जो सब सोच रहे थे वही हुआ. देश के मुख्य न्यायाधीश को यौन उत्पीड़न के मामले में क्लीन चिट मिल गई. इन हाउस पैनल ने उनको साफ शफ्फाक बता दिया. लेकिन क्या कहानी यहीं खत्म हो जाती है? सीधा जवाब मिलेगा- नहीं. क्योंकि ये कोई आम किस्सा नहीं है जिसका अंत होता है कि फिर वो सुख से रहने लगे.
अभी तो इस पेचीदा मामले की कई कड़ियां जुड़नी हैं. कई दुरभिसंधियों का खुलासा होना है. आखिर कौन हैं जो इस साजिश के पीछे रह कर भी मौन हैं. जिनको सुप्रीम कोर्ट से खुंदक निकालनी है. क्योंकि ये सिर्फ आपसी सहमति या फिर दबाव और प्रभाव की आड़ में यौन उत्पीड़न का मामला भर नहीं बल्कि एक पूरा अमला है जो अपना हित साधने के लिए सुप्रीम कोर्ट के जजों की कमजोर नस दबा कर काबू करना चाहता है.
ऐतिहासिक आख्यानों में विषकन्या या फिर आधुनिक काल में हनी ट्रैप के कई किस्से हैं. हकीकत और फसाने का बड़ा संसार है. सीजेआई जस्टिस रंजन गोगोई की इस `लीला' को दूसरे नजरिये से देखें तो साजिश के तार साफ साफ दिखाई पड़ने लगते हैं. 22 अप्रैल की शाम ढल रही है. उसी धुंधलके में जैसे ही कथित पीड़ित महिला और सुप्रीम कोर्ट की ही पूर्व कर्मचारी अपनी बातों का खुलासा करती है ठीक उसी समय या उससे कुछ पहले एक युवा वकील भी कुछ खुलासा करने की लालसा से चीफ जस्टिस के घर पहुंचता है. महिला का आरोपपत्र सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों के पास पहुंचता है. उससे कुछ घंटे पहले चंडीगढ़ का वकील उत्सव बैंस चीफ जस्टिस के उसी सरकारी आवास पर पहुंचता है जिसके बारे में आरोपपत्र में जिक्र है. उत्सव चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को बताना चाहता है कि कई लोग उनके खिलाफ साजिश में जुटे हैं. उन लोगों में से कुछ ने मुझसे मुलाकात भी की और एक बड़ी रकम का ऑफर भी दिया कि ऐसा एप्लीकेशन ड्राफ्ट किया जाए जिससे चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को बुरी तरह फंसाया जा सके. वो उन लोगों के बारे में भी चीफ जस्टिस को बताना चाहता था. लेकिन चीफ जस्टिस के आवास पर तैनात स्टाफ बताता है कि माईलॉर्ड घर पर नहीं हैं. परेशान होकर उत्सव लौट...
जो सब सोच रहे थे वही हुआ. देश के मुख्य न्यायाधीश को यौन उत्पीड़न के मामले में क्लीन चिट मिल गई. इन हाउस पैनल ने उनको साफ शफ्फाक बता दिया. लेकिन क्या कहानी यहीं खत्म हो जाती है? सीधा जवाब मिलेगा- नहीं. क्योंकि ये कोई आम किस्सा नहीं है जिसका अंत होता है कि फिर वो सुख से रहने लगे.
अभी तो इस पेचीदा मामले की कई कड़ियां जुड़नी हैं. कई दुरभिसंधियों का खुलासा होना है. आखिर कौन हैं जो इस साजिश के पीछे रह कर भी मौन हैं. जिनको सुप्रीम कोर्ट से खुंदक निकालनी है. क्योंकि ये सिर्फ आपसी सहमति या फिर दबाव और प्रभाव की आड़ में यौन उत्पीड़न का मामला भर नहीं बल्कि एक पूरा अमला है जो अपना हित साधने के लिए सुप्रीम कोर्ट के जजों की कमजोर नस दबा कर काबू करना चाहता है.
ऐतिहासिक आख्यानों में विषकन्या या फिर आधुनिक काल में हनी ट्रैप के कई किस्से हैं. हकीकत और फसाने का बड़ा संसार है. सीजेआई जस्टिस रंजन गोगोई की इस `लीला' को दूसरे नजरिये से देखें तो साजिश के तार साफ साफ दिखाई पड़ने लगते हैं. 22 अप्रैल की शाम ढल रही है. उसी धुंधलके में जैसे ही कथित पीड़ित महिला और सुप्रीम कोर्ट की ही पूर्व कर्मचारी अपनी बातों का खुलासा करती है ठीक उसी समय या उससे कुछ पहले एक युवा वकील भी कुछ खुलासा करने की लालसा से चीफ जस्टिस के घर पहुंचता है. महिला का आरोपपत्र सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों के पास पहुंचता है. उससे कुछ घंटे पहले चंडीगढ़ का वकील उत्सव बैंस चीफ जस्टिस के उसी सरकारी आवास पर पहुंचता है जिसके बारे में आरोपपत्र में जिक्र है. उत्सव चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को बताना चाहता है कि कई लोग उनके खिलाफ साजिश में जुटे हैं. उन लोगों में से कुछ ने मुझसे मुलाकात भी की और एक बड़ी रकम का ऑफर भी दिया कि ऐसा एप्लीकेशन ड्राफ्ट किया जाए जिससे चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को बुरी तरह फंसाया जा सके. वो उन लोगों के बारे में भी चीफ जस्टिस को बताना चाहता था. लेकिन चीफ जस्टिस के आवास पर तैनात स्टाफ बताता है कि माईलॉर्ड घर पर नहीं हैं. परेशान होकर उत्सव लौट जाता है.
कहानी की अगली कड़ी मीडिया से भी जुड़ती है. महिला की ओर से सभी जजों को 20 पेज का हलफनामा जाता है. जिसमें यौन उत्पीड़न का पूरा ब्यौरा दर्ज है. मिनट मिनट और सांस सांस का हिसाब. कब किसने क्या कहा कैसे छुआ और कैसे सताया. सब कुछ. इससे पहले कि सुप्रीम कोर्ट के माईलॉर्ड कुछ समझ पाएं या उस पर विचार किया जाए इसका मौका ही नहीं मिला. क्योंकि वही हलफनामा चार मीडिया हाउस के हाथ भी लग चुका था. उन्होंने ठसके से उसे हवा में लहरा दिया यानी सब कुछ ऑन एयर हो जाता है. अब सवाल ये कि चीफ जस्टिस के लाख नजदीक होने के बावजूद क्या उस महिला के इन मीडिया घरानों से ऐसे रसूख थे कि वो मिनटों में इतनी बड़ी खबर बन सुर्खियों में छा जाए. चीफ जस्टिस के खिलाफ बिना किसी जांच के बिना कोई `कोट' लिए सिर्फ एक पूर्व कर्मचारी के हलफनामे पर इतना बडा स्कूप अपनी अपनी साइट पर डाल दें. ये वो लोग कर रहे हैं जिन्होंने पीढ़ियों को पत्रकारिता के सबक याद कराए थे कि एकतरफा खबर नहीं जा सकती. उसे क्रास चेक करना ही पड़ेगा. आखिर कहां गई क्रेडिबिलिटी. हैरत की बात है कि लोग कभी दबी जबान से और अब खुले में ये कहते हैं कि इन चारों मीडिया घरानों की गर्भनाल जुड़ी हुई है. एंटी स्टेब्लिशमेंट. राजनीतिक चेतना और विचारधारा भी एक जैसी.
खैर, कहानी के अगले हिस्से की ओर बढ़ें. 23 अप्रैल को शनिवार की सुबह पौने ग्यारह बजे विशेष अदालत लगती है. चीफ जस्टिस दो साथी जजों के साथ आते हैं. संस्थान को खतरे में होने और हमलों की बात कहते हैं. अगले ही दिन उत्सव बैंस अपना हलफनामा दाखिल करते हैं. कहते हैं कि इस पूरे घटनाक्रम के पीछे कुछ कॉरपोरेट, फिक्सर और कोर्ट के गलियारों में घूमने वाले काले गाउन पहने लोग हैं. वो नहीं चाहते कि कोर्ट उनकी इच्छा के खिलाफ चले, आदेश या फिर फैसले दे.
पहले तो लोगों ने उत्सव के हलफनामे को पब्लिसिटी की भूख बताया. लेकिन अगले हफ्ते ही कुछ एजेंडा वाले वकील खुद ही बोल पड़े कि हां, हमने पीड़ित महिला का आरोपपत्र तैयार किया था. अब शाम का धुंधलका छंटने तो लगा लेकिन सिर्फ इतने भर से चीफ जस्टिस को मिली क्लीन चिट क्लीन नहीं हो जाती. क्योंकि मामला अब व्यक्ति नहीं व्यवस्था से जुड़ गया है सत्ता नहीं समाज से सरोकार को हो गया है.
इसलिए लाजिमी है कि सच सामने आये. आखिर वो कारपोरेट और फिक्सर क्या फैंटम की तरह अदृश्य रहकर ही काम करते रहेंगे या कानून के लंबे हाथ उन तक भी पहुंचेंगे. नई सरकार बनने जा रही है. नई व्यवस्था कब सामने आएगी. जब न्याय का नया नियम सामने आएगा. उत्पीड़न करने वाले को भी बख्शा ना जाए. और अपने इशारों पर इंस्टीट्यूशन को चलाने का ख्वाब देखने वाले भी बेनकाब हों.
शायद यही मौका हो जिससे देश में सम्यक न्याय प्रणाली का नया इतिहास लिखा जाए.
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