बेहतर तो ये होता कि राहुल गांधी कहते कि जब तक उनके नाम पर स्पष्ट जनादेश नहीं मिलता तब तक वो प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं बनेंगे. कांग्रेस की कुछ समस्याएं तो इतने भर से ही खत्म हो सकती हैं - कम से कम विपक्षी खेमे में स्वीकार्यता तो बढ़ ही सकती है.
राहुल गांधी ने इस्तीफे की पेशकश की और कांग्रेस कार्यसमिति ने सर्वसम्मति से खारिज कर दिया. वैसे राहुल गांधी से पहले इस्तीफे की पेशकश तो यूपी कांग्रेस अध्यक्ष राज बब्बर ने भी की थी और उसके बाद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी. कांग्रेस में इस्तीफे कैसे स्वीकार किये जाते हैं, बेहतरीन मिसाल अजय माकन हैं जिनका इस्तीफा लंबे समय के बाद विधानसभा चुनावों से ठीक पहले स्वीकार किया गया.
भावनात्मक बातें अपनी जगह हैं और व्यावहारिक राजनीति अपनी जगह. मंजिल हासिल करने के लिए कभी सर्जरी का सहारा लेना पड़ता है तो कभी सर्जिकल स्ट्राइक का - कांग्रेस नेतृत्व अगर दिल पर पत्थर रख कर फैसले नहीं लेगा तो कदम कदम पर ठोकर खाने के लिए भी तैयार रहना चाहिये.
गांधी परिवार से बाहर का अध्यक्ष!
राहुल गांधी के इस्तीफे की पेशकश में जो सबसे महत्वपूर्ण पहलू देखने को मिला है, वो है - गांधी परिवार से बाहर का हो कांग्रेस अध्यक्ष! कांग्रेस की हालिया परंपरा को देखते हुए ये सुनने में ही बहुत अजीब लगता है. ये ऐसी बात है जिसे कांग्रेस में बहुत सारे लोग तो सपने में भी नहीं सोच पाते होंगे. राहुल गांधी के इस्तीफे को भी रस्मअदायगी के तौर पर समझा जा सकता है. मगर, रस्मअदायगी में क्या इतनी कठोर बात भी की जा सकती है. अब ये तो नहीं मालूम कि ये किसी रणनीति के तहत कही गयी बात थी, या कुछ कुछ वैसी जैसी अविश्वास प्रस्ताव के दौरान संसद में देखने को मिली थी - जब राहुल गांधी भाषण देने के बाद जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से गले मिले और फिर अपनी सीट पर बैठते ही आंख मार दी थी.
राहुल गांधी का ये कहना कि अध्यक्ष गांधी परिवार से न हो - आइडिया अच्छा है. कांग्रेस की सेहत के लिए भी और मौजूदा राजनीतिक माहौल में खुद...
बेहतर तो ये होता कि राहुल गांधी कहते कि जब तक उनके नाम पर स्पष्ट जनादेश नहीं मिलता तब तक वो प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं बनेंगे. कांग्रेस की कुछ समस्याएं तो इतने भर से ही खत्म हो सकती हैं - कम से कम विपक्षी खेमे में स्वीकार्यता तो बढ़ ही सकती है.
राहुल गांधी ने इस्तीफे की पेशकश की और कांग्रेस कार्यसमिति ने सर्वसम्मति से खारिज कर दिया. वैसे राहुल गांधी से पहले इस्तीफे की पेशकश तो यूपी कांग्रेस अध्यक्ष राज बब्बर ने भी की थी और उसके बाद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी. कांग्रेस में इस्तीफे कैसे स्वीकार किये जाते हैं, बेहतरीन मिसाल अजय माकन हैं जिनका इस्तीफा लंबे समय के बाद विधानसभा चुनावों से ठीक पहले स्वीकार किया गया.
भावनात्मक बातें अपनी जगह हैं और व्यावहारिक राजनीति अपनी जगह. मंजिल हासिल करने के लिए कभी सर्जरी का सहारा लेना पड़ता है तो कभी सर्जिकल स्ट्राइक का - कांग्रेस नेतृत्व अगर दिल पर पत्थर रख कर फैसले नहीं लेगा तो कदम कदम पर ठोकर खाने के लिए भी तैयार रहना चाहिये.
गांधी परिवार से बाहर का अध्यक्ष!
राहुल गांधी के इस्तीफे की पेशकश में जो सबसे महत्वपूर्ण पहलू देखने को मिला है, वो है - गांधी परिवार से बाहर का हो कांग्रेस अध्यक्ष! कांग्रेस की हालिया परंपरा को देखते हुए ये सुनने में ही बहुत अजीब लगता है. ये ऐसी बात है जिसे कांग्रेस में बहुत सारे लोग तो सपने में भी नहीं सोच पाते होंगे. राहुल गांधी के इस्तीफे को भी रस्मअदायगी के तौर पर समझा जा सकता है. मगर, रस्मअदायगी में क्या इतनी कठोर बात भी की जा सकती है. अब ये तो नहीं मालूम कि ये किसी रणनीति के तहत कही गयी बात थी, या कुछ कुछ वैसी जैसी अविश्वास प्रस्ताव के दौरान संसद में देखने को मिली थी - जब राहुल गांधी भाषण देने के बाद जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से गले मिले और फिर अपनी सीट पर बैठते ही आंख मार दी थी.
राहुल गांधी का ये कहना कि अध्यक्ष गांधी परिवार से न हो - आइडिया अच्छा है. कांग्रेस की सेहत के लिए भी और मौजूदा राजनीतिक माहौल में खुद राहुल गांधी के लिए भी.
ये ठीक है कि प्रियंका गांधी को लगता है कि ये बीजेपी की चाल में फंसने वाली बात होगी - लेकिन कुछ दूरगामी फैसलों के पूर्वानुमान हर किसी को पहले ठीक ने नहीं हो पाता. कई बार रिस्क की आशंका को देखते हुए भी कड़े फैसले लेने पड़ते हैं.
प्रियंका गांधी वाड्रा का ये कहना भी सही है कि राहुल गांधी का इस्तीफा देना बीजेपी की चाल में फंसने वाली बात होगी. हो सकता है प्रियंका गांधी वाड्रा को 2004 का वो दिन याद आ रहा हो जब बीजेपी नेताओं के शोर मचाने के दबाव में अपने दम पर चुनाव जीतने के बाद भी सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया.
प्रियंका वाड्रा ने एक बात और कही है कि राहुल गांधी को अभी थोड़ा वक्त दिया जाये - कुछ दिन सोचने समझने और अनुशीलन करने से कुछ न कुछ तत्व की बात निकल कर तो आएगी ही. सच में राहुल गांधी पर वर्कलोड ज्यादा हो गया है.
लेकिन भावनाओं में बहकर राहुल गांधी की बात न सुनना. राहुल गांधी ने जो मुद्दा उठाया है उस पर बगैर विचार किये चापलूसी में खारिज कर देना राहुल गांधी और कांग्रेस दोनों के लिए ठीक नहीं है.
जिस तरह की पेशकश किये हैं उसके सबसे बड़े उदाहरण सचिन तेंदुलकर हैं. राहुल गांधी को भी सचिन तेंदुलकर की तरह कप्तानी के भार से मुक्त होकर खुल कर खेलना चाहिये.
ऐसा तो नहीं है कि राहुल गांधी बगैर बड़ी जिम्मेदारी कंधों पर लिये कुछ भी नहीं किये. दागी नेताओं से जुड़ा अध्यादेश फाड़ना वैधानिक तौर पर गलत हो सकता है - क्योंकि वो कैबिनेट का फैसला था - लेकिन अगर वो नहीं होता तो क्या लालू प्रसाद सजा से बच नहीं जाते और पटना में बैठ कर जेल में अपने कार्यकर्ताओं के लिए अधिकारियों को डांट फटकार नहीं लगा रहे होते. न्यायपालिका के साथ साथ ये चुनाव आयोग के लिए भी मुश्किलभरा होता. चुनाव सुधार और राजनीति के अपराधीकरण को रोकने की सारी कोशिशें बेमानी लगतीं.
बात पते की ये है कि ये काम कांग्रेस में सिर्फ और सिर्फ राहुल गांधी ही कर सकते हैं - सोचिये, अगर राहुल गांधी को ये सब करने का मौका नहीं मिलेगा तो भला सिस्टम को दुरूस्त करने का उनका सपना तो सपना ही रह जाएगा.
'मेरी बहन को मत घसीटो!'
कांग्रेस कार्यसमिति की मीटिंग में एक बात और भी सामने आयी कि राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा को भी अध्यक्ष बनाये जाने के पक्ष में नहीं हैं. राहुल गांधी के इस्तीफे की पेशकश को सोनिया गांधी और प्रियंका वाड्रा दोनों ने उनका अपना फैसला बताया था.
जब राहुल गांधी ने बैठक में खुद की जगह किसी और को अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी देने को कहा तो प्रियंका वाड्रा का नाम सामने आया. ये सुनते ही राहुल गांधी बिफर उठे.
राहुल गांधी बोले - 'मेरी बहन को इसमें मत खींचो.'
फिर राहुल गांधी ने कांग्रेस नेताओं को साफ साफ शब्दों में समझाया, 'हमें अपनी लड़ाई जारी रखनी होगी. मैं कांग्रेस का अनुशासित सिपाही हूं और रहूंगा - और बगैर डरे लड़ता रहूंगा, लेकिन मैं अब पार्टी का अध्यक्ष बनकर नहीं रहना चाहता.'
कुछ मुफ्त सलाह
1. सबसे पहले तो राहुल गांधी को अपने अत्यंत निजी सलाहकारों की टीम भंग कर देनी चाहिये. अगर दो-तीन काम के लायक हों तो रखकर बाकियों को बाहर कर देना चाहिये - ताकि वे 'चौकीदार चोर है' जैसे आत्मघाती नारों को आगे से लिखने से बाज आयें.
2. सोनिया गांधी की तरह राहुल गांधी को भी चाहिये कि भाषण हमेशा लिखा हुआ ही पढ़ें. अगर लिखी हुई बात पढ़ेंगे तो मुंह से ऐसा कभी नहीं निकल सकता कि 'मैं मोदी की छवि खराब कर दूंगा' - और वो बात बैकफायर करती. अगर इंटरव्यू देना बहुत ही जरूरी हो तो लिखित रूप में ही दें - ईमेल से ठीक रहेगा.
3. देखते देखते ऐसा लगने लगा है कि राहुल गांधी को प्रेस कांफ्रेंस का काफी शौक है. अच्छा है. शौक को कभी मारना नहीं चाहिये - लेकिन सवाल जवाब के लिए प्रवक्ताओं की तरफ इशारा कर दें. कैसे करना ठीक रहेगा जानने के लिए चाहें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की वो प्रेस कांफ्रेंस देख लें जो चुनाव प्रचार खत्म होने और मोदी के केदारनाथ की गुफा जाने से पहले हुई थी.
4. मणिशंकर अय्यर, सैम पित्रोदा और सिद्धू जैसे बयान बहादुरों को कम से कम अगल छह साल के लिए तो पार्टी से बाहर कर ही दें. ये सबक भी राहुल गांधी मोदी के संसद के सेंट्रल हाल के भाषण से सीख सकते हैं.
5. हर मोर्चे पर खुद खड़े हो जाने की बजाय लोगों से काम कराना सीखें. वन-मैन-शो की कामयाबी अपवाद ही है, सबके वश की बात नहीं. हर व्यक्ति की क्षमता अलग होती है. लोगों को जिम्मेदारी दें और उसकी समीक्षा करें और उसके हिसाब से ही अगला फैसला लें.
6. अगर कमान अपने हाथ में है तो खुद भी अनुशासित होना पड़ता है और बाकियों को भी अनुशासन में रखना होता है. सलमान खान का डायलॉग याद करें - मैंने एक बार कमिटमेंट कर दी तो फिर खुद की भी नहीं सुनता. फिर देखें कैसे किसी कमलनाथ, अशोक गहलोत या पी. चिदंबरम की मजाल होती है कि वो कोई हिमाकत करें.
7. यू-टर्न राजनीति में सफल हथियार रहा है. हालांकि, अरविंद केजरीवाल या अपनी बातों से पलट जाने वाले दूसरे नेताओं ने इसकी धार कुंद कर डाली है, फिर भी राहुल गांधी के काम आ सकता है. जैसे गुजरात चुनाव के दौरान 'विकास गांडो थयो छे' को राहुल गांधी ने वापस ले लिया था - 'चौकीदार चोर है' के मामले में भी कर सकते थे.
8. सुनें सबकी करें बिलकुल अपने मन की. हो सकता है कुछ फैसले गलत हों, लेकिन एक दिन वो भी आएगा जब गलतियां कम होंगी. ये शाश्वत सत्य है - 'करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान.'
9. कोई उन्हें 'पप्पू' समझता है या क्या सोचता है - इन सबकी परवाह छोड़ दें और राहुल गांधी अपने मिशन में पूरे फोकस के साथ जुटे रहें.
10. कार्यकर्ताओं को अपने पालतू जानवरों से थोड़ी ज्यादा अहमियत दें तो अच्छे दिन जल्दी आ सकते हैं. वैसे हिमंत बिस्व सरमा से ये जानकारी मिली थी - जो बहुत हद तक सही लगती है. ये ठीक है कि टॉम वडक्कन जैसे नेता के पार्टी छोड़ देने पर 'कोई बड़ा नेता नहीं' जैसा बयान दें लेकिन ये कोशिश जरूर हो कि कोई और हिमंता बिस्वा सरमा की तरह परेशान होकर पार्टी ने छोड़े.
इन्हें भी पढ़ें :
यूपी में जमानत जब्त कराने वाले कांग्रेस उम्मीदवारों के आंकड़े से राहुल-प्रियंका एक्सपोज
प्रियंका गांधीः खुली मुट्ठी खाक की
Rahul Gandhi resignation in CWC: और 'राहुल' ने राहुल का इस्तीफा अस्वीकार कर दिया!
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.