उत्तर प्रदेश की राजनीतिक हवा में इन दिनों तपिश बढ़ी हुई है. भाजपा और संघ की ओर से की जा रही ताबड़तोड़ बैठकों ने राज्य के सियासी सागर में हलचल को बढ़ा दिया है. इससे इतर बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती भी सुर्खियों में हैं. बीते लंबे समय से औपचारिक बयानों को छोड़ दिया जाए, तो सूबे की राजनीति में मायावती की कोई खास उपस्थिति दर्ज नहीं हुई है. हाल ही में एक वायरल वीडियो में अभिनेता रणदीप हुड्डा की बसपा सुप्रीमो पर आपत्तिजनक टिप्पणी के बाद मायावती एक बार फिर से चर्चा का केंद्र बनी हुई हैं. बसपा प्रमुख ने पार्टी विधानमंडल दल के नेता लालजी वर्मा और राष्ट्रीय महासचिव राम अचल राजभर को पार्टी से निष्कासित कर दिया है.
2017 के विधानसभा चुनाव में महज 19 सीटें जीतने वाली मायावती बीते चार साल के दौरान बसपा के 11 विधायकों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा चुकी है. मायावती के हालिया फैसले से पार्टी में ओबीसी समुदाय की नुमाइंदगी करने वाले चेहरे खत्म हो गए हैं. मायावती तकरीबन हर विधानसभा चुनाव से पहले नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाती रही हैं. इनमें से अधिकतर नेता और विधायक समाजवादी पार्टी की साइकिल पर सवार हो चुके हैं. बीते कुछ समय से मायावती लगातार ऐसे फैसले और बयान देती दिख रही हैं, जो भाजपा और सपा के लिए फायदेमंद साबित हो रहे हैं. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि यूपी में मायावती आखिर किस 'हिडेन एजेंडा' पर चल रही हैं?
चौंकाती है मायावती की 'चुप्पी'
2022 की पहली तिमाही में ही उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव होने हैं. इस लिहाज से राज्य में राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ना बहुत आम सी बात है. कोरोना महामारी की वजह से उपजी अव्यवस्थाएं हों या कृषि...
उत्तर प्रदेश की राजनीतिक हवा में इन दिनों तपिश बढ़ी हुई है. भाजपा और संघ की ओर से की जा रही ताबड़तोड़ बैठकों ने राज्य के सियासी सागर में हलचल को बढ़ा दिया है. इससे इतर बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती भी सुर्खियों में हैं. बीते लंबे समय से औपचारिक बयानों को छोड़ दिया जाए, तो सूबे की राजनीति में मायावती की कोई खास उपस्थिति दर्ज नहीं हुई है. हाल ही में एक वायरल वीडियो में अभिनेता रणदीप हुड्डा की बसपा सुप्रीमो पर आपत्तिजनक टिप्पणी के बाद मायावती एक बार फिर से चर्चा का केंद्र बनी हुई हैं. बसपा प्रमुख ने पार्टी विधानमंडल दल के नेता लालजी वर्मा और राष्ट्रीय महासचिव राम अचल राजभर को पार्टी से निष्कासित कर दिया है.
2017 के विधानसभा चुनाव में महज 19 सीटें जीतने वाली मायावती बीते चार साल के दौरान बसपा के 11 विधायकों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा चुकी है. मायावती के हालिया फैसले से पार्टी में ओबीसी समुदाय की नुमाइंदगी करने वाले चेहरे खत्म हो गए हैं. मायावती तकरीबन हर विधानसभा चुनाव से पहले नेताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाती रही हैं. इनमें से अधिकतर नेता और विधायक समाजवादी पार्टी की साइकिल पर सवार हो चुके हैं. बीते कुछ समय से मायावती लगातार ऐसे फैसले और बयान देती दिख रही हैं, जो भाजपा और सपा के लिए फायदेमंद साबित हो रहे हैं. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि यूपी में मायावती आखिर किस 'हिडेन एजेंडा' पर चल रही हैं?
चौंकाती है मायावती की 'चुप्पी'
2022 की पहली तिमाही में ही उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव होने हैं. इस लिहाज से राज्य में राजनीतिक दलों की सक्रियता बढ़ना बहुत आम सी बात है. कोरोना महामारी की वजह से उपजी अव्यवस्थाएं हों या कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहा किसान आंदोलन, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के नेता लगातार सत्ताधारी दल भाजपा के खिलाफ मुखर रहे हैं. लेकिन, इसके ठीक उलट बसपा सुप्रीमो मायावती अपने बयानों से योगी सरकार और केंद्र सरकार को नसीहत देती ही नजर आई हैं. समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव के खिलाफ उनके तेवर जरूर तीखे नजर आए हैं, लेकिन राजनीतिक दृष्टिकोण से देखा जाए, तो उन पर भी मायावती की ओर से नरमी ही बरती गई है.
चंद्रशेखर आजाद नाम की नई चुनौती
बसपा के सामने चंद्रशेखर आजाद नाम की एक चुनौती भी खड़ी हो चुकी है. चंद्रशेखर ने आजाद समाज पार्टी बनाकर मायावती के कोर वोटबैंक जाटव समाज को अपने साथ लाने में कामयाब हो रहे हैं. चंद्रशेखर का युवा वर्ग में काफी बोलबाला है. हालांकि, राजनीतिक जानकार कहते हैं कि वह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बेल्ट तक ही सीमित हैं. लेकिन, बीते कुछ समय में चंद्रशेखर ने पूरे प्रदेश में घूम-घूमकर काफी समर्थन जुटाया है. अखिलेश यादव और चंद्रशेखर के बीच मुलाकातों का दौर भी चल चुका है. अगर चंद्रशेखर बसपा के काडर वोटबैंक में सेंध लगाने में कामयाब हो जाते हैं, तो मायावती को काफी नुकसान हो सकता है.
पंचायत चुनाव के बाद की रणनीति अहम
उत्तर प्रदेश में हुए पंचायत चुनाव में मायावती ने कहा था कि 'बहुजन समाज पार्टी ने सूबे के 25 जिलों में अच्छा प्रदर्शन किया है.' पंचायत चुनाव के नतीजे देखें, तो बसपा समर्थित करीब 330 उम्मीदवारों ने जीत दर्ज की. हालांकि, यह भाजपा और सपा की तुलना में काफी कम है. लेकिन, सूबे की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए यह ठीक-ठाक प्रदर्शन कहा जा सकता है. वहीं, जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लाक प्रमुख के पदों के लिए चित्रकूट समेत कुछ जगहों पर भाजपा का कमजोर साबित करने के लिए बसपा को सपा का साथ मिलने के कयास लगाए जा रहे हैं.
सीबीआई का डर
बसपा सुप्रीमो मायावती और उनके परिवार पर वित्तीय अनियमितता आरोप लगते रहे हैं और कई मामलों में जांच चल रही है. पार्टी टिकट बेचने के आरोपों से इतर मायावती और उनके भाई के खिलाफ घोटालों और बेनामी संपत्तियों के कई मामले दर्ज हैं. यूपीए शासनकाल के दौरान 2004 से ही मायावती सीबीआई के डर से कांग्रेस सरकार को बाहर से समर्थन देती रहीं. कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में कोई खास प्रदर्शन नहीं कर पाने की वजह से ही मायावती ने खुद को राजनीतिक तौर पर निष्क्रिय रखा हुआ है. सुप्रीम कोर्ट के एससी-एसटी एक्ट पर दिए गए फैसले के खिलाफ मायावती ने विरोध-प्रदर्शनों के जरिये प्रदेश में अपनी मजबूत पकड़ को दिखा दिया था. लेकिन, 2019 में ये काम नहीं आई थी.
बड़े नेताओं की पार्टी से छुट्टी
बसपा सुप्रीमो मायावती ने पार्टी के अंदर किसी अन्य बड़े नेता को पनपने नहीं दिया. जैसे ही किसी नेता का कद बढ़ने लगता था, तो उसे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता था. जिसकी वजह से कई नेताओं ने खुद भी बसपा से किनारा कर लिया. वर्तमान में योगी सरकार के दो मंत्री बृजेश पाठक और स्वामी प्रसाद मौर्य पूर्व में बसपा के नेता रहे हैं. हाल ही में बसपा से निकाले गए रामअचल राजभर और लालजी वर्मा भी मायावती के करीबियों में से एक थे. इन लोगों का कद भी बसपा में काफी बड़ा था. ये दोनों ही बसपा के संस्थापक सदस्यों में से थे. पार्टी से लगातार नेताओं को बाहर करने से बसपा और मायावती दोनों ही कमजोर हुए हैं.
लगातार खिसका बसपा का जनाधार
पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों की बात करें, तो बहुजन समाज पार्टी का जनाधार लगातार गिरता हुआ नजर आया है. दलित वोटबैंक और अल्पसंख्यकों का भरोसा जीतने वाली पार्टी के लिए पिछले कुछ चुनाव काफी निराशाजनक रहे हैं. 2007 विधानसभा चुनाव में 30.43 फीसदी वोटों के साथ बसपा सुप्रीमो मायावती ने 206 सीटों पर ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी. 2012 में 25.9 फीसदी वोटों के साथ पार्टी ने 80 सीटें जीती थीं. वहीं, बसपा को 2017 के विधानसभा चुनाव में 22.2 फीसदी वोट मिले और पार्टी महज 19 सीटों पर सिमट गई थी. जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में 19.77 फीसदी वोट शेयर के बाद भी बसपा को एक भी सीट पर जीत हासिल नहीं हुई थी. वहीं, सपा के साथ गठबंधन में आकर बसपा ने 10 सीटों पर जीत हासिल की थी. लेकिन, वोट ट्रांसफर न होने की बात कहकर उन्होंने सपा से दूरी बना ली थी.
मायावती का 'हिडेन एजेंडा'
यूपी की राजनीति में आम आदमी पार्टी भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है. हालांकि, प्रदेश में AAP को स्थापित होने में अभी काफी समय लग सकता है. सूबे में भाजपा, समाजवादी पार्टी, बसपा और कांग्रेस के बीच आम आदमी पार्टी के लिए अपने राजनीतिक जमीन खोजना एक टेढ़ी खीर होगा. कोरोना महामारी के दौरान फैली अव्यवस्थाओं से लोगों में भाजपा के प्रति नाराजगी बढ़ी है. इस मामले में फिलहाल समाजवादी पार्टी के पास बढ़त नजर आ रही है. कांग्रेस के पास प्रदेश में कोई चेहरा नहीं है. यूपी की राजनीति में हाशिये पर दिख रही बसपा 2022 के विधानसभा चुनाव में केवल वोटकटवा पार्टी बनने की ओर बढ़ रही हैं. वहीं, अगर त्रिशंकु विधानसभा नतीजे आते हैं, तो 'किंगमेकर' की भूमिका में मायावती किसका साथ देंगी, देखने वाली बात होगी. लोकसभा चुनाव वाला फॉर्मूला भी दोहराया जा सकता है, लेकिन, मायावती इतनी जल्दी अपने पत्ते नहीं खोलने वाली हैं.
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