मोदी कैबिनेट की फेरबदल (Cabinet reshuffle) के लिए मीडिया में डिलीट, रिसेट और ओवरहॉल जैसे शब्दों के जरिये समझने और समझाने की कोशिश की गयी है. द इंडियन एक्सप्रेस ने इसे नये सिरे से कहानी लिखने की शुरुआत बताया है - और माना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) बीती सारी बातें मिटाकर ऐसा करने की कोशिश की है.
2014 के बाद अपनी तरह का पहली बार किया गया ये महा-फेरबदल भी माना जा रहा है, ऐसे में जबकि कोविड 19 के कहर के दौरान सरकार की साख के साथ साथ प्रधानमंत्री मोदी की खामोशी पर भी सवाल उठाये गये - और विपक्ष ने भी बिलकुल ऐसे ही रिएक्ट किया है, लेकिन सवाल ये है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी को विपक्ष की ऐसी टिप्पणियों से कोई फर्क भी पड़ता है - ऐसा तो बिलकुल भी नहीं लगता.
ये ब्रांड मोदी (Brand Modi) ही है जिसके दम पर संघ और बीजेपी विपक्ष को हिंदुत्व और देश के खिलाफ पाकिस्तान परस्त समझा देता है - तभी तो जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने नाम के पहले चौकीदार जोड़ लेते हैं तो राहुल गांधी का चौकीदार चोर है जैसा स्लोगन भी चुनावी शोर में गुम जाता है.
अभी दो दिन पहले ही राफेल का जिन्न फ्रांस में बोतल से जांच के बहाने बाहर निकला और राहुल गांधी ने ट्विटर पर लिखा 'चोर की दाढ़ी...' लेकिन अभी कौन उसी बात कर रहा है और कैबिनेट की बात भी तो बाद में हो रही है, पहले तो रविशंकर प्रसाद, प्रकाश जावड़ेकर और हर्षवर्धन के इस्तीफे की चर्चा जोर शोर से हो रही है - ब्रांड वैल्यू भी ऐसी ही कुर्बानियां मांगता है.
फील्ड कोई भी हो, ब्रांड वैल्यू ही मायने रखता है
कैबिनेट फेरबदल में छुट्टी हो जाने पर बाकी सब के सब खामोश हैं, लेकिन लगता है बात बाबुल सुप्रियो के बर्दाश्त के बाहर हो रही थी, लिहाजा फेसबुक पर 'मन की बात'...
मोदी कैबिनेट की फेरबदल (Cabinet reshuffle) के लिए मीडिया में डिलीट, रिसेट और ओवरहॉल जैसे शब्दों के जरिये समझने और समझाने की कोशिश की गयी है. द इंडियन एक्सप्रेस ने इसे नये सिरे से कहानी लिखने की शुरुआत बताया है - और माना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) बीती सारी बातें मिटाकर ऐसा करने की कोशिश की है.
2014 के बाद अपनी तरह का पहली बार किया गया ये महा-फेरबदल भी माना जा रहा है, ऐसे में जबकि कोविड 19 के कहर के दौरान सरकार की साख के साथ साथ प्रधानमंत्री मोदी की खामोशी पर भी सवाल उठाये गये - और विपक्ष ने भी बिलकुल ऐसे ही रिएक्ट किया है, लेकिन सवाल ये है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी को विपक्ष की ऐसी टिप्पणियों से कोई फर्क भी पड़ता है - ऐसा तो बिलकुल भी नहीं लगता.
ये ब्रांड मोदी (Brand Modi) ही है जिसके दम पर संघ और बीजेपी विपक्ष को हिंदुत्व और देश के खिलाफ पाकिस्तान परस्त समझा देता है - तभी तो जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने नाम के पहले चौकीदार जोड़ लेते हैं तो राहुल गांधी का चौकीदार चोर है जैसा स्लोगन भी चुनावी शोर में गुम जाता है.
अभी दो दिन पहले ही राफेल का जिन्न फ्रांस में बोतल से जांच के बहाने बाहर निकला और राहुल गांधी ने ट्विटर पर लिखा 'चोर की दाढ़ी...' लेकिन अभी कौन उसी बात कर रहा है और कैबिनेट की बात भी तो बाद में हो रही है, पहले तो रविशंकर प्रसाद, प्रकाश जावड़ेकर और हर्षवर्धन के इस्तीफे की चर्चा जोर शोर से हो रही है - ब्रांड वैल्यू भी ऐसी ही कुर्बानियां मांगता है.
फील्ड कोई भी हो, ब्रांड वैल्यू ही मायने रखता है
कैबिनेट फेरबदल में छुट्टी हो जाने पर बाकी सब के सब खामोश हैं, लेकिन लगता है बात बाबुल सुप्रियो के बर्दाश्त के बाहर हो रही थी, लिहाजा फेसबुक पर 'मन की बात' लिख डाली.
लिखा भी दुख, दर्द और उलाहने भरे अंदाज में - 'हां, मुझे इस्तीफा देने को कहा गया था... मैंने दे भी दिया है. मैं प्रधानमंत्री मोदी का शुक्रगुजार हूं कि वो मंत्रिमंडल में शामिल कर मुझे देश की सेवा का मौका दिये.'
ब्रांड मोदी से बेपरवाह, बाबुल सुप्रियो को अपनी ही चिंता ज्यादा लगती है, लिखते हैं, 'मुझे खुशी इस बात की है कि कार्यकाल में मेरे ऊपर भ्रष्टाचार का कोई दाग नहीं लगा... मैंने अपने लोक सभा क्षेत्र आसनसोल के लिए हर संभव काम किया जिसके चलते वहां के लोगों ने मुझे 2019 में तीन गुना वोटों से जिता कर सांसद बनाया.'
लेकिन पूरा जोर इसी बात पर रहा कि वो दुखी हैं. बंगाल के लोगों को मंत्री बनाये जाने को लेकर लिखा - 'मैं अपने लिए निश्चित तौर पर दुखी हूं, लेकिन उन लोगों के लिए बेहद खुश हूं जिनको मंत्री बनाया...'
बाबुल सुप्रियो के बहाने पश्चिम बंगाल बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष को भी खामोशी तोड़ने का मौका मिल गया और वो बरस पड़े हैं. कह रहे हैं सारे चुप हैं लेकिन ये बोल रहे हैं. मन में तो उनके भी ऐसी ही बातें होंगी ही. बंगाल चुनाव में इतनी मेहनत किये थे. बीजेपी चुनाव जीत भी जाती तो भी मालूम नहीं था कि कौन मुख्यमंत्री बनता - ऐसे में खुद दिलीप घोष के मन में भी तो वो बात होगी ही, जिसे लेकर कैलाश विजय वर्गीय मन मसोस कर रह गये हैं.
बाबुल सुप्रियो लगता है भूल गये कि एक केंद्रीय मंत्री के लिए विधानसभा का चुनाव हार जाना भी ब्रांड मोदी पर धब्बा ही माना जाएगा, तब तो और भी गहरा जब पूरा अमला चुनावों में एड़ी चोटी का जोर लगाये हुए हो. चुनाव तो बीजेपी की तरफ से स्वपनदास गुप्ता भी लड़े थे, लेकिन वो मंत्री नहीं थे - और मुकुल रॉय भी जो जीते भी और फिर तृणमूल कांग्रेस में अपने चुनाव हारे बेटे के साथ चले गये.
बंगाल के लिए बहुत एक्स्ट्रा तो शुभेंदु अधिकारी भी नहीं कर पाये, लेकिन मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को शिकस्त देने में सफल तो रहे ही - तभी तो नेतृत्व के दुलारे और आंखों के तारे बने हुए हैं.
बंगाल चुनाव के नतीजों ने ब्रांड मोदी पर गहरा असर डाला है. बिहार चुनाव में ब्रांड मोदी ने अपने बूते सुशासन के सिंबल और क्षेत्रीय राजनीति में चाणक्य के तौर पर देखे जाने वाले नीतीश कुमार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर को भी दरकिनार कर दिया - और एनडीए की सत्ता में वापसी भी करा दी.
ब्रांड मोदी पर ही बीजेपी की पूरी राजनीति टिकी है - बीते चुनावों से लेकर आने वालों तक पूरा दारोमदार ब्रांड मोदी पर ही टिका है. जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाये जाने से लेकर अयोध्या में राम मंदिर निर्माण कार्य तक, बगैर ब्रांड मोदी के सब बेकार है. मुद्दे तो ये बीजेपी की स्थापना के समय से चले आ रहे हैं, लेकिन ब्रांड मोदी के स्ट्रॉन्ग होने के बाद ही सत्ता की सियासत में बीजेपी के उपलब्धियों की फेहरिस्त में शुमार किये जा सके हैं.
कैबिनेट फेरबदल के अनेक मकसद रहे होंगे और जरूरतें भी - लेकिन एक मकसद ब्रांड मोदी को पटरी पर लाने के बाद उसमें बरकत की कोशिश भी है. हाल के कुछ सर्वे में ब्रांड मोदी की लोकप्रियता में गिरावट दर्ज की गयी थी - जाहिर है उसमें बंगाल चुनाव का भी भरपूर कंट्रीब्यूशन रहा होगा - और उसकी वजह से कोविड के कहर में इजाफा भी तो बड़ा सिरदर्द रहा.
मंत्रिमंडल की हेरफेर पूरी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विशेषाधिकार का हिस्सा है, लेकिन जिस तरह से सर्जरी की गयी और जरूरत के हिसाब से ट्रांसप्लांट का अक्स नजर आ रहा है - कोई दो राय नहीं होनी चाहिये कि उसमें RSS की भी छाप दिखायी देती है. कोरोना वायरस की दस्तक के बाद लॉकडाउन और अनलॉक के बाद कोविड 19 की दूसरी लहर तक हर किसी का हिसाब-किताब बारीकी से हुआ लगता है - और कहीं कोई संकोच भी रहा होगा तो संघ की मुहर ने उसे हरी झंडी दिखा दी है - ताकि हर हाल में ब्रांड मोदी का जलवा मार्केट में बरकरार रहे.
जो काम अब हुआ, पहले नहीं हो सकता था क्या?
जम्मू - कश्मीर के नेताओं को दिल्ली बुलाकर बातचीत का महाआयोजन भी ब्रांड मोदी चमकाने की ही एक कवायद रही - और अब ये मंत्रिमंडल में आमूल चूल परिवर्तन जैसी फेरबदल भी - जैसे जैसे विधानसभा चुनावों की तारीख नजदीक आती जा रही है, ऐसे और भी कदम उठाये जा सकते हैं - दरअसल, ये सब 2022 के लिए अंगड़ाई ही है - क्योंकि आगे तो 2024 की असली लड़ाई है.
मोदी कैबिनेट में फेरबदल के माध्यम से एक बड़ा मैसेज देने की कोशिश की गयी है - सारे निकम्मों और नकारों को निकाल बाहर कर दिया गया है. गजब हाल है, लेकिन इसके लिए इतना लंबा इंतजार करने की क्या जरूरत थी?
पूरे दर्जन भर निकम्मे और नकारे पड़े हुए थे - 12 मंत्रियों ने मंत्रिमंडल फेरबदल से पहले इस्तीफा दे दिया था. सबसे ज्यादा चौंकाने वाले दो नाम रहे - रविशंकर प्रसाद और प्रकाश जावड़ेकर.
डॉक्टर हर्षवर्धन तो अभी अच्छी छवि और भलमनसाहत के चलते ऐसा लगता था बस ढोये जा रहे थे. डॉक्टर होने के बावजूद वो कोविड 19 संकट के बीच सबसे ज्यादा ध्यान स्वामी रामदेव के कोरोनिल के प्रमोशन को लेकर खींचे थे. बाकी तो वो भी वही काम कर रहे थे जैसे रणदीप गुलेरिया और उनके मंत्रालय के कुछ अफसर - मेडिकल अपडेट देने का काम.
2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने दिल्ली में हर्षवर्धन की अगुवाई में ही सबसे ज्यादा सीटें जीती थी. वो भी तब जब लहर बन कर उभरे अरविंद केजरीवाल ने शीला दीक्षित को शिकस्त दी थी, लेकिन छवि के चक्कर में ही हर्षवर्धन ने सरकार बनाने में दिलचस्पी नहीं दिखायी. 2014 के बाद ऐसा कभी नहीं हुआ. बल्कि, अब तो ऑपरेशन लोटस किसी न किसी रूप में कर्नाटक से बाहर भी कमाल दिखाते हुए कमल खिलाने लगा है. लोगों में इमेज बनाने के चक्कर में लगता है हर्षवर्धन ने मौजूदा बीजेपी नेतृत्व की नजर अपनी छवि तभी खराब कर ली थी. बाद में तो दिल्ली से उनको बाहर ही रखा गया और अब तो कैबिनेट से भी बाहर कर दिया गया है.
लेकिन ये सवाल तो उठेगा ही कि निकम्मों और नकारों को अब तक बनाये रखने की जिम्मेदारी किसकी थी? जिन्हें निकम्मा या नकारे के तौर पर पेश किया जा रहा है वे अब तक लोगों पर क्यों बोझ बने हुए थे - क्या पहले ही ऐसे इंतजाम करके कोविड 19 से मची तबाही को रोका या कम नहीं किया जा सकता था?
नये मंत्रिमंडल को यंग बताया जा रहा है - और एक ऐसा इम्प्रेशन देने की भी कोशिश हो रही है जैसे अब मार्गदर्शक मंडल की उम्र सीमा 75 से घटाकर 60 कर दी गयी है. कैबिनेट में बदलाव वाले आयोजन से ऐन पहले इस्तीफा देने वाले सबके सब 60 प्लस हैं.
बताने और जताने की कोशिश ये है अब कि फ्रेश चेहरों और नयी एनर्जेटिक टीम के साथ नये सिरे से नयी ऊर्जा से काम करेंगे - बहुत अच्छी बात है, लेकिन अब तक क्या कर रहे थे? सवाल तो बनता ही है.
अगर संतोष गंगवार ने लॉकडाउन के बाद सड़क पर निकले मजदूरों की सुधि नहीं ली, तो सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी तक इंतजार करने की क्या जरूरत रही. तब भूपेंद्र यादव दूसरे मिशन को अंजाम देने में लगे हुए थे, लेकिन तब तक कोई और भी तो हो सकता था.
बेशक मंत्रिमंडल में फेरबदल के साथ जातीय और क्षेत्रीय संतुलन को साधने की कोशिश है - और वोट बैंक के हिसाब से प्रतिनिधित्व भी देने का प्रयास किया गया है. गठबंधन के साथियों को भी साथ रखा गया है और कोटे का भी पूरा ख्याल रखा गया है. जैसे बिहार से अब भी छह मंत्री ही हैं - रविशंकर प्रसाद और रामविलास पासवान की जगह आरसीपी सिंह और पशुपति कुमार पारस आ गये हैं.
मंत्रिमंडल के माध्यम से भी 'सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास' वाला मैसेज देने का प्रयास किया गया है, लेकिन यूपी में डॉक्टर संजय निषाद जैसे बीजेपी के सहयोगी भी हैं जो खुलेआम नाराजगी जाहिर कर रहे हैं - 'कुर्मी को कुर्सी और निषादों के हिस्से में एक छोटी नाव भी नहीं?' अनुप्रिया पटेल को दोबारा मौका दिये जाने पर निषाद पार्टी के नेता की ऐसी ही प्रतिक्रिया आयी है.
'बीती ताहि बिसारि दे...' की तर्ज पर बदलाव के कुदरती नियम को मान कर लोग अगर संतोष कर भी लें तो क्या मंत्रिमंडल की ये हेरफेर ब्रांड मोदी की बरकत में काम की साबित होगी? अगर ये सारी कवायद चुनावी मकसद लिये हुए है तो जाहिर है जवाब भी चुनाव नतीजे ही देंगे.
इन्हें भी पढ़ें :
मोदी कैबिनेट फेरबदल में तीन तरह के रंग- एक्शन, एडजस्टमेंट और अचीवमेंट!
उत्तराखंड में तीरथ के इस्तीफे के बाद पुष्कर सिंह धामी हैं भाजपा के लिए उम्मीद की नई किरण!
उत्तर प्रदेश के तमाम विपक्षी दल असदुद्दीन ओवैसी से दूरी क्यों बनाए हैं?
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.