चिराग पासवान (Chirag Paswan) अगर खुद को वास्तव में हनुमान मानते हैं तो राम के साथ केवट प्रसंग को एक बार न सिर्फ याद कर लेना चाहिये, बल्कि वो ट्रिक आजमानी भी चाहिये - रामायण काल में राम की भक्ति के लिए हनुमान को तो कोई ट्रिक नहीं आजमानी पड़ी थी, लेकिन केवट को ऐसा इसलिए भी करना पड़ा क्योंकि वो अवसर गंवाना नहीं चाहता था.
जिंदगी के किसी भी क्षेत्र में अवसर गिने चुने ही मिलते हैं. चिराग पासवान की जिंदगी तो राजनीति में बचपन से ही रमी हुई है. चिराग पासवान के लिए उनके पिता ने सिर्फ विरासत ही नहीं छोड़ी है, अपनी आंखों के सामने पुख्ता इंतजाम भी कर दिया था. अब विरासत की रखवाली की जिम्मेदारी तो चिराग पासवान पर ही थी, लेकिन थोड़ी देर के लिए पलक झपक गयी और एक मानवीय हादसे के शिकार हो गये.
चिराग पासवान अभी युवा हैं और बिहार में होने वाले अगले चुनाव में युवाओं का ही बोलबाला रहने वाला है, जबकि उनके चाचा पशुपति कुमार पारस 2025 तक 70 की उम्र भी पार कर चुके होंगे - यानी वो तात्कालिक मुश्किल तो हो सकते हैं, लेकिन लंबे समय तक के लिए नहीं. वैसे भी उनकी राजनीति अपने भाई रामविलास पासवान की वजह से चलती आयी है. अब भी अगर लोक जनशक्ति पार्टी के नेता बने हुए हैं तो जो भी उनके साथ खड़ा है वो लंबे रेस का साथी नहीं है.
जैसे ही एलजेपी सांसदों को मालूम होगा कि बयार उलटी बहने लगी है, तत्काल प्रभाव से वे पशुपति पारस का साथ छोड़ कर माफी मांगते हुए चिराग पासवान की तरफ दौड़ पड़ेंगे. पश्चिम बंगाल में हाल फिलहाल यही तो हो रहा है. टीएमसी के जिन नेताओं को सामने हवाई किला नजर आया था, वे जैसे तैसे घरवापसी के जुगाड़ में जुट गये हैं.
मालूम नहीं चिराग पासवान के सलाहकार साथी सौरभ पांडेय जामवंत की भूमिका निभा रहे हैं या नहीं....
चिराग पासवान (Chirag Paswan) अगर खुद को वास्तव में हनुमान मानते हैं तो राम के साथ केवट प्रसंग को एक बार न सिर्फ याद कर लेना चाहिये, बल्कि वो ट्रिक आजमानी भी चाहिये - रामायण काल में राम की भक्ति के लिए हनुमान को तो कोई ट्रिक नहीं आजमानी पड़ी थी, लेकिन केवट को ऐसा इसलिए भी करना पड़ा क्योंकि वो अवसर गंवाना नहीं चाहता था.
जिंदगी के किसी भी क्षेत्र में अवसर गिने चुने ही मिलते हैं. चिराग पासवान की जिंदगी तो राजनीति में बचपन से ही रमी हुई है. चिराग पासवान के लिए उनके पिता ने सिर्फ विरासत ही नहीं छोड़ी है, अपनी आंखों के सामने पुख्ता इंतजाम भी कर दिया था. अब विरासत की रखवाली की जिम्मेदारी तो चिराग पासवान पर ही थी, लेकिन थोड़ी देर के लिए पलक झपक गयी और एक मानवीय हादसे के शिकार हो गये.
चिराग पासवान अभी युवा हैं और बिहार में होने वाले अगले चुनाव में युवाओं का ही बोलबाला रहने वाला है, जबकि उनके चाचा पशुपति कुमार पारस 2025 तक 70 की उम्र भी पार कर चुके होंगे - यानी वो तात्कालिक मुश्किल तो हो सकते हैं, लेकिन लंबे समय तक के लिए नहीं. वैसे भी उनकी राजनीति अपने भाई रामविलास पासवान की वजह से चलती आयी है. अब भी अगर लोक जनशक्ति पार्टी के नेता बने हुए हैं तो जो भी उनके साथ खड़ा है वो लंबे रेस का साथी नहीं है.
जैसे ही एलजेपी सांसदों को मालूम होगा कि बयार उलटी बहने लगी है, तत्काल प्रभाव से वे पशुपति पारस का साथ छोड़ कर माफी मांगते हुए चिराग पासवान की तरफ दौड़ पड़ेंगे. पश्चिम बंगाल में हाल फिलहाल यही तो हो रहा है. टीएमसी के जिन नेताओं को सामने हवाई किला नजर आया था, वे जैसे तैसे घरवापसी के जुगाड़ में जुट गये हैं.
मालूम नहीं चिराग पासवान के सलाहकार साथी सौरभ पांडेय जामवंत की भूमिका निभा रहे हैं या नहीं. कहने को तो चिराग के चचेरे भाई प्रिंस राज का यही कहना है कि चिराग पासवान अपने सलाहकार के इशारे पर ही चलते हैं - और पार्टी के साथ साथ परिवार भी जिस संकट से गुजर रहा है ताना बाना चिराग के सलाहकार का ही बुना हुआ है.
संभव है चिराग पासवान के सलाहकार के दिमाग में भी संकट की घड़ी में कोई कारगर रास्ता नहीं सूझ रहा हो, लेकिन अपने राम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने थोड़ी देर के लिए चिराग पासवान को केवट बन जाने की जरूरत आ पड़ी है. जैसे केवट ने राम को नदी पार कराने से पहले अच्छी तरह बारगेन किया था, चिराग के सामने भी तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) की आरजेडी के रूप में एक नाव खड़ी है जो संकट की नदी पार करा सकती है, लेकिन वो नाव इतनी भी भरोसमंद नहीं है - वो नाव मझधार में डुबा भी सकती है.
जैसे केवट ने नदी पार कराने से पहले राम के पांव पखारने की बात मनवा ली थी, चिराग पासवान को भी आरजेडी की तरफ अपने झुकाव का कोई संकेत देकर बीजेपी के साथ हिसाब बराबर करने की कोशिश करनी चाहिये और अपने राम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की मदद लेने की कोशिश करनी चाहिये - राजनीति में त्याग करके तपस्या पूरी नहीं की जा सकती. राजनीति में वो रास्ता संन्यास की तरफ लेकर चला जाता है - और हर संन्यासी योगी आदित्यनाथ भी तो नहीं होता.
चिराग पासवान के सामने बड़ा सवाल है - 'बिहार में का बा?'
राजस्थान विधानसभा चुनावों में प्रचार के दौरान यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हनुमान को दलित बताया था - और बिहार के उन 16 फीसदी दलितों में 6 फीसदी से ज्यादा की हिस्सेदारी रखने वाले पासवान समुदाय के नेता हैं - चिराग पासवान.
जो सबसे बड़ा सपोर्ट होता है, मुश्किलों की बड़ी वजह भी वही बन जाता है. ये पासवान वोट बैंक ही है जो चिराग पासवान की सबसे बड़ी ताकत है, लेकिन आबादी में यादव या मुस्लिम से कम होने के चलते उसकी अलग मुश्किलें हैं.
रामविलास पासवान भी अपनी राजनीति का ज्यादातर हिस्सा केंद्र की सत्ता में रहते बिताये, लेकिन बिहार की राजनीति में वो कभी मुख्यमंत्री बनने की हैसियत में नहीं आ सके. चिराग पासवान चूंकि उसी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, बिलकुल वही समस्याएं चिराग के सामने भी चुनौती बन कर खड़ी हो जाती हैं.
राज्यों की राजनीति में अकेले और निर्दल विधायक होते हुए भी मुख्यमंत्री बन जाने की मिसाल झारखंड में मधु कोड़ा भी रहे हैं, लेकिन ऐसे किस्से बार बार दोहराये भी तो नहीं जाते.
जहां तक जनाधार की बात है, तो नीतीश कुमार का जातिगत वोट तो चिराग पासवान से भी कम है, लेकिन ये भी तभी हो पाएगा जब किसी दिन चिराग पासवान भी नीतीश कुमार बन पायें. नीतीश कुमार बिहार की राजनीति में वो ब्रांड बन चुके हैं जो अपने जातिगत जनाधार का मोहताज नहीं है - और इतना ताकतवर है कि हाल के विधानसभा चुनावों में जेडीयू के मुकाबले ज्यादा ताकत हासिल करने के बावजूद बीजेपी की हिम्मत नहीं हुई कि वो अपना मुख्यमंत्री बना सके.
ले देकर चिराग पासवान को भी अपने पिता की ही पॉलिटिकल लाइन सूट करती है. अब चाहे वो दिल्ली की राजनीति का फैसला करें या फिर बिहार की राजनीति में पांव जमाने का.
बिहार की राजनीति में चिराग पासवान अगर लालू यादव की पार्टी आरजेडी से हाथ मिला भी लेते हैं तो मुख्यमंत्री तो बनने से रहे, अगर मौजूदा समीकरण ही आगे बने रहे. भले ही चिराग पासवान तेजस्वी यादव को छोटा भाई बतायें, लेकिन वो चिराग पासवान से बड़े वोट बैंक के नेता बन चुके हैं - और जिस चुनाव में चिराग पासवान, चाहे जैसी ही परिस्थितियां रही हों, महज एक सीट ही हासिल कर सके, जबकि तेजस्वी यादव ने बीजेपी को भी पीछे छोड़ते हुए आरजेडी को सबसे बड़ी पार्टी बना दिया.
जिस तरह से तेजस्वी की टीम चिराग पासवान पर डोरे डाल रही है, महागठबंधन में शामिल होने के बावजूद तेजस्वी यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद जीतनराम मांझी या मुकेश साहनी वाली स्थिति में ही होंगे - कहीं दोस्ती ज्यादा गहरी हुई तो डिप्टी सीएम भी बन सकते हैं.
अगर मंत्री ही बने रहना है तो चिराग पासवान के पास दिल्ली में भी मंत्री बनने का मौका होगा ही - और इसके लिए कोई नयी राह भी नहीं बनानी बल्कि पिता के दिखाये रास्ते पर चलते हुए सत्ताधारी पार्टी के साथ हाथ मिलाये रखना है. राम विलास पासवान तो चुनाव से पहले ही समझ जाते थे कि किसकी सरकार बनने वाली है, लिहाजा चुनाव से पहले ही गठबंधन कर लिया करते थे. कहा तो ये भी जाता है कि एनडीए के साथ गठबंधन का आइडिया चिराग पासवान का ही रहा.
अब हर कोई रामविलास पासवान जैसा राजनीति का मौसम वैज्ञानिक हो भी तो नहीं सकता, ऐसे में चिराग पासवान के लिए अच्छा होगा कि वो अपने वोट बैंक को साथ बनाये रखने पर फोकस रहें - और सत्ता की राजनीति के लिए चुनाव नतीजे आने के बाद गठबंधन की कोशिश करें. रिस्क तो दोनों ही तरीकों में बराबर ही है.
अब जब तक बीजेपी के केंद्र की सत्ता में बने रहने के आसार हैं, चिराग पासवान को चाहिये कि हनुमान का रोल थोड़ी देर के लिए ताखे पर रख कर केवट की तरह बीजेपी के साथ भूल-चूक लेनी देनी वाले अंदाज में ही सही, भरपूर बारगेन करें - चिराग पासवान को ये नहीं भूलना चाहिये कि बीजेपी नेतृत्व पूरे होशो हवास में जब नीतीश कुमार को कमजोर कर डाला तो भला लालू की पार्टी को क्यों मजबूत होने देगा.
बीजेपी और आरजेडी में चिराग के लिए बेहतर कौन
जब अपने बूते राजनीति करने का माद्दा न हो तो गठबंधन का रास्ता ही अख्तियार करना पड़ता है - और केंद्र में भले ही बीजेपी 2019 के बाद मजबूत हो गयी हो, लेकिन अब भी कुछ ही राज्यों में वो बगैर गठबंधन के खड़े होने की स्थिति में नहीं है. यहां तक कि यूपी जैसे राज्य में भी चुनाव के पहले बीजेपी नेतृत्व को अनुप्रिया पटेल और संजय निषाद के साथ हंस हंस कर बात करना पड़ रहा है. बिहार में तो बीजेपी चिराग पासवान की बदौलत नीतीश कुमार को कमजोर कर देने के बाद भी अकेले सरकार बनाना तो दूर अपना सीएम बनाने की स्थिति अभी तक तो नहीं ही पहुंच पायी है.
चिराग पासवान पर तेजस्वी यादव की तरफ से उसी भावनात्मक तरीके से डोरे डाले जा रहे हैं, जैसे वो खुद अपने पिता की जयंती पर उनकी कर्मभूमि हाजीपुर से आशीर्वाद यात्रा शुरू करने जा रहे हैं. ध्यान देने वाली बात ये भी है कि उनके बागी चाचा पशुपति पारस फिलहाल हाजीपुर से ही लोक सभा सांसद हैं. चिराग पासवान की रणनीति है कि पहले हाजीपुर के लोगों के बीच जाकर ही समझाया जाये कि कैसे उनके साथ नाइंसाफी हो रही है.
संयोग से 5 जुलाई को रामविलास पासवान की जयंती के दिन ही राष्ट्रीय जनता दल का स्थापना दिवस है - और ये ऐसा मौका है जब लालू प्रसाद यादव भी जेल से बाहर हैं. अब आरजेडी की कोशिश है कि पार्टी के स्थापना दिवस की तैयारी के साथ साथ पासवान जयंती के मौके का भी अगर हो सके तो फायदा उठाया जाये.
कोई दो राय नहीं कि लालू और तेजस्वी यादव की भी पासवान वोट बैंक पर ही नजर है. हालांकि, आरजेडी और पासवान के बीच पहले हुए चुनावी गठबंधन का भी कोई खास फायदा नहीं मिलते देखा गया है. फिर भी बिहार विधानसभा चुनाव में आरजेडी की जो हैसियत बनी अगर चिराग पासवान साथ होते तो समीकरण काफी अलग हो सकते थे.
सवाल ये है कि जहां आरजेडी की नजर है क्या बीजेपी उसे इतनी आसानी से हाथ से जाने देगी? आखिर चिराग पासवान की बदौलत ही तो बीजेपी नीतीश कुमार को सस्ते में समेट पायी है - और जिस तरह नीतीश कुमार भीतर ही भीतर तैयारी कर रहे हैं, बीजेपी को कब मौका मिलते ही छोड़ दें, ये अमित शाह भी जानते हैं और जेपी नड्डा भी.
ऐसे में अगर चिराग पासवान भी हाथ से फिसल कर आरजेडी में चले गये तो बीजेपी के बने बनाये सारे समीकरण ही गड़बड़ हो जाएंगे. अगर चिराग को भी ऐसा लगता है कि बीजेपी के लिए अब भी वो पहले जितना ही महत्व रखते हैं तो इसका आभास कराने की कोशिश भी करनी चाहिये.
अगर बीजेपी की चिराग पासवान की पार्टी में दिलचस्पी नहीं होती तो वो टूट जाने देती. अंदर अंदर जो तैयारी थी, उसमें होने तो यही जा रहा था. ये तो बीजेपी ही है जो पार्टी को न टूटने देने के लिए बीच का रास्ता निकाल लिया. स्पीकर से मिलने पहुंच पशुपति पारस और एलजेपी सांसदों को बिहार प्रभारी भूपेंद्र यादव और बिहार बीजेपी अध्यक्ष संजय जायसवाल ने समझा बुझाकर नेता बनने का मौका भी दे दिया, एलजेपी को टूटने से भी बचा लिया और चिराग पासवान पर दबदबा बनाये रखा.
अब चिराग पासवान चाहें तो तेजस्वी यादव से हाथ मिला लेने का माहौल बनाकर बीजेपी के खिलाफ प्रेशन पॉलिटिक्स की मदद ले सकते हैं, जैसा कि नीतीश कुमार अक्सर करते रहते हैं. ऐसी संभावना कम ही है कि बीजेपी चिराग पासवान को आरजेडी के साथ जाने देगी - क्योंकि जरूरी तो नहीं कि चिराग पासवान के आरजेडी से हाथ मिला लेने के बाद बीजेपी को अगले चुनाव में ही नुकसान हो - सरकार का क्या कभी भी गिरायी जा सकती है.
चिराग पासवान को बीजेपी के बाद आरजेडी की भी इस्तेमाल करने की ही कोशिश है, लेकिन चिराग पासवान के लिए अब और इस्तेमाल होते रहना कुल्हाणी पर सिर दे मारने जैसा ही होगा. अब चाहिये कि चिराग पासवान बिहार चुनाव में बीजेपी के लिए जो निवेश किया था, उसे लेकर जल्द से जल्द इस्तेमाल कर लें - और चिराग पासवान के लिए आरजेडी का भी बस इतना ही इस्तेमाल फायदेमंद भी है. आगे तो सिर्फ घाटा ही होना है.
वैसे तो नये नये प्रयोग किये जाने के विकल्प हमेशा ही मौजूद रहते हैं, लेकिन चिराग पासवान के सामने प्रमुख तौर पर दो ही रास्ते हैं - एक, या तो वो अपने पिता के रास्ते पर चलें - या फिर नयी राह खुद बनायें. राह बनाना बहुत मुश्किल है.
बीजेपी भी चिराग पासवान से नीतीश कुमार के दबाव में ही दूरी बनाये हुए है. हो सकता है चिराग पासवान पिता की तरह मोदी कैबिनेट का हिस्सा न बन पायें, लेकिन बीजेपी की मदद से वो संसदीय दल के नेता और लोक जनशक्ति के निर्विवाद अध्यक्ष तो बने ही रह सकते हैं.
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