दिल्ली में कांग्रेस के सीनियर नेताओं के बाद अब लखनऊ से भी वैसी ही मांग उठी है - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूपी CM योगी आदित्यनाथ को टारगेट करने से नुकसान ही होगा, फायदा तो बिलकुल नहीं होने वाला. सिक्के का दूसरा पहलू भी समझ लेना चाहिये - अखिलेश यादव और मायावती को बख्श देने से भी नुकसान ही होगा, फायदा तो बिलकुल नहीं होने वाला.
यूपी में नये कांग्रेस अध्यक्ष के कार्यभार संभालने के मौके पर पूर्व PCC अध्यक्ष निर्मल खत्री की ओर से ये सलाह आयी है कि मोदी-योगी का नाम ले ले कर कोसने से कुछ भी नहीं होने वाला है. लगता है अब कांग्रेस की राजनीति का ये तरीका यूपी में बदलने वाला है - बयार उलटी बहने वाली है.
दिल्ली न सही, यूपी में कांग्रेस का स्टैंड बदलेगा
उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के नये अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू के कार्यभार संभालने के मौके पर भी नजारा बिलकुल वैसा ही दिखा जैसा फिलहाल हरियाणा और महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली तक देखा जा सकता है. दिल्ली में नये PCC अध्यक्ष की नियुक्ति से पहले भी तकरीबन वही हाल है जो हरियाणा में अशोक तंवर से कमान छीन कर कुमारी शैलजा और भूपिंदर सिंह हुड्डा को सौंपे जाने के बाद. राज बब्बर सहित कुच नेताओं ने जहां दूरी बनाये रखी, वहीं अदिति सिंह जैसे बागी की मौजूदगी का तो सवाल ही नहीं पैदा होता. बनारस के पूर्व कांग्रेस सांसद राजेश मिश्रा ने तो प्रियंका गांधी की सलाहकार परिषद का सदस्य बनने से पहले ही इंकार कर दिया था, लिहाजा उनका भी मौके से नदारद रहना पहले से ही मालूम होगा.
जो नेता लल्लू के स्वागत और साथ में डटे रहे उससे यूपी में कांग्रेस की नयी गुटबाजी भी साफ साफ नजर आयी. कांग्रेस नेता पीएल पुनिया, निर्मल खत्री, प्रमोद तिवारी और आराधना मिश्रा की मौजूदगी के कई संकेत भी हैं जिन्हें जातिगत पैमानों से लेकर फेमिली पॉलिटिक्स के तराजू में आसानी से तौला जा सकता है. पीएल पुनिया यूपी कांग्रेस के सीनियर नेता हैं तो निर्मल खत्री PCC अध्यक्ष रह चुके हैं और प्रमोद तिवारी तो लंबे वक्त तक कांग्रेस विधानमंडल दल...
दिल्ली में कांग्रेस के सीनियर नेताओं के बाद अब लखनऊ से भी वैसी ही मांग उठी है - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूपी CM योगी आदित्यनाथ को टारगेट करने से नुकसान ही होगा, फायदा तो बिलकुल नहीं होने वाला. सिक्के का दूसरा पहलू भी समझ लेना चाहिये - अखिलेश यादव और मायावती को बख्श देने से भी नुकसान ही होगा, फायदा तो बिलकुल नहीं होने वाला.
यूपी में नये कांग्रेस अध्यक्ष के कार्यभार संभालने के मौके पर पूर्व PCC अध्यक्ष निर्मल खत्री की ओर से ये सलाह आयी है कि मोदी-योगी का नाम ले ले कर कोसने से कुछ भी नहीं होने वाला है. लगता है अब कांग्रेस की राजनीति का ये तरीका यूपी में बदलने वाला है - बयार उलटी बहने वाली है.
दिल्ली न सही, यूपी में कांग्रेस का स्टैंड बदलेगा
उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के नये अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू के कार्यभार संभालने के मौके पर भी नजारा बिलकुल वैसा ही दिखा जैसा फिलहाल हरियाणा और महाराष्ट्र से लेकर दिल्ली तक देखा जा सकता है. दिल्ली में नये PCC अध्यक्ष की नियुक्ति से पहले भी तकरीबन वही हाल है जो हरियाणा में अशोक तंवर से कमान छीन कर कुमारी शैलजा और भूपिंदर सिंह हुड्डा को सौंपे जाने के बाद. राज बब्बर सहित कुच नेताओं ने जहां दूरी बनाये रखी, वहीं अदिति सिंह जैसे बागी की मौजूदगी का तो सवाल ही नहीं पैदा होता. बनारस के पूर्व कांग्रेस सांसद राजेश मिश्रा ने तो प्रियंका गांधी की सलाहकार परिषद का सदस्य बनने से पहले ही इंकार कर दिया था, लिहाजा उनका भी मौके से नदारद रहना पहले से ही मालूम होगा.
जो नेता लल्लू के स्वागत और साथ में डटे रहे उससे यूपी में कांग्रेस की नयी गुटबाजी भी साफ साफ नजर आयी. कांग्रेस नेता पीएल पुनिया, निर्मल खत्री, प्रमोद तिवारी और आराधना मिश्रा की मौजूदगी के कई संकेत भी हैं जिन्हें जातिगत पैमानों से लेकर फेमिली पॉलिटिक्स के तराजू में आसानी से तौला जा सकता है. पीएल पुनिया यूपी कांग्रेस के सीनियर नेता हैं तो निर्मल खत्री PCC अध्यक्ष रह चुके हैं और प्रमोद तिवारी तो लंबे वक्त तक कांग्रेस विधानमंडल दल के नेता रहे हैं. हाल तक लल्लू के पास ही ये जिम्मेदारी रही लेकिन उन्हें प्रदेश की कमान सौंपे जाने के बाद वो जिम्मेदारी आराधना मिश्रा यानी प्रमोद तिवारी की बेटी को मिल गयी है.
मौका ऐसा रहा कि हर नेता को कुछ बोलना था और वो बोला भी, लेकिन निर्मल खत्री ने जो मुद्दा उठाया वो कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है. साथ ही, पीएल पुनिया का निर्मल खत्री की बातों को लेकर सिद्धांततः सहमति जताना भी खास मायने रखता है.
अब तक यूपी में कांग्रेस नेतृत्व का स्टैंड यही रहा है कि वो अखिलेश यादव और मायावती को निशाना बनाने से परहेज करता रहा है, जबकि मोदी-योगी का नाम लेने के लिए बहाने खोजे जाते रहे हैं. आम चुनाव से पहले यूपी में बने सपा-बसपा गठबंधन के बनने से लेकर खत्म होने तक राहुल गांधी, सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा सभी का एक ही जैसा रवैया देखने को मिला है.
निर्मल खत्री की सलाह है - उत्तर प्रदेश की राजनीति ऐसी है कि इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का नाम लेते रहने से कुछ नहीं होने वाला है.
निर्मल खत्री ने कांग्रेस नेताओं को भविष्य के खतरों के प्रति आगाह करते हुए एक और सलाह भी दी, 'हमे सबसे पहले साइकल और हाथी को किनारे करना होगा.' साइकल अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी का चुनाव निशान है और हाथी मायावती की बीएसपी का सिंबल.
उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन बनने और बिखरने से पहले से और उसके बाद भी अखिलेश यादव और मायावती के कांग्रेस नेताओं के प्रति रवैये में जरा भी बदलाव नहीं आया है, फिर भी कांग्रेस नेतृत्व जाने किस संकोच के कारण खामोशी अख्तियार करता आया है.
कांग्रेस की नयी टीम ऐसा बिलकुल करने के मूड में नहीं लग रही है - और अगर आगे भी ऐसा ही तेवर रहा है तो मानकर चलना होगा कि कांग्रेस यूपी में समाजवादी पार्टी और बीएसपी की साथ बयानों में फ्रेंडली मैच आगे तो नहीं ही खेलने वाली है. चुनाव के दौरान तो कांग्रेस ने जगह जगह अपने उम्मीदवार उतार कर अखिलेश यादव और मायावती के गठबंधन को नुकसान तो काफी पहुंचाया था.
सूई की जगह तलवार चलाने से तो नुकसान ही होगा
सोनिया गांधी और राहुल गांधी या फिर प्रियंका गांधी वाड्रा किसी ने भी कांग्रेस के उन नेताओं की सलाह पर जरा भी ध्यान नहीं दिया जिसमें प्रधानमंत्री मोदी को खलनायक साबित करने से बचने की सलाह दी थी. सबसे पहले ये बात सीनियर कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने कही जिस पर अभिषेक मनु सिंघवी और शशि थरूर ने अपना समर्थन जताया था. आखिर करते भी क्या, वे सारे नेता चुप हो गये और बाकियों में से भी किसी ने ऐसे मुद्दे पर कुछ बोल कर मुसीबत मोल लेना ठीक नहीं समझा.
ये तो हो नहीं सकता कि निर्मल खत्री कुल्हाड़ी पर पैर मार रहे होंगे. जाहिर ऐसे बयान की मंजूरी या हिदायत दिल्ली से ही जारी हुई होगी. वरना, निर्मल खत्री वैसी सलाह क्यों देते जो बड़े बड़े नेताओं ने दी और नामंजूर हो गयी. ऐसा न मानने की कोई वजह ही नहीं बनती कि ये बात राहुल गांधी की सलाह से प्रियंका गांधी वाड्रा ने सोनिया गांधी की मंजूरी लेकर आगे बढ़ायी है.
सवाल ये है कि जो सुझाव सीनियर नेताओं ने राष्ट्रीय राजनीति के लिए दिया था उसे यूपी में लागू करने से क्या फायदा होगा? ऐसा तो नहीं कि फायदा होने की जगह नुकसान होने लगे?
कांग्रेस का ये स्टैंड फायदा पहुंचाएगा, ऐसा तो नहीं ही लगता. हो सकता है नुकसान ही पहुंचाये. वैसे भी तलवार और सूई का कार्यक्षेत्र बदलने की कोशिश की जाये तो नतीजे भी वैसे ही होंगे, ये तो मानना ही पड़ेगा.
भले ही यूपी और केंद्र दोनों जगह बीजेपी की ही सरकार हो, लेकिन जो राजनीतिक रणनीति दिल्ली के लिए होगी वो भला यूपी के लिए कैसे हो सकती है? जो सलाह कांग्रेस नेतृत्व को राष्ट्रीय राजनीति के लिए मिली थी उसे भला यूपी में क्या फायदा मिलने वाला है?
राष्ट्रीय स्तर पर अगर कांग्रेस अपने नेताओं की सलाह मान कर प्रधानमंत्री मोदी को हर वक्त खलनायक साबित करने से बाज आये तो भले ज्यादा फायदा न हो, लेकिन बीजेपी और मोदी समर्थकों की कांग्रेस के प्रति खीझ वैसी तो नहीं ही रहेगी. फिर तो बात बाद पर बीजेपी के लिए भी कांग्रेस को दोषी ठहराना या देश के खिलाफ उसकी नीतियां समझा लेना इतना आसान भी नहीं होगा. मोदी पर हमला बोल राहुल गांधी हों या कोई भी कांग्रेस नेता अपने प्रति बची खुची सहानुभूति भी खो देता है. राहुल गांधी के पसंदीदा स्लोगन 'चौकीदार...' का आम चुनाव में बैकफायर होना एक सटीक उदाहरण है.
यूपी के नेताओं के जरिये कांग्रेस ये समझाने की कोशिश कर रही है कि सपा और बसपा जैसी पार्टियों की वजह से ही बीजेपी को बढ़त मिल गयी है. ये नेता कह रहे हैं कि सपा और बसपा कांग्रेस के वोट बैंक में हिस्सेदार बन गये और वोटों के बंट जाने का बीजेपी ने फायदा उठा लिया.
ठीक बात है. बिलकुल ऐसा ही हुआ. तो अब क्या कांग्रेस बीजेपी से मुकाबले से पहले इन पार्टियों को किनारे लगाने की कोशिश करेगी? कांग्रेस भला ऐसा कैसे सोच रही है कि रातों रात कोई चमत्कार होगा और वो सपा-बसपा से अपने खोये हुए वोट वापस ले लेगी और फिर मुकाबले में बीजेपी को चित्त कर देगी?
अच्छा तो ये होता कि जैसे भी संभव हो कांग्रेस बीजेपी विरोधी पार्टियों को साथ लेकर बीजेपी से मुकाबले की तैयारी करती. हो सकता है एक बार में कामयाबी न मिल सके - बार बार कोशिश करने पर तो कोई भी कामयाब हो ही जाता है. आखिर राहुल गांधी को लेकर भी कांग्रेस ने उम्मीद तो नहीं ही छोड़ी है.
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