बीते दो दिनों में ही बहुत सारे चुनाव नतीजे आये हैं. एमसीडी चुनाव के नतीजे, गुजरात और हिमाचल प्रदेश चुनाव के नतीजे और देश भर की छह विधानसभा सीटों और मैनपुरी लोक सभा सीट का रिजल्ट - ये सारे ही केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी और विपक्षी खेमे (Opposition) के राजनीतिक दलों के लिए तमाम सबक से भरे हुए हैं.
गुजरात विधानसभा को छोड़ दें तो ज्यादातर चुनाव नतीजे बीजेपी के खिलाफ हैं - और उनमें मैनपुरी लोक सभा सहित छह विधानसभा सीटों पर हुए चुनाव भी शामिल हैं. हिमाचल प्रदेश में तो बीजेपी की शिकस्त हुई ही है, मैनपुरी लोक सभा सीट सहित चार विधानसभा सीटों पर बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा है. हाल के उपचुनावों में बीजेपी सिर्फ दो सीटें जीतने में सफल हो पायी है - उत्तर प्रदेश में रामपुर और बिहार में कुढ़नी विधानसभा सीट.
कांग्रेस (Congress) के लिए हिमाचल प्रदेश में सत्ता में वापसी तो जोश बढ़ाने वाली है ही, राजस्थान और छत्तीसगढ़ उपचुनावों में जीत अच्छी खबर है, खासकर तब जब नीतीश कुमार को बिहार में अपनी सरकार होते हुए भी लगातार दो उपचुनावों के नतीजे के तौर पर बुरी खबर आयी हो - पहले गोपालगंज, और अब कुढ़नी से.
कांग्रेस तो तिनके के लिए मारी मारी फिर रही थी, लेकिन हिमाचल प्रदेश के लोगों ने तो जैसे मदद के 'हाथ' ही बढ़ा दिये. ये ठीक है कि बीजेपी वोट शेयर में महज 0.9 फीसदी के फर्क होने की दुहाई दे रही है, लेकिन अभी तो कांग्रेस के लिए ये सबसे बड़ी सौगात है.
अब कम से कम ये असर तो होगा ही कि जो लोग कांग्रेस को लेकर मुंह फेरने लगे थे, किसी और राजनीतिक में फिट होने या गढ़ने के प्रयास से पहले एक बार गंभीर होकर तो सोचेंगे ही. ऐसा सबसे बड़ा संकेत तो अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) की आम आदमी पार्टी की तरह से मिला है...
बीते दो दिनों में ही बहुत सारे चुनाव नतीजे आये हैं. एमसीडी चुनाव के नतीजे, गुजरात और हिमाचल प्रदेश चुनाव के नतीजे और देश भर की छह विधानसभा सीटों और मैनपुरी लोक सभा सीट का रिजल्ट - ये सारे ही केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी और विपक्षी खेमे (Opposition) के राजनीतिक दलों के लिए तमाम सबक से भरे हुए हैं.
गुजरात विधानसभा को छोड़ दें तो ज्यादातर चुनाव नतीजे बीजेपी के खिलाफ हैं - और उनमें मैनपुरी लोक सभा सहित छह विधानसभा सीटों पर हुए चुनाव भी शामिल हैं. हिमाचल प्रदेश में तो बीजेपी की शिकस्त हुई ही है, मैनपुरी लोक सभा सीट सहित चार विधानसभा सीटों पर बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा है. हाल के उपचुनावों में बीजेपी सिर्फ दो सीटें जीतने में सफल हो पायी है - उत्तर प्रदेश में रामपुर और बिहार में कुढ़नी विधानसभा सीट.
कांग्रेस (Congress) के लिए हिमाचल प्रदेश में सत्ता में वापसी तो जोश बढ़ाने वाली है ही, राजस्थान और छत्तीसगढ़ उपचुनावों में जीत अच्छी खबर है, खासकर तब जब नीतीश कुमार को बिहार में अपनी सरकार होते हुए भी लगातार दो उपचुनावों के नतीजे के तौर पर बुरी खबर आयी हो - पहले गोपालगंज, और अब कुढ़नी से.
कांग्रेस तो तिनके के लिए मारी मारी फिर रही थी, लेकिन हिमाचल प्रदेश के लोगों ने तो जैसे मदद के 'हाथ' ही बढ़ा दिये. ये ठीक है कि बीजेपी वोट शेयर में महज 0.9 फीसदी के फर्क होने की दुहाई दे रही है, लेकिन अभी तो कांग्रेस के लिए ये सबसे बड़ी सौगात है.
अब कम से कम ये असर तो होगा ही कि जो लोग कांग्रेस को लेकर मुंह फेरने लगे थे, किसी और राजनीतिक में फिट होने या गढ़ने के प्रयास से पहले एक बार गंभीर होकर तो सोचेंगे ही. ऐसा सबसे बड़ा संकेत तो अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) की आम आदमी पार्टी की तरह से मिला है - और चाहें तो ये विपक्ष के खुश होने के लिए सबसे अच्छा ख्याल हो सकता है.
कांग्रेस की जीत - और केजरीवाल की हार
चुनावी नतीजों से ताजा समझ तो यही बन रही है कि कांग्रेस जीत भी सकती है, और केजरीवाल हार भी सकते हैं. हालांकि, इस लाइन में केजरीवाल की जगह बीजेपी का नाम ज्यादा सूट करता है.
गुजरात के नतीजों पर गौर करें तो जिस सौराष्ट्र के बूते कांग्रेस का दबदबा कायम था, आम आदमी पार्टी ने तो कांग्रेस की जड़ें खोद डाली हैं - लेकिन सबसे बड़ा सच तो ये भी है कि अरविंद केजरीवाल कांग्रेस को पछाड़ नहीं पाये हैं. ये ठीक है कि कांग्रेस के भी 41 उम्मीदवारों की जमानत गुजरात में जब्त हो गयी है, लेकिन ऐसे आम आदमी पार्टी के तो 128 उम्मीदवार हैं.
और हिमाचल प्रदेश में तो अरविंद केजरीवाल खाता भी नहीं खोल पाये हैं. राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करना अलग चीज है. गोवा के बाद गुजरात ने ही अरविंद केजरीवाल को ये मौका मुहैया कराया है.
देखा जाये तो एमसीडी के नतीजे निश्चित तौर पर अरविंद केजरीवाल के लिए बड़ा सपोर्ट हैं, लेकिन ऐन उसी वक्त गुजरात और हिमाचल प्रदेश के लोगों ने उनको आईना भी दिखा दिया है. एमसीडी के नतीजों का यज्ञ भी तभी पूरा माना जाएगा जब आम आदमी पार्टी अपना मेयर बना ले.
जिस तरीके से नतीजे आने के बाद दिल्ली नगर निगम के लिए अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सहयोग मांगा है, वो तो चंडीगढ़ नगर निगम की ही याद दिला रहा है. लेकिन हिमाचल के लोगों को जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी ने शत प्रतिशत काम का भरोसा दिलाया है, अरविंद केजरीवाल चाहें तो निश्चिंत भी रह सकते हैं.
जब कांग्रेस की मीटिंग में शामिल हुई आप
पहले तो अरविंद केजरीवाल को लेकर कांग्रेस नेतृत्व का ही परहेज देखा जाता रहा, लेकिन बाद में आम आदमी पार्टी के नेता ने भी ये जताना शुरू कर दिया था कि उनको विपक्ष के किसी भी राजनीतिक दल से उनको किसी तरह के सहयोग की जरूरत नहीं है.
कांग्रेस के साथ लाने के लिए ममता बनर्जी ने अरविंद केजरीवाल की काफी पैरवी की थी. सोनिया गांधी के साथ विपक्षी दलों की उस मीटिंग में भी जिसमें वो आखिरी बार शामिल हुई थीं, वो सबको साथ लेकर चलने की बात कर रही थीं और ये बात भी वो अरविंद केजरीवाल के लिए ही थी.
लेकिन पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद जब ममता बनर्जी विपक्ष को एकजुट करने के लिए प्रयास करने लगीं तो अरविंद केजरीवाल कहने लगे कि वो ऐसी राजनीति से दूर रहते हैं. समझाने लगे थे कि उनसे लोग चाहें तो स्कूल और अस्पताल बनवा सकते हैं, लेकिन ऐसे गठबंधनों की राजनीति के लिए उनके पास वक्त नहीं है.
राजनीति में गठबंधन के सवाल पर मार्च, 2022 में ही अरविंद केजरीवाल ने इंडिया टुडे से कहा था, 'मैं 130 करोड़ लोगों के साथ गठबंधन बनाऊंगा, मुझे राजनीतिक पार्टियों के साथ गठबंधन में कोई दिलचस्पी नहीं है.'
अब तो खैर ममता बनर्जी भी शांत लग रही हैं. हालांकि, नीतीश कुमार के एनडीए छोड़ने के बाद ममता बनर्जी ने कहा था कि वो प्रस्तावित गठबंधन का हिस्सा बनेंगी और 2024 में सब लोग मिल कर बीजेपी को हराएंगे. तब ममता बनर्जी ने साथ होने वाले नेताओं में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का भी नाम लिया था.
लगता है गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजों का अंदाजा अरविंद केजरीवाल को पहले ही लग चुका था, वरना कांग्रेस की मीटिंग में आम आदमी पार्टी के शामिल होने का कोई तुक तो बनता नहीं. न तो अरविंद केजरीवाल और न ही उनका कोई प्रतिनिधि ही राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव को लेकर हुई विपक्षी दलों कीमीटिंग में कांग्रेस के साथ शामिल हुए थे, लेकिन एनडीए उम्मीदवार के खिलाफ ही वोट देने का ऐलान किया था. 2017 में भी तो अरविंद केजरीवाल के विधायकों ने विपक्ष की तरफ से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार मीरा कुमार को ही वोट दिया था.
लेकिन शीतकालीन सत्र शुरू होने के साथ ही विपक्षी खेमे से एक ऐसी खबर आयी जो किसी को भी हैरान करने वाली रही. और ये खबर थी, कांग्रेस की बुलाई मीटिंग में आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस के प्रतिनिधियों का शामिल होना.
विंटर सेशन के पहले ही दिन कांग्रेस के नये अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने विपक्षी दलों की मीटिंग बुलायी थी. मल्लिकार्जुन खड़गे राज्य सभा में विपक्ष के नेता भी हैं - और ये मीटिंग मौजूदा सत्र में मोदी सरकार को घेरने के लिए रणनीति पर विचार विमर्श के लिए बुलायी गयी थी.
मल्लिकार्जुन खड़गे की मीटिंग में आम आदमी पार्टी की तरफ से संजय सिंह और ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस की तरफ से सुदीप बंदोपाध्याय पहुंचे थे. दोनों नेताओं की मौजूदगी इसलिए भी हैरान करने वाली भी थी क्योंकि AAP और TMC दोनों ही कांग्रेस और गांधी परिवार से दूरी बनाकर चल रहे थे.
कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए के अस्तित्व पर ही सवाल उठा चुकीं ममता बनर्जी तो सोनिया गांधी से दिल्ली में होकर भी न मिलने के सवाल पर बिफर चुकी हैं. राष्ट्रपति चुनाव को लेकर विपक्षी दलों की मीटिंग का संयोजन तो कांग्रेस ने ममता बनर्जी को ही हैंडओवर कर दिया था, लेकिन उसके बाद की बैठक को लेकर तो शरद पवार को कहना पड़ा था कि ममता बनर्जी से उनका संपर्क नहीं हो पाया - और फिर धीरे धीरे ममता बनर्जी नेटवर्क के बाहर जाकी हुई नजर आने लगीं.
आप नेता संजय सिंह की कांग्रेस की मीटिंग में मौजूदगी सबसे ज्यादा हैरान करने वाली रही - और वो भी चुनावों के नतीजे आने से ठीक पहले. अगर चुनाव नतीजे आने के बाद संजय सिंह कांग्रेस की मीटिंग में शामिल हुए हो तो अलग तरीके से देखा जाता.
संजय सिंह का कांग्रेस की मीटिंग में शामिल होना, कुछ कुछ वैसा ही लगा जैसे मैनपुरी उपचुनाव में डिंपल यादव के लिए वोट मांगते वक्त शिवपाल यादव का समाजवादी पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच छोटे नेताजी मान लेना. अब वहां कहानी ही इतिहास बन चुकी है.
मल्लिकार्जुन खड़गे की मीटिंग में कुल 13 राजनीतिक दलों की भागीदारी दर्ज की गयी है, जिनमें आप और टीएमसी के अलावा शामिल हैं - डीएमके, आरजेडी, एनसीपी, नेशनल कांफ्रेंस, मुस्लिम लीग, आरएलडी और एमडीएमके के अलावा उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना.
विपक्षी दल चाहें तो कोशिश कर सकते हैं
हो सकता है, विपक्ष की ये नयी तस्वीर मल्लिकार्जुन खड़गे के कांग्रेस अध्यक्ष बनने का असर हो. हो सकता है ये आम आदमी पार्टी के खराब प्रदर्शन का असर हो. ये भी हो सकता है कि ये हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता में वापसी का असर हो - असली वजह जो भी हो, लेकिन एक बात तो साफ है कि चुनावों ने विपक्षी दलों के बीच की दीवार मिटाने का काम तो किया ही है.
तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी अगर कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार कर लेते हैं, तो 2024 के लिए ये भारतीय जनता पार्टी का सिरदर्द बढ़ाने वाली खबर है - क्योंकि विपक्षी एकता में ये ही दोनों सबसे बड़ी बाधा रहे हैं.
थोड़ा बहुत परहेज तो तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की पार्टी बीआरएस को भी रही है, वरना बाकी सब तो कांग्रेस को ही नेता मान कर चल रहे हैं. नीतीश कुमार और लालू यादव तो सोनिया गांधी से दिल्ली में इसी मुद्दे पर मुलाकात भी कर चुके हैं.
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन तो राहुल गांधी की प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी के शुरू से ही कट्टर समर्थक रहे हैं - भारत जोड़ो यात्रा के महाराष्ट्र पहुंचने पर आदित्य ठाकरे और सुप्रिया सुले ने राहुल गांधी के साथ मार्च कर अपने इरादे पहले ही जाहिर कर दिये हैं.
अब अगर बीएसपी नेता मायावती या जेडीएस लीडर एचडी कुमारस्वामी साथ नहीं देते तो भी बहुत फर्क नहीं पड़ने वाला है, लेकिन अब भी एनसीपी नेता शरद पवार के ही रिंग मास्टर बने रहने की संभावना लगती है - और अगर अरविंद केजरीवाल को शरद पवार से कोई परहेज नहीं है तो समझ लेना चाहिये कि विपक्ष उठ कर खड़े होने की स्थिति में आ चुका है.
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