जब पंजाब के मुख्यमंत्री पद पर कैप्टन अमरिंदर सिंह पिछले कार्यकाल में विराजमान हुए थे, तो जब कभी भी उनके फैसलों से लेकर उनके वक्तव्य पर ध्यान जाता था. तो लगता था कि वह कांग्रेस में निहित विचारधारा से दूर और भाजपा से पास हैं और तब यह अनुमान भी अपने आप लग जाता था कि, चाहे कुछ भी हो, अमरिंदर सिंह अकाली और कांग्रेसी ही रहे हों लेकिन उनका भाजपाई बनने का दिन जरूर देखने को मिलेगा.
वह दिन आ ही गया है. इसकी रूपरेखा तो उनके कांग्रेस में घटते वर्चस्व से ही शुरू हो गयी थी. हरीश रावत का पंजाब प्रभारी होने के नाते उनके व्यवहार के अनुरूप वर्चस्ववाद में कैप्टन और सिद्धू की वर्चस्ववाद की लड़ाई हो या फिर कैप्टन का कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद से विदा होना हो. यह सब तो इसके पड़ाव थे लेकिन सबसे बड़ा पड़ाव था उनका अपनी पार्टी बनाना.
वह एक अनुभवी राजनेता हैं लेकिन उनकी गणित चूक गयी. वह समझ रहे थे कि, वह एक ऐसी पार्टी का निर्माण कर उसे जनता के बीच लोकप्रिय बनवा पाएंगे. जिसकी हर एक शक्ति उनके हाथों में ही हो इसलिए उन्होंने उस समय भाजपा से सीधे ना जाकर अपनी पार्टी बना भाजपा से गठबंधन किया. अगर हम और सोचें तो शायद किसान आंदोलन की नाराजगी और तात्कालिक परिस्थितियों में वह भाजपा में सीधे जाकर कुछ फायदा भी शायद ही दे सकते थे.
लेकिन उनका नई पार्टी का कदम जम नही पाया और बुरी तरह चुनाव में हार का सामना करना पड़ा. हार के बाद कैप्टन के सामने सवाल यही था कि इस उम्र में सड़क से लेकर विधानसभा तक लड़कर क्या नई नवेली पार्टी को वो पहचान दिलवा पाएंगे? और उत्तर उन्हें मिल ही गया था और समय समय पर मिल ही रहा था.
जिस तरह भाजपा ने किसान...
जब पंजाब के मुख्यमंत्री पद पर कैप्टन अमरिंदर सिंह पिछले कार्यकाल में विराजमान हुए थे, तो जब कभी भी उनके फैसलों से लेकर उनके वक्तव्य पर ध्यान जाता था. तो लगता था कि वह कांग्रेस में निहित विचारधारा से दूर और भाजपा से पास हैं और तब यह अनुमान भी अपने आप लग जाता था कि, चाहे कुछ भी हो, अमरिंदर सिंह अकाली और कांग्रेसी ही रहे हों लेकिन उनका भाजपाई बनने का दिन जरूर देखने को मिलेगा.
वह दिन आ ही गया है. इसकी रूपरेखा तो उनके कांग्रेस में घटते वर्चस्व से ही शुरू हो गयी थी. हरीश रावत का पंजाब प्रभारी होने के नाते उनके व्यवहार के अनुरूप वर्चस्ववाद में कैप्टन और सिद्धू की वर्चस्ववाद की लड़ाई हो या फिर कैप्टन का कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद से विदा होना हो. यह सब तो इसके पड़ाव थे लेकिन सबसे बड़ा पड़ाव था उनका अपनी पार्टी बनाना.
वह एक अनुभवी राजनेता हैं लेकिन उनकी गणित चूक गयी. वह समझ रहे थे कि, वह एक ऐसी पार्टी का निर्माण कर उसे जनता के बीच लोकप्रिय बनवा पाएंगे. जिसकी हर एक शक्ति उनके हाथों में ही हो इसलिए उन्होंने उस समय भाजपा से सीधे ना जाकर अपनी पार्टी बना भाजपा से गठबंधन किया. अगर हम और सोचें तो शायद किसान आंदोलन की नाराजगी और तात्कालिक परिस्थितियों में वह भाजपा में सीधे जाकर कुछ फायदा भी शायद ही दे सकते थे.
लेकिन उनका नई पार्टी का कदम जम नही पाया और बुरी तरह चुनाव में हार का सामना करना पड़ा. हार के बाद कैप्टन के सामने सवाल यही था कि इस उम्र में सड़क से लेकर विधानसभा तक लड़कर क्या नई नवेली पार्टी को वो पहचान दिलवा पाएंगे? और उत्तर उन्हें मिल ही गया था और समय समय पर मिल ही रहा था.
जिस तरह भाजपा ने किसान आंदोलन के सामने नतमस्तक हो फैसला बदला और धीरे धीरे भाजपा के प्रति पंजाब में असन्तोष कम होने लगा तथा भाजपा पंजाब में अपना कुनबा बढ़ाने लगी तो कैप्टन को लगा कि उनको अब राजनीति में नाम बनाये रखना है तो भाजपा में प्रवेश करना पड़ेगा जिससे उनकी पुत्री का राजनीतिक भविष्य सुरक्षित हो सके तथा उनकी किसी संविधानिक पद पर ताजपोशी हो सके. और शायद जल्द ही आपको यह ताजपोशी दिखेगी भी.
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