड़ सकें जिन्होंने आपातकाल जैसी क्रूरता को लागू किया.
यह स्वतंत्रता के सिर्फ 28 साल बाद भारत के इस छोटे से इतिहास में एक निर्णायक क्षण था. आपातकाल घोषित होने के कुछ महीने बाद ही...
25/26 जून 1975 को सुबह सुबह जब मेरी नींद खुली तो तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी आपातकाल लगा चुकी थीं. सफारी सूट में दो सीआईडी ऑफिसरों ने मेरे घर की घंटी बजाई. अपनी आईडी दिखाने के बाद, उन्होंने मेरे हैरान माता-पिता से कहा कि वे मुझसे पूछताछ करने आए हैं. मैं अभी तक स्टूडेंट ही था लेकिन टाइम्स ऑफ इंडिया और न्यूयॉर्क के India Abroad सहित कई अन्य अखबारों के लिए मैंने लेख लिखना शुरू कर दिया था. शायद मेरा कोई एक लेख सरकार की आंखों में चुभ गया होगा.
मैंने ठीक से आंखे भी न खोली थी. उनींदी आंखों से ही मैंने उन दोनों सीआईडी अधिकारियों को समझाया कि वे यहां अपना समय बर्बाद कर रहे हैं. उन्होंने मुझे बताया कि मेरे आर्टिकल के बारे में उन्हें एक जानकारी मिली है. और भविष्य में मैं क्या लिखूंगा इसके लिए मुझे सावधान रहने के लिए कहा. "लोगों को आपातकाल के खिलाफ लिखने पर जेल भेजा जा रहा है," जाते जाते उन्होंने मुझे ये चेतावनी भी दी.
1,00,000 से अधिक लोगों को जेल भेजा जा चुका था. उनमें अटल बिहारी वाजपेयी, जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी और युवा अरुण जेटली भी शामिल थे. जेल जाने वालों में आज के प्रमुख विपक्षी नेता एचडी देवेगौड़ा, लालू प्रसाद यादव और एमके स्टालिन भी थे.
आज कई लोग आपातकाल का 1970 के समय की राजनीतिक अशांति को देखते हुए एक स्वाभाविक परिणति के रुप में समर्थन करते हैं. उस समय कई छात्रों ने पत्रकारिता, सामाजिक और सार्वजनिक क्षेत्रों को अपने करियर के रुप में चुना. ताकि वे उन लोकतंत्र विरोधी ताकतों से लड़ सकें जिन्होंने आपातकाल जैसी क्रूरता को लागू किया.
यह स्वतंत्रता के सिर्फ 28 साल बाद भारत के इस छोटे से इतिहास में एक निर्णायक क्षण था. आपातकाल घोषित होने के कुछ महीने बाद ही इंडिया टुडे लॉन्च हुआ था. जो लोग आज के ध्रुवीकृत समय में और आपातकाल की समानता देखते हैं, उनके लिए वास्तविकता की जांच आवश्यक है. आपातकाल के दौरान, संविधान निलंबित कर दिया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने ही बस कॉर्पस के आधार पर जनता की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को भी खत्म कर दिया था.
आपातकाल कितना कठोर था, यह समझाने के लिए, द हिंदू ने अगस्त 2017 में यह लिखा था:
"सुप्रीम कोर्ट द्वारा जब आपातकाल के समय दौरान नागरिकों के जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को खत्म करने के 40 साल बाद, नौ न्यायाधीशों की बेंच ने एडीएम जबलपुर मामले में इस निर्णय की निंदा की. इसे हिबस कॉर्पस मामले के रूप में जाना जाता है. उस बेंच ने आपातकाल के समय कोर्ट के उस निर्णय को एक 'गंभीर गलती' कहा. उस बेंच के पांच न्यायाधीशों में से सिर्फ न्यायमूर्ति एच आर खन्ना ने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एएन रे और जस्टिस एमएच बेग, वाईवी चंद्रचुड़ और पीएन भगवती से अपनी असहमति जाहिर की थी. न्यायमूर्ति खन्ना को अपने इस विरोध की कीमत चीफ जस्टिस के पद को गंवाकर चुकानी पड़ी. उनकी जगह न्यायमूर्ति बेग को जगह दी गई, जिसके बाद न्यायमूर्ति खन्ना ने इस्तीफा दे दिया. अब, सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली बार, भारत के मुख्य न्यायाधीश जेएस खेहर के नेतृत्व में नौ न्यायाधीशों की बेंच ने आधिकारिक तौर पर हिबस कॉर्पस मामले में सुप्रीम कोर्ट के बहुमत की राय की आलोचना की. न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचुड़ ने फैसला लिखा. संयोग ये है कि डीवाई चंद्रचुड़ आपालकाल के समय नागरिकों के अधिकार को खत्म करने वाले न्यायमूर्ति वाईवी चंद्रचुड़ के बेटे हैं. डीवाई चंद्रचुड़ ने 1976 के फैसले को खारिज कर दिया."
जो लोग आपातकाल की तुलना आज की असहिष्णुता करते हैं वे या तो अज्ञानी या फिर पक्षपात से पीडि़त हैं. पत्रकार और एक्टिविस्ट रोजाना प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का मज़ाक उड़ाते हैं. गौरक्षा, लिंचिंग और अन्य अपराधों की कहानियों से वेबसाइट भरी पड़ी हैं. और इसके लिए वे मोदी सरकार की नीतियों को जिम्मेदार ठहराते हैं.
और यही होना भी चाहिए: लोकतंत्र में स्वतंत्र मीडिया को ऐसे ही काम करना चाहिए.
इमरजेंसी के दौरान बोलने की आजादी को कुचल दिया गया था. लेकिन ये मजबूत तो कभी नहीं रही. मोदी सरकार दलितों, मुस्लिमों और अन्य लोगों के खिलाफ हुई गंभीर हिंसा की कई घटनाओं की निंदा करने में थोड़ी धीमी रही है. इनमें से कुछ खबरें फेक थीं. कुछ नहीं. ज्यादातर मामलों में सरकार ने चुप्पी साधे रही. और अपने बेतुके बयानों से सफाई देने की जिम्मेदारी बीजेपी सांसद और विधायकों ने निभाई.
इतने के बाद भी ये कहना गलत होगा कि चीजें हाथ से निकल गईं हैं और हम एक निरंकुश सरकार के अधीन रह रहे हैं. हां ये जरुर है कि 2018 में सरकार की संवेदनशीलता को लेकर मापदंड उंचे रखे जाने चाहिए.
1975-77 तक, आपातकाल के समय कभी भी गैर-कांग्रेस सरकार नहीं रही थी. 1947 और 1977 के बीच 30 वर्षों में, जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी ने ही मिलकर 28 साल तक प्रधान मंत्री पद संभाला था. भारत में सार्थक विपक्ष नहीं था. केरल ही एकमात्र राज्य था जहां कम्युनिस्टों का शासन था. यहां की सरकार को भी 1959 में बर्खास्त कर दिया गया था और राष्ट्रपति शासन लागू किया गया था. (तब श्रीमती गांधी कांग्रेस अध्यक्ष थी- नेहरू ने राजवंश राजनीति के बीज बोए थे.)
मोदी सरकार 43 साल पहले भारतीय लोकतंत्र को तोड़ने वाले आपातकाल से क्या सीख सकती है? आइए, जानते हैं :
पहली बात तो ये कि आज के समय में हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था और संस्थान बहुत मजबूत हैं. ऐसे में ये व्यवस्था और समाज अब इमरजेंसी लगने देगी ये मानना मुश्किल है. अब उन्हें कमजोर करने के बजाए मजबूत करना चाहिए. एक उच्च मापदंड ये मांग करता है कि शासन को और अधिक पारदर्शी होना चाहिए. लोकपाल और सीआईसी की नियुक्ति को लंबे समय से लंबित रखा गया है. इससे सरकार की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचा है, इसके इरादे पर संदेह बढ़ा है, और लोकतंत्र के संस्थानों को कमजोर किया है.
दूसरा, न्यायपालिका को थोड़ा ज्यादा पारदर्शी होना चाहिए. आज ये सरकार के साथ मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर (एमओपी) पर सरकार के साथ उलझी हुई है. जब लोकतंत्र के दो महत्वपूर्ण घटकों कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच ही खींचतान हो तो लोकतंत्र कमजोर होता है.
तीसरा, प्राथमिकता समावेशी शासन होना चाहिए. वोटों के लिए ध्रुवीकरण लंबे समय से कांग्रेस का तरीका रही है. 1980 के दशक में उसने इस आइडिया को अपनाया. और उसके बाद क्षेत्रीय दलों ने इसका अनुसरण किया. बीजेपी ने कांग्रेस से ही सीखा है.
1990 से लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्राओं (जिनमें से कई को खुद युवा नरेंद्र मोदी ने संचालित किया था) ने बड़ी संख्या में हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण किया. इसके फलस्वरुप 1999 में बीजेपी ने अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई में देश में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी.
चूंकि भारत अब अधिक समृद्ध हो गया है, और अब गरीबी का स्तर भी गिरा है. ऐसे में धार्मिक ध्रुवीकरण से भी ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा. आज के बच्चों की महत्वाकांक्षाएं अपने माता-पिता से बिल्कुल अलग है. वे नौकरियां चाहते हैं. वे धार्मिक हैं लेकिन विनाशकारी नहीं हैं. बीजेपी को अब खुद को फिर से गढ़ना होगा. वरना जल्दी ही वो बूढ़े लोगों की ऐसी टीम बनकर रह जाएगी जिसके पास सिर्फ शिकायतें होंगी और जो दुखों से घिरी होगी.
आरएसएस को भी सुधार करना होगा. भारत के अतीत का गुणगान करना ठीक है. लेकिन हम वर्तमान में जी रहे हैं और हमें भविष्य को खुद के अनुसार ढालना चाहिए. 1975-77 में आपातकाल इसलिए लागू हुआ क्योंकि इंदिरा गांधी के राजवंश के अहंकार ने लोकतंत्र का अपहरण कर लिया था. देवकांत बरूआ जैसे चाटुकारों ने, जो उस समय पार्टी अध्यक्ष थे, ने घोषित कर डाला था कि "भारत इंदिरा है, इंदिरा भारत है". मोदी को अपने आसपास से इस तरह की चापलूसी को हटाना चाहिए. उन्होंने खुद को प्रधान सेवक घोषित किया है. अगर उन्हें दूसरा कार्यकाल मिलता है तो वह अगले दशक के लिए भारत की तस्वीर तैयार करें.
आपातकाल की 43वीं वर्षगांठ को सिर्फ कांग्रेस पर राजनीतिक बढ़त हासिल करने के अवसर के रुप में नहीं देखना चाहिए. बल्कि ये साबित करना चाहिए कि कैसे बीजेपी सरकार अपने पहले सिद्धांतों पर लौट सकती है: मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिम गवर्नेंस.
ये भी पढ़ें-
इतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल हो आपातकाल
2014 के नारे 'जुमले' थे 2019 में बीजेपी इसे कैसे झुठलाएगी
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.