कैप्टन अमरिंदर सिंह (Capt. Amrinder Singh) ने नया राजनीतिक दल बनाने को लेकर कोई बड़ी खबर नहीं दी है. ज्यादा से ज्यादा स्टेटस अपडेट कह सकते हैं. महत्वपूर्ण चीज ये है कि कैप्टन की नयी पारी का पंजाब की पॉलिटिक्स पर क्या और किस हद तक असर हो सकता है?
कैप्टन अमरिंदर सिंह ने नये राजनीतिक फोरम के गठन की घोषणा के साथ ही सशर्त गठबंधन की भी जानकारी दी है. जानकारी के मुताबिक, गठबंधन का विकल्प बीजेपी (BJP) के लिए भी खुला है, लेकिन शर्तें थोड़ी ज्यादा सख्त हैं, बाकियों के मुकाबले.
ये दूसरा मौका है जब कैप्टन अमरिंदर अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने जा रहे हैं. फर्क ये है कि पहला प्रयास तब किया था जब उनकी राजनीति युवा हुआ करती थी और ये सियासत की आखिरी पारी जैसी बात है. 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में कैप्टन अमरिंदर ने कांग्रेस (Congress) से नाता तोड़ा और कुछ दिन तक अकाली दल के साथ किस्मत आजमायी. जब कोई खास फायदा नहीं नजर आया फिर 1992 में अकाली दल पंथिक पार्टी बनायी - और आखिरकार 1998 में अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर घर वापसी कर ली.
बेशक कैप्टन अमरिंदर सिंह की नजदीकी राजनीतिक दुश्मनी पंजाब कांग्रेस के प्रधान नवजोत सिंह सिद्धू से हो, लेकिन आर पार की लड़ाई तो पूर्व मुख्यमंत्री सीधे कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी से लड़ने जा रहे हैं - और उसमें भी उनके निशाने पर पहले सबसे ताकतवर बन कर उभरी भाई-बहन की जोड़ी है - राहुल गांधी और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा.
बीजेपी के साथ जाने के पीछे कैप्टन ने एक वजह अकाली दल से उसका अलग होना बताया है. हालांकि, अकाली दल से बीजेपी नहीं अलग हुई है, बल्कि कृषि कानूनों को लेकर किसानों की फिक्र जताते हुए हरसिमरत कौर बादल ने ही मोदी कैबिनेट से इस्तीफा दिया था - और फिर सुखबीर बादल ने अकाली दल के एनडीए छोड़ देने का ऐलान किया था.
जो संकेत दिये गये हैं, उनके मुताबिक कैप्टन अमरिंदर सिंह का नया फोरम गैर अकाली और गैर कांग्रेस दलों के...
कैप्टन अमरिंदर सिंह (Capt. Amrinder Singh) ने नया राजनीतिक दल बनाने को लेकर कोई बड़ी खबर नहीं दी है. ज्यादा से ज्यादा स्टेटस अपडेट कह सकते हैं. महत्वपूर्ण चीज ये है कि कैप्टन की नयी पारी का पंजाब की पॉलिटिक्स पर क्या और किस हद तक असर हो सकता है?
कैप्टन अमरिंदर सिंह ने नये राजनीतिक फोरम के गठन की घोषणा के साथ ही सशर्त गठबंधन की भी जानकारी दी है. जानकारी के मुताबिक, गठबंधन का विकल्प बीजेपी (BJP) के लिए भी खुला है, लेकिन शर्तें थोड़ी ज्यादा सख्त हैं, बाकियों के मुकाबले.
ये दूसरा मौका है जब कैप्टन अमरिंदर अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने जा रहे हैं. फर्क ये है कि पहला प्रयास तब किया था जब उनकी राजनीति युवा हुआ करती थी और ये सियासत की आखिरी पारी जैसी बात है. 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में कैप्टन अमरिंदर ने कांग्रेस (Congress) से नाता तोड़ा और कुछ दिन तक अकाली दल के साथ किस्मत आजमायी. जब कोई खास फायदा नहीं नजर आया फिर 1992 में अकाली दल पंथिक पार्टी बनायी - और आखिरकार 1998 में अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर घर वापसी कर ली.
बेशक कैप्टन अमरिंदर सिंह की नजदीकी राजनीतिक दुश्मनी पंजाब कांग्रेस के प्रधान नवजोत सिंह सिद्धू से हो, लेकिन आर पार की लड़ाई तो पूर्व मुख्यमंत्री सीधे कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी से लड़ने जा रहे हैं - और उसमें भी उनके निशाने पर पहले सबसे ताकतवर बन कर उभरी भाई-बहन की जोड़ी है - राहुल गांधी और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा.
बीजेपी के साथ जाने के पीछे कैप्टन ने एक वजह अकाली दल से उसका अलग होना बताया है. हालांकि, अकाली दल से बीजेपी नहीं अलग हुई है, बल्कि कृषि कानूनों को लेकर किसानों की फिक्र जताते हुए हरसिमरत कौर बादल ने ही मोदी कैबिनेट से इस्तीफा दिया था - और फिर सुखबीर बादल ने अकाली दल के एनडीए छोड़ देने का ऐलान किया था.
जो संकेत दिये गये हैं, उनके मुताबिक कैप्टन अमरिंदर सिंह का नया फोरम गैर अकाली और गैर कांग्रेस दलों के साथ गठबंधन करेगा - और आगे की लड़ाई में जो कोई सबसे ज्यादा फायदे में लगता है - वो है दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी, बशर्ते वो भी मौके का फायदा उठा पाये.
तीन ट्वीट में कैप्टन ने क्या क्या बताया?
दिल्ली में बीजेपी नेता और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात के बाद कैप्टन अमरिंदर सिंह ने मुख्य रूप से तीन बातें तो पहले ही साफ कर दी थी - एक, हार नहीं मानेंगे, दो कांग्रेस में नहीं रहेंगे और तीन - बीजेपी नहीं ज्वाइन करेंगे. और अब तीन ट्वीट के जरिये कैप्टन ने जो कुछ अपने अपने मीडिया सलाहकार के माध्यम से बताया है वो उसी के आगे की बात है.
और कैप्टन अमरिंदर सिंह की तरह से ये तीन घोषणाएं हैं -
1. ‘पंजाब के भविष्य की जंग जारी है... पंजाब के हितों और राज्य के लोगों के साथ साथ साल भर से अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे अपने किसानों की सेवा के लिए जल्द ही अपने राजनीतिक दल के गठन की घोषणा करूंगा.’
2. '2022 के पंजाब विधानसभा चुनाव में बीजेपी के साथ सीटों के तालमेल की उम्मीद करता हूं, अगर किसानों के हित में किसान आंदोलन का कोई समाधान निकल पाये - और समान विचारधारा वाले गैर अकाली दलों, खास तौर पर ढींढसा और ब्रह्मपुत्र गुटों से भी गठबंधन के प्रयास हैं.'
3. ‘मैं अपने लोगों और अपने राज्य के भविष्य को सुरक्षित बनाने तक चैन की सांस नहीं लूंगा... पंजाब को राजनीतिक स्थिरता, आंतरिक और बाहरी खतरों से सुरक्षा की जरूरत है... अपने लोगों से मैं वादा करता हूं कि शांति और सुरक्षा के लिए जो भी करना होगा मैं करूंगा - जो फिलहाल खतरे में हैं.’
ये खिचड़ी तो पंजाब के मुख्यमंत्री पद से कैप्टन अमरिंदर सिंह के इस्तीफे के बाद और बीजेपी नेता अमित शाह से मुलाकात से पहले से ही पक रही थी, लेकिन अब भी ये अधपकी ही लगती है - और जिस रफ्तार से विधानसभा चुनावों की तारीख नजदीक आती जा रही है, ऐसा भी लगता है जैसे बीरबल की खिचड़ी पकायी जा रही हो.
कैप्टन अमरिंदर सिंह भले ही 79 साल की उम्र में चालीस जैसा महसूस करने के दावे करें और पर्दे के पीछे काम भले ही कितनी भी तेजी से क्यों न चल रहा हो, लेकिन लोगों के सामने तो कोई तस्वीर साफ नहीं है. लोगों को भी नयी चीजों को लेकर समझने और समझाने में वक्त लगता है - और कैप्टन अमरिंदर सिंह के पास सब कुछ होते हुए भी वक्त काफी कम है.
ये तो स्वाभाविक ही है, हरीश रावत ने कैप्टन अमरिंदर सिंह की नयी घोषणा को किसी भी चुनाव में प्रकट हो जाने वाले वोटकटवा जैसा ही बताया है - बात पते की ये है कि हरीश रावत का बयान राजनीतिक होकर भी काफी हद तक व्यावहारिक ही लगता है.
कांग्रेस के पंजाब प्रभारी हरीश रावत ने कैप्टन अमरिंदर सिंह के नये वेंचर को लेकर एक जुमले के साथ रिएक्ट किया है, 'कौआ खाना है, लेकिन उसे तीतर बताकर - नयी पार्टी बनाने का मतलब असल में यही है - ऐसा कदम वही उठाएगा जिसे बीजेपी और अकाली दल की मदद करनी है.'
राजनीति अपनी जगह है लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह अगर किसान आंदोलन को किसी फलदायी नतीजे पर पहुंचा सके तो ये उनके जीवन की बड़ी उपलब्धियों में से एक होगा. किसान आंदोलन से अब तक सिर्फ नुकसान हुआ है. किसानों का भी और बाकियों का भी जो उसके दायरे में आते हैं - और आने वाले चुनावों में भी किसी के भी फायदे की गुंजाइश शायद ही हो क्योंकि एकतरफा कुछ भी नहीं होने वाला. अभी तक तो ऐसा ही लगता है.
पंजाब का राजनीतिक भविष्य कैसा होने वाला है?
किसान आंदोलन को साल भर होने जा रहे हैं. दोनों तरफ से जिद कायम है - किसानों की तरफ से भी और सरकार की तरफ से भी. पूरी तरह कोई भी सिर्फ किसानों के हित की बात नहीं कर रहा है, बल्कि सभी अपना अपना राजनीतिक फायदा देख रहे हैं. ऐसे में कैप्टन अमरिंदर सिंह कोई बीच का रास्ता निकाल सकते हैं तो इससे अच्छी बात क्या होगी. वैसे भी ये चर्चा रही कि किसान आंदोलन को पंजाब की सड़कों से हटा कर कैप्टन ने ही दिल्ली बॉर्डर पर पहुंचाया था - हालांकि, उसका पूरा राजनीतिक फायदा उनको नहीं मिल सका, जो मिला वो मुख्यमंत्री रहते सिर्फ पंचायत चुनावों तक ही मिल सका.
कांग्रेस के अंदरूनी कलह की बदौलत ही सही, लेकिन पंजाब में जो भी राजनीतिक उथल पुथल हुआ है, उसमें चुनाव के बाद भी राजनीतिक भविष्य कोई बहुत अच्छा नहीं दिखायी दे रहा है. कम से कम कुछ दिनों पहले आये एक सर्वे से तो ऐसा ही लगता है. सर्व भी तभी हुआ था जब कैप्टन अमरिंदर सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा नहीं दिया था बाद में तो बहुत कुछ बदल ही चुका है. सर्वे के मुताबिक, पंजाब विधानसभा के त्रिशंकु नतीजे आने का अनुमान लगाया गया था - और अब तक जितनी भी चीजें एक एक करके सामने आ रही हैं, वे ठीक उसी दिशा में आगे बढ़ती जा रही हैं.
अब कैप्टन अमरिंदर सिंह भले ही पंजाब और वहां के लोगों का भविष्य सुरक्षित करने की बात कर रहे हों, लेकिन असलियत तो पंजाब के लोगों को मालूम होगी ही. अगर वास्तव में कैप्टन अमरिंदर सिंह इतने लोकप्रिय होते और ऐसी आशंका होती कि उनको हटाये जाने के बाद लोग सड़कों पर उतर सकते हैं, तो शायद कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी उनसे 'सॉरी, अमरिंदर' बोलने काफी संकोच हुआ होता.
कांग्रेस ने काफी सोच समझ कर चरणजीत सिंह चन्नी के रूप में पंजाब को पहला दलित मुख्यमंत्री देकर बड़ी चाल चली है - हालांकि, ये चाल कितनी असरदार होगी ये सब कांग्रेस के राजनीतिक विरोधियों की ताकत या कमजोरी पर ही निर्भर करता है.
कैप्टन अमरिंदर सिंह का मंशा तो पहले ही साफ हो चुकी थी. नया राजनीतिक दल बनाने की घोषणा के बाद इरादा भी जाहिर हो गया है. भले ही कैप्टन अमरिंदर सिंह स्पष्ट नीति और साफ मकसद के साथ चुनावी मैदान में छलांग लगाने को कितने ही आतुर क्यों न हों - एक चीज तो पूरी तरह साफ है, न तो वो भी सरकार बनाने की स्थिति में, न ही बीजेपी जिसके साथ वो गठबंधन या सीटों के तालमेल की तरफ इशारा कर रहे हैं.
एक मकसद तो पूरी तरह साफ है. कैप्टन अमरिंदर सिंह को का एक ही मकसद है - कांग्रेस नेतृत्व से बदला और सिर्फ बदला ही लेना है. एक बात और भी है, उनको हार से से भी कोई परहेज नहीं है, लेकिन बगैर चुनाव में कूदे वो ऐसा नहीं करेंगे. वैसे भी हर योद्धा का इरादा ऐसा ही होता है - और राजनीति में आने से पहले से ये विचार सेना में रहते ही उनके मन में उपजा होगा, ऐसा समझा भी जा सकता है.
जहां तक कांग्रेस को डैमेज करने में कैप्टन अमरिंदर सिंह को बीजेपी की मदद का सवाल है, वो बीजेपी देगी ही. ये बिलकुल स्वाभाविक है - और अमित शाह से मुलाकात के बाद को ये पक्का भी हो चुका है. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से मुलाकात का असर भी देखने को मिला है. जब पंजाब में भी बीएसएफ को ज्यादा अधिकार दिये जाने की खबर आयी तो यही समझ में आया क्योंकि कुछ राज्यों में जहां बीएसएफ के अधिकार क्षेत्र का दायरा कम कर दिया गया है, कई जगह यथास्थिति भी रखी गयी है.
अब अपनी पार्टी बना लेने और बीजेपी से मदद मिल जाने के बाद भी कैप्टन अमरिंदर सिंह अभी के हिसाब से अपनी या बीजेपी की सरकार बना या बनवा पाने की स्थिति में तो बिलकुल भी नहीं ही लगते हैं, लिहाजा ले देकर एक ही मकसद पूरा होता नजर आता है - कांग्रेस की बर्बादी. और इसका सीधा सीधा मतलब ये हुआ कि बीजेपी की मंशा के मुताबिक 'कांग्रेस मुक्त पंजाब' बनाना.
अब सवाल ये उठता है कि अगर कांग्रेस सत्ता में लौटेगी नहीं, कैप्टन अमरिंदर सिंह अपनी सरकार बना पाने की स्थिति में होंगे नहीं - और बीजेपी ने अब तक ऐसा कोई इरादा जाहिर नहीं किया है, ऐसे में कैप्टन का हासिल क्या होगा? क्योंकि वो तो पंजाब की सभी सीटों पर चुनाव लड़ने के मूड में भी नहीं नजर आ रही है. अब तक तो यही बात सामने आयी है कि बीजेपी पंजाब के हिंदू बहुल सीटों पर अपने स्तर पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है.
अब तक जो हाल है, आम आदमी पार्टी को 2017 के मुकाबले ज्यादा फायदा मिलने की गुंजाइश बन रही है, बशर्ते वो फायदा हासिल करने में सफल भी हो पाये - क्योंकि अब तक का आप का ट्रैक रिकॉर्ड ऐसा ही लगा है जैसे वो हड़बड़ी में बहुत सारी चीजें गवां देती है - दिल्ली का मामला अभी तक अपवाद बना हुआ है. समझने वाली बात ये भी है कि अब तक अरविंद केजरीवाल पंजाब में AAP को बेहतर विकल्प के तौर पर पेश नहीं कर पाये हैं, यहां तक कि पिछली बार के मुकाबले भी - जबकि हाल फिलहाल सत्ता की सीढ़ी काफी साफ सुधरी दिखायी पड़ रही है.
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