सवाल अब ये नहीं है कि नाम में क्या रखा है, बल्कि ये है कि कितना रखा है? भीमराव अंबेडकर नाम के बीएसपी नेता को राज्य सभा का उम्मीदवार बनाये जाने के बाद ये सवाल मौजूं हो गया है.
देखा जाये तो मायावती ने भीमनाव अंबेडकर नाम के बीएसपी नेता को आगे कर सियासत में मैनेजमेंट का फंडा आजमाने की कोशिश की है. मुमकिन है मायावती को अब भी लगता हो कि उनके वोटर नाम पर जीते मरते हैं. ये जानते समझते हुए भी कि दलित की बेटी के नाम पर सहानुभूति बटोरने की उनकी सारी कवायद फेल हो चुकी है, मायावती ने एक बार फिर वही पासा फेंका है. सवाल वहीं आकर ठहर जाता है कि क्या भीमराव अंबेडकर नाम होने से दलित वोटर मायावती को माफी दे देगा?
मायावती का भूल सुधार
जैसे वापसी किसी के लिए कभी भी नामुमकिन नहीं होती, मायावती पर भी वही फंडा लागू होता है. हालांकि, हकीकत यही है कि दलितों द्वारा लगातार नकारे जाने से मायावती बुरी तरह डरी हुई लगती हैं. ऊपर से बीएसपी के वोट बैंक में सेंधमारी कर बीजेपी ने मायावती को अंदर तक हिला कर रख दिया है.
कांशीराम के बाद मायावती बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के नाम पर अरसे से राजनीति करती आई हैं. कई साल तो उन्होंने ज्यादातर मामलों में 'दलित की बेटी' के नाम पर काम चला लिये.
यूपी चुनावों से पहले जब बीजेपी नेता दयाशंकर सिंह ने मायावती के खिलाफ टिप्पणी की तो भी बीएसपी नेताओं ने वही स्टैंड लिया. लखनऊ में रैली बुलाई और खूब बवाल किया. नतीजा ये हुआ कि दांव उल्टा पड़ गया और बीएसपी को पूरे राज्य में आंदोलन की घोषणा वापस लेनी पड़ी. मायावती को उसी वक्त अहसास हो गया था कि दलित की बेटी वाली राजनीति की बहुत दिन तक दाल नहीं गलने वाली.
हाल के दिनों में मायावती भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर रावण और...
सवाल अब ये नहीं है कि नाम में क्या रखा है, बल्कि ये है कि कितना रखा है? भीमराव अंबेडकर नाम के बीएसपी नेता को राज्य सभा का उम्मीदवार बनाये जाने के बाद ये सवाल मौजूं हो गया है.
देखा जाये तो मायावती ने भीमनाव अंबेडकर नाम के बीएसपी नेता को आगे कर सियासत में मैनेजमेंट का फंडा आजमाने की कोशिश की है. मुमकिन है मायावती को अब भी लगता हो कि उनके वोटर नाम पर जीते मरते हैं. ये जानते समझते हुए भी कि दलित की बेटी के नाम पर सहानुभूति बटोरने की उनकी सारी कवायद फेल हो चुकी है, मायावती ने एक बार फिर वही पासा फेंका है. सवाल वहीं आकर ठहर जाता है कि क्या भीमराव अंबेडकर नाम होने से दलित वोटर मायावती को माफी दे देगा?
मायावती का भूल सुधार
जैसे वापसी किसी के लिए कभी भी नामुमकिन नहीं होती, मायावती पर भी वही फंडा लागू होता है. हालांकि, हकीकत यही है कि दलितों द्वारा लगातार नकारे जाने से मायावती बुरी तरह डरी हुई लगती हैं. ऊपर से बीएसपी के वोट बैंक में सेंधमारी कर बीजेपी ने मायावती को अंदर तक हिला कर रख दिया है.
कांशीराम के बाद मायावती बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के नाम पर अरसे से राजनीति करती आई हैं. कई साल तो उन्होंने ज्यादातर मामलों में 'दलित की बेटी' के नाम पर काम चला लिये.
यूपी चुनावों से पहले जब बीजेपी नेता दयाशंकर सिंह ने मायावती के खिलाफ टिप्पणी की तो भी बीएसपी नेताओं ने वही स्टैंड लिया. लखनऊ में रैली बुलाई और खूब बवाल किया. नतीजा ये हुआ कि दांव उल्टा पड़ गया और बीएसपी को पूरे राज्य में आंदोलन की घोषणा वापस लेनी पड़ी. मायावती को उसी वक्त अहसास हो गया था कि दलित की बेटी वाली राजनीति की बहुत दिन तक दाल नहीं गलने वाली.
हाल के दिनों में मायावती भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर रावण और गुजरात के जिग्नेश मेवाणी के उभार से भी खासी परेशान हैं. यही वजह है कि मायावती फूंक फूंक कर एक एक कदम बढ़ा रही हैं.
माना जा रहा था कि मायावती खुद भी राज्य सभा जा सकती हैं. मायावती ने ऐसा नहीं किया. मायावती को मालूम था कि ऐसा करने पर जवाब देने होंगे कि राज्य सभा जाना ही था तो टर्म पूरा होने से पहले नौटंकी की जरूरत क्या थी? एक चर्चा ये भी थी कि मायावती अपने भाई आनंद को राज्य सभा भेजने के बारे में विचार कर सकती हैं. अगर मायावती ऐसा करतीं तो भी परिवारवाद के वैसे ही सवाल उठते जैसे आनंद को बीएसपी का उपाध्यक्ष बनाने के वक्त उठे थे.
मायावती ने ऐसा कुछ भी नहीं किया. ऊपर से बीएसपी से एक ऐसे नेता को राज्य सभा का उम्मीदवार बनाया जिसका नाम है - भीमराव अंबेडकर. ऐसे चुनावों में गणित के हिसाब से हार जीत का फैसला होता है. समाजवादी पार्टी से मायावती ने अस्थायी समझौता भी इसीलिए किया है. देखना होगा मायावती के भूल सुधार की कोशिश कितनी कामयाब रहती है.
दलितों के लिए दुश्मनी भुला दी!
महागठबंधन के लिए नीतीश कुमार को नेता घोषित करते वक्त लालू प्रसाद ने बिहार की लड़ाई के लिए जहर पीने को भी तैयार बताया था. समाजवादी पार्टी से समझौते को लेकर मायावती ने ऐसी कोई बात नहीं कही है. वैसे अरसे बाद समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाना करीब करीब वैसा ही फैसला लगता है. ठीक वैसे ही जैसे 2015 में लालू और नीतीश ने दो दशक पुरानी दुश्मनी भुलाकर हाथ मिलाया था.
मायावती भी अपने वोट बैंक को वैसा ही मैसेज देने कोशिश कर रही हैं. हालांकि, इस मामले में भी पूरी सतर्कता बरत रही हैं. इसीलिए उन्होंने कहा कि समाजवादी पार्टी के साथ उनका समझौता सिर्फ हाल के चुनावों तक है - 2019 के लिए तो हरगिज नहीं. मायावती के पास सिर्फ 19 विधायक हैं और एक सीट के लिए जरूरी विधायकों की संख्या के लिए उन्हें समाजवादी पार्टी की जरूरत पड़ी है.
ये तो मान कर चलना चाहिये कि बीएसपी उम्मीदवार के चुनाव जीत जाने की पूरी संभावना है, लेकिन क्या मायावती को इसका आगे भी राजनीतिक फायदा मिल सकेगा? निश्चित रूप से ये सवाल उनके मन में भी होगा और अखिलेश यादव की पार्टी से हाथ मिलाने से लेकर भीमराव अंबेडकर के नाम पर मुहर लगाने तक का आधार भी यही होगा.
सबसे अहम बात ये है कि मायवती ने अपने वोट बैंक को संदेश देने की कोशिश की है कि वो दलितों के लिए जहर का हर घूंट पीने को भी तैयार हैं. मुश्किल यही है कि जो बात मायावती अपने वोटर को समझाना चाहती हैं वो समझ लेगा भी या नहीं?
भीमराव अंबेडकर होने के मायने?
भीमराव पेशे से वकील हैं और 'अंबेडकर के आर्थिक विचार और वर्तमान में उनकी उपयोगिता' विषय पर कानपुर विश्वविद्यालय में थीसिस पेश भी किये थे, लेकिन उन्हें डिग्री नहीं मिली.
बीएसपी से वो कांशीराम के जमाने से जुड़े हुए हैं और अब भी मायावती के करीबियों में से माने जाते हैं. हालांकि, 2012 के चुनाव में मायावती ने उन्हें टिकट नहीं दिया था. इटावा के रहने वाले अंबेडकर लखना सीट से 2007 में विधायक रह चुके हैं. 1991 में जब कांशीराम इटावा से चुनाव लड़े तो भीमराव अंबेडकर ने खूब मेहनत की. कांशीराम के चुनाव जीतने के बाद से पार्टी में उनका दबदबा भी बढ़ गया.
नाम के अलावा भीमराव अंबेडकर की एक खासियत ये भी है कि वो जाटव समुदाय से आते हैं. जाटव वोट बैंक को बनाये रखने के लिए मायावती लगातार प्रयासरत रहती हैं. बीएसपी की ओर से राज्य सभा भेजे जाने की कतार में खड़े वो तीसरे नेता हैं. इनसे पहले अशोक सिद्धार्थ और वीर सिंह बीएसपी के राज्य सभा सांसद हैं जिनका कार्यकाल इसी महीने खत्म हो रहा है.
आने वाले दिनों में बीएसपी नेता भीमराव अंबेडकर, मायावती के लिए कितने मददगार साबित होंगे ये कहना मुश्किल है - क्योंकि 2017 में वो बीएसपी के टिकट पर औरैया सुरक्षित सीट से चुनाव लड़े थे और हार गये. नाम कितना मायने रखता है, दावे के साथ भला कौन कह सकता है?
इन्हें भी पढ़ें :
माया-अखिलेश के साथ को गठबंधन नहीं तात्कालिक सौदेबाजी के तौर पर देखिये!
बसपा के हाथी पर सवार साइकिल क्या पंचर होने से बची रहेगी
जिग्नेश की दिल्ली रैली में पहुंची भीड़ को मायावती कैसे देख रही होंगी
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.