कोरोना वायरस के चलते देश में लागू लॉकडाउन से बाद से केंद्र की मोदी सरकार पर हमला बोलने वालों में पहले नंबर पर राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और दूसरे नंबर पर ममता बनर्जी रही हैं. दिल्ली दंगों से लेकर अर्थव्यवस्था और चीन सीमा विवाद को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ आक्रामक रूख तो सोनिया गांधी का भी रहा है - और राजस्थान की राजनीति के बहाने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का भी, लेकिन बीजेपी नेतृत्व लगता है जैसे अलग ही रणनीति पर काम कर रहा हो.
राहुल गांधी के हमले भी बीजेपी के लिए रूटीन पॉलिटिक्स का हिस्सा हो चुके हैं - और बिहार चुनाव के चलते ममता बनर्जी भी होल्ड पर रखी गयी हैं. राहुल गांधी के लिए कभी युवराज और फिर पप्पू जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने वाले बीजेपी नेता अब उनको 'लूजर' तक बताने लगे हैं. बीच बीच में कभी वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण तो कभी विदेश मंत्री एस. जयशंकर अपनी ट्वीट सीरीज के जरिये राहुल गांधी घेरते भी रहते हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर से धारा 370 खत्म कर देने और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन के बाद बीजेपी कांग्रेस के विरोध को खास मौकों पर छोड़ कर एक झटके में खारिज कर आगे बढ़ जाती है. मोदी लहर की कामयाबी ने बीजेपी को इस कदर आत्मविश्वास से भर दिया है कि वो राहुल गांधी को नजरअंदाज करने जैसे भाव पेश करने लगी है.
फिलहाल बीजेपी की जो रणनीति देखने को मिल रही है उसमें राहुल गांधी के बाद और ममता बनर्जी से पहले देश के दो युवा नेता पार्टी के निशाने पर सबसे आगे देखे जा सकते हैं - तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) और आदित्य ठाकरे (Aditya Thackeray). तेजस्वी यादव बिहार में विपक्ष के नेता हैं और आदित्य ठाकरे महाराष्ट्र सरकार में कैबिनेट मंत्री.
बीजेपी के निशाने पर हैं तेजस्वी और आदित्य ठाकरे
बिहार में भले ही लगता हो कि बीजेपी चुनावी तैयारियों में जुटी हुई है, लेकिन असलियत तो ये है कि भविष्य की राजनीति को ध्यान में रख कर बनायी गयी रणनीति पर काम हो रहा है. 2019 के आम चुनाव को छोड़ दें तो उसके बाद से अब...
कोरोना वायरस के चलते देश में लागू लॉकडाउन से बाद से केंद्र की मोदी सरकार पर हमला बोलने वालों में पहले नंबर पर राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और दूसरे नंबर पर ममता बनर्जी रही हैं. दिल्ली दंगों से लेकर अर्थव्यवस्था और चीन सीमा विवाद को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ आक्रामक रूख तो सोनिया गांधी का भी रहा है - और राजस्थान की राजनीति के बहाने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का भी, लेकिन बीजेपी नेतृत्व लगता है जैसे अलग ही रणनीति पर काम कर रहा हो.
राहुल गांधी के हमले भी बीजेपी के लिए रूटीन पॉलिटिक्स का हिस्सा हो चुके हैं - और बिहार चुनाव के चलते ममता बनर्जी भी होल्ड पर रखी गयी हैं. राहुल गांधी के लिए कभी युवराज और फिर पप्पू जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने वाले बीजेपी नेता अब उनको 'लूजर' तक बताने लगे हैं. बीच बीच में कभी वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण तो कभी विदेश मंत्री एस. जयशंकर अपनी ट्वीट सीरीज के जरिये राहुल गांधी घेरते भी रहते हैं, लेकिन जम्मू-कश्मीर से धारा 370 खत्म कर देने और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन के बाद बीजेपी कांग्रेस के विरोध को खास मौकों पर छोड़ कर एक झटके में खारिज कर आगे बढ़ जाती है. मोदी लहर की कामयाबी ने बीजेपी को इस कदर आत्मविश्वास से भर दिया है कि वो राहुल गांधी को नजरअंदाज करने जैसे भाव पेश करने लगी है.
फिलहाल बीजेपी की जो रणनीति देखने को मिल रही है उसमें राहुल गांधी के बाद और ममता बनर्जी से पहले देश के दो युवा नेता पार्टी के निशाने पर सबसे आगे देखे जा सकते हैं - तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) और आदित्य ठाकरे (Aditya Thackeray). तेजस्वी यादव बिहार में विपक्ष के नेता हैं और आदित्य ठाकरे महाराष्ट्र सरकार में कैबिनेट मंत्री.
बीजेपी के निशाने पर हैं तेजस्वी और आदित्य ठाकरे
बिहार में भले ही लगता हो कि बीजेपी चुनावी तैयारियों में जुटी हुई है, लेकिन असलियत तो ये है कि भविष्य की राजनीति को ध्यान में रख कर बनायी गयी रणनीति पर काम हो रहा है. 2019 के आम चुनाव को छोड़ दें तो उसके बाद से अब तक जितने भी विधानसभा चुनाव हुए हैं बीजेपी के लिए बुरे अनुभव ही साबित हुए हैं. भले ही महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावी नतीजे एक जैसे और झारखंड-दिल्ली के अलग रहे हों लेकिन बीजेपी के लिए तो सारे ही निराशाजनकर रहे हैं. ले देकर हरियाणा में गठबंधन करने से बीजेपी की सरकार जरूर बन गयी, लेकिन महाराष्ट्र और झारखंड के साथ साथ दिल्ली भी हाथ से फिसल ही गयी. मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के जरिये बीजेपी को थोड़ी राहत तो मिली लेकिन राजस्थान अपनी ही अंदरूनी गुटबाजी ने मन मसोस कर रहने पर मजबूर कर दिया.
बिहार और महाराष्ट्र में बीजेपी को कुछ ऐसे साथी मिल गये हैं जिनकी मदद से पार्टी भविष्य के कांटे साफ कर लेना चाहती है. बिहार में नीतीश कुमार और महाराष्ट्र में नारायण राणे और उनके बेटे नितेश राणे - ये सभी अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए बीजेपी की मदद में पूरी ताकत झोंक रहे हैं.
महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे के गठबंधन तोड़ कर दुश्मन के गले जा लगने को अमित शाह कैसे बर्दाश्त कर रहे होंगे वही जानते हैं. ये तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रहे जो उद्धव ठाकरे के फोन करने पर उनकी कुर्सी बचाने में मददगार बने और राजनीतिक बनने के बाद भी एहसान ही किया है. एक वजह ये भी हो सकता है कि बीजेपी उद्धव ठाकरे को टारगेट करने की बजाये राजनीतिक तौर पर ऐसे इंतजाम करती जा रही है जिसका असर तो सीधा मातोश्री पर पड़े, लेकिन ठाकरे परिवार को मोदी-शाह पर उंगली उठाने का मौका तक न मिले.
मातोश्री की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी तो आदित्य ठाकरे पर ही है. आखिर इसीलिए तो वो मातोश्री से निकल कर कोई भी चुनाव लड़ने वाले ठाकरे परिवार के पहले सदस्य बन पाये हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद उद्धव ठाकरे ने आदित्य ठाकरे को भी कैबिनेट साथी बना लिया - ऐसा करके उद्धव ठाकरे ने बड़ी गलती ये कर दी कि बेटे को राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर ला दिया.
देखते ही देखते आदित्य ठाकरे भी राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की तरह बीजेपी के निशाने पर आ गये हैं. बिहार चुनाव का प्रभारी बनाये जाने से पहले भी महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री को नहीं बल्कि मातोश्री को टारगेट करने का जिम्मा बीजेपी ने नारायण राणे को दे डाला है. वैसे भी बीजेपी-शिवसेना गठबंधन काल में नारायण राणे को बीजेपी में जगह बनाने में उद्धव ठाकरे की तरफ से बार बार आपत्ति जतायी जाती रही - और अब उसी स्वाभाविक दुश्मनी का फायदा बीजेपी को बड़े आराम से मिल रहा है. कांग्रेस के बाद बीजेपी में आने से पहले बरसों तक नारायण राणे शिवसैनिक ही रहे हैं और मातोश्री और आस पास के राजनीतिक माहौल के रग रग से पूरी तरह वाकिफ हैं. शिवसेना ने ही नारायण राणे को मुख्यमंत्री भी बनाया था.
नारायण राणे जहां सुशांत सिंह राजपूत केस को हत्या का मामला बोल कर बीजेपी के राजनीतिक विरोधियों को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं, तो उनके बेटे नितेश राणे 'बेबी पेंग्विन' नाम से जगह जगह आदित्य ठाकरे को टारगेट कर रहे हैं. नितेश राणे बीच बीच में अपने खिलाफ चली जांच पड़ताल का भी हवाला देते रहते हैं - उनके ट्वीट देखकर लगता है जैसे भड़ास निकालने के मौके का फायदा उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ने वाले.
महाराष्ट्र की तरह ही बिहार में भी बीजेपी के पास नीतीश कुमार के रूप में ऐसा हथियार मिला है जो तेजस्वी की राजनीति के साथ साथ आरजेडी को भी खत्म करने में जुटा हुआ है. अब तक नीतीश कुमार, लालू यादव के समधी चंद्रिका राय सहित आरजेडी के दर्जन भर नेताओं को जेडीयू में शामिल करा चुके हैं. पुराने साथी जीतनराम माझी भी महागठबंधन का साथ छोड़ कर नीतीश कुमार की तरफ ही बढ़ने लगे हैं.
लालू प्रसाद के वारिस तेजस्वी यादव के खिलाफ नीतीश कुमार को चंद्रिका राय की बेटी ऐश्वर्या की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के बहाने घेरने का मौका मिल गया है. ऐश्वर्या का लालू यादव के बेटे तेज प्रताप से तलाक का मुकदमा चल रहा है. जैसे नीतीश कुमार, लालू यादव के रिश्तेदारों का उनके खिलाफ राजनीतिक इस्तेमाल कर रहे हैं, बीजेपी वैसे ही जेडीयू नेता का उपयोग कर रही है.
बीजेपी भविष्य देख रही है. अभी तक बीजेपी के पास ऐसा कोई भी नेता नहीं है जो नीतीश कुमार का विकल्प हो और आरजेडी को चैलेंज कर सके, लिहाजा बीजेपी पहले से ही नीतीश कुमार को एनडीए के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुकी है. नीतीश कुमार की जीत सुनिश्चित करने के लिए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह कभी डिजिटल रैली कर रहे हैं तो कभी कोरोना संकट से उबारने के लिए केंद्र की एक्सपर्ट टीम भेज दे रहे हैं.
सुशांत सिंह राजपूत केस को भी सबसे पहले उठाया तो तेजस्वी यादव ने ही, लेकिन अब तो पूरा श्रेय नीतीश कुमार और बीजेपी आपस में शेयर कर रहे हैं. नीतीश कुमार की बदौलत ही बीजेपी को बिहार में जमीन मजबूत करने के साथ साथ महाराष्ट्र में भी राजनीतिक फायदा उठाने का मौका आसानी से मिल जा रहा है.
नीतीश कुमार को लेकर भी राय यही बन रही है कि वो बतौर मुख्यमंत्री राजनीति की आखिरी पारी खेल रहे हैं. अगर नीतीश कुमार की वजह से आने वाले चुनाव में आरजेडी का सफाया हो जाता है तो आगे से बीजेपी को न तो लालू परिवार को टारगेट करने की जरूरत पड़ेगी और न ही लोगों को जंगलराज की याद दिलाने की - ऐसे ही तिकड़मों की बदौलत बीजेपी बिहार में अपना भविष्य उज्ज्वल मान कर चल रही है. ये बात अलग है कि ये सब विधानसभा चुनाव के नतीजों पर ही निर्भर करता है और सोचा हुआ काम हो ही, जरूरी तो नहीं है.
निशाने पर तो कई और भी हैं
बीजेपी के सियासी विस्तार के सफर में अगला पड़ाव तो पश्चिम बंगाल है, लेकिन और भी कई इलाके ऐसे हैं जो उसकी नजर में चढ़े हुए हैं. पारिवारिक राजनीति की बदौलत यूपी में मुख्यमंत्री बने अखिलेश यादव को तो बीजेपी ने 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले से ही डैमेज करने की रणनीति बना डाली थी. राहुल गांधी को साथ लेकर चुनाव लड़ने निकले अखिलेश यादव को सत्ता से बेदखल करने के बाद बीजेपी ने 2019 में गठबंधन करने के बाद भी लोक सभा की पांच सीटों तक रोक कर रखा - और फिर पार्टी की आंख की किरकिरी बना मायावती के साथ गठबंधन भी टूट गया. अब तो मायावती भी लगता है बीजेपी के सपोर्ट में ही खड़ी नजर आती है, तभी तो कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा बीएसपी नेता को बीजेपी का अघोषित प्रवक्ता तक बताने लगी हैं.
ममता बनर्जी की ही तरह बीजेपी की नजर ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की तरफ भी लगी हुई है. हालांकि, ममता बनर्जी से अलग नवीन पटनायक भी आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी और तेलंगाना के सीएम के. चंद्रशेखर राव एनडीए से बाहर होते हुए भी सहयोगी जैसे व्यवहार करते देखे गये हैं. कुछ मीडिया रिपोर्ट से मालूम होता है कि बीजेडी से बगावत कर आम चुनाव से पहले बीजेपी ज्वाइन करने वाले बैजयंत पांडा को पार्टी ने नवीन पटनायक की खुशी के लिए ही राज्य सभा भी नहीं भेजा - और एक अन्य रिपोर्ट में बीजेपी के सूत्रों के हवाले से बताया गया है कि पार्टी का अगला निशाना आंध्र प्रदेश और तेलंगाना ही होने वाले हैं - जहां पहली बार मुख्यमंत्री बने जगनमोहन रेड्डी के लिए खतरा तो है ही केसीआर के बेटे केटी रामा राव भी राहुल गांधी, तेजस्वी यादव, अखिलेश यादव और आदित्य ठाकरे वाली कतार में नजर आते हैं.
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