कांग्रेस पार्टी के नेता एकतरफा तरीके से ऐलान कर रहे हैं कि 2024 में गठबंधन की सरकार बनेगी तो कांग्रेस नेतृत्व करेगी या 2024 के चुनाव में राहुल गांधी विपक्ष की धुरी होंगे लेकिन यह तभी होगा, जब इस साल होने वाले राज्यों के चुनावों में कांग्रेस जीते. अगर कांग्रेस नहीं जीतती है तो विपक्षी पार्टियां उसे भाव नहीं देंगी, उलटे उसे और कमजोर करने की राजनीति करेंगी. ध्यान रहे राजनीति कोई सद्भाव का खेल नहीं होता है. किसी को कांग्रेस के साथ सहानुभूति नहीं है. अगर कांग्रेस साबित करती है कि उसकी उपयोगिता है और देश के लोग अब भी उसे चाहते हैं तब तो बात हो सकती है. अन्यथा ज्यादातर विपक्षी पार्टियां राज्यों में कांग्रेस की जगह लेने के लिए बेचैन हैं.अगर इस साल होने वाले चुनाव में कांग्रेस नहीं जीतती है तो विपक्षी पार्टियों के सामने उसकी मोलभाव की क्षमता कम होगी. लेकिन अगर विपक्षी पार्टियों की स्थिति भी कमजोर होती है तो मामला बराबरी का बनेगा.
आज तक का इतिहास देखे तो देश में अब तक हुए 17 आम चुनाव में से कांग्रेस ने 6 में पूर्ण बहुमत, 4 में गठबंधन का नेतृत्व और 7 प्रधानमंत्री दिए है. 137 साल पुरानी इस पार्टी का प्रभुत्व आजादी के बाद के कुछ वर्षों तक देश के पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक था. इतना ही नहीं अलग-अलग राज्यों में क्षत्रप बने कई बड़े नेता और पार्टियां इसी कांग्रेस से टूटकर बनी हैं.ये ट्रैक रिकॉर्ड उस पार्टी का है जो शायद अब तक के अपने सबसे खराब दौर से गुजर रही है. हालात ये हैं कि कांग्रेस फिलहाल सिर्फ दो राज्यों में ही पूर्ण बहुमत के साथ काबिज है. वहीं तीन राज्यों में दूसरी पार्टियों के साथ गठबंधन में सत्ता में है. हाल फिलहाल में कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने भी पार्टी का साथ छोड़ा है. कई राज्यों में पार्टी कैडर में बगावत की खबरें सामने आती रहती हैं यहां तक की सेंट्रल लीडरशिप में भी अनबन की खबरें आम हैं.
चुनाव के मोर्चे पर बात करें तो उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, बंगाल जैसे राज्यों में तो कांग्रेस पार्टी को सत्ता में लौटे हुए दशकों बरसों गए हैं. आखिर इतने समृद्ध इतिहास वाली कांग्रेस का ऐसा हाल कैसे हो गया और कौन से ऐसे राज्य हैं जहां पार्टी को लौटे हुए दशकों हो गए हैं और वजह क्या है.
एक दौर ऐसा भी था जब गुजरात की सियासत में कांग्रेस का दबदबा हुआ करता था. लेकिन साल 1990 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार हुई. उस वक्त जनता दल और बीजेपी की मिली-जुली सरकार बनी और तब से लेकर आजतक इस राज्य में कांग्रेस की वापसी नहीं हो पाई है. हालांकि 1990 में राम मंदिर के मुद्दे को लेकर बीजेपी और जनता दल का साथ टूट गया, जिसका फायदा बीजेपी को 1995 में मिलना शुरू हुआ. इसी साल 1995 में 182 सीटों में से 121 सीटें बीजेपी के पक्ष में गई. गुजरात के गठन के बाद सबसे पहले साल 1960 में विधानसभा चुनाव हुए थे. इस चुनाव के दौरान 132 सीटों में से कांग्रेस ने 112 सीटों पर जीत दर्ज किया और सत्ता में आई. साल 1960 से लेकर साल 1975 तक गुजरात में कांग्रेस ने एक्षत्र राज किया. पार्टी की सत्ता के दौरान 1960 से लेकर 1963 तक राज्य के पहले सीएम कभी महात्मा गांधी के डॉक्टर रह चुके जीवराज नारायण मेहता बने.
उनके बाद सीएम के पद पर बलवंतराय मेहता आए और गुजरात के दूसरे मुख्यमंत्री बने. बलवंतराय मेहता सीएम की कुर्सी पर काबिज होने से पहले स्वतंत्रता सेनानी भी रह चुके थे. हालांकि भारत-पाक युद्ध के दौरान जब वह कच्छ जा रहे थे तब उनके विमान पर हमला कर दिया था और 19 सितम्बर 1965 को उनकी मृत्यु हो गई. राज्य के दूसरे सीएम के मौत के बाद हितेंद्र देसाई ने मुख्यमंत्री के रूप में गुजरात का कार्यभार संभाला और उनके कार्यकाल के दौरान ही गुजरात में पहली बार सांप्रदायिक दंगा भड़का था. इसके बाद घनश्याम ओझा सीएम बने. उनके कार्यकाल के बीच में ही उन्हें हटाकर चिमनभाई पटेल को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाया गया. चिमनभाई पटेल लगभग 200 दिनों तक वो सीएम के पद पर रहे. जिसके बाद नव निर्माण आंदोलन के दबाव में उन्होंने इस्तीफा दे दिया. सीएम के इस्तीफे के बाद विधानसभा भंग की गई और जब दोबारा चुनाव में कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई. यही वो आखिरी साल था जब गुजरात में कांग्रेस की सरकार रही. बाबूभाई पटेल गुजरात के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे.
राजधानी दिल्ली भी उन राज्यों में शामिल है जहां कांग्रेस का प्रभुत्व तो रहा है लेकिन एक बार सत्ता जाने के बाद फिर पार्टी की कभी वापसी नहीं हुई. दिल्ली में 1993 से लेकर अब तक सात बार विधानसभा चुनाव हो चुके हैं. इन सात बार में सबसे ज्यादा यानी चार बार कांग्रेस सत्ता में आई. इनमें से एक बार बीजेपी, तीन बार कांग्रेस और दो बार आम आदमी पार्टी सत्ता पर विराजमान होने में कामयाब रही है.दिल्ली में पहली बार साल 1993 में विधानसभा चुनाव हुआ था. इससे पहले यह केंद्र शासित प्रदेश था, जहां विधानसभा चुनाव नहीं होते थे. राजधानी दिल्ली में हुए पहले विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने जीत दर्ज की और सत्ता में आ गई. इस चुनाव में कुल 70 विधानसभा सीट थे जिसमें बीजेपी 47.82 फीसदी वोट के साथ 49 सीटें जीती थी. वहीं को उस वक्त 34.48 फीसदी वोट के साथ 14 सीटें मिली थीं. हालांकि दूसरे विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने सत्ता छीन लिया.
साल 1998 में हुए दूसरे विधानसभा चुनाव में दिल्ली की कुल 70 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस 47.76 फीसदी वोट के साथ 52 सीटें जीतने में कामयाब रहीं. उस वक्त कांग्रेस की जीत का सेहरा शीला दीक्षित के सिर सजा. 2003 में तीसरी बार विधानसभा चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस 48.13 फीसदी वोट के साथ 47 सीटें जीतने में कामयाब और एक बार फिर इस बार भी कांग्रेस की जीत का श्रेय शीला दीक्षित को मिला और वह एक दिल्ली की मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहीं. दिल्ली में चौथी बार साल 2008 में विधानसभा चुनाव हुए. इस चुनाव में भी कांग्रेस 40.31 फीसदी वोट के साथ 43 सीटें जीतने में कामयाब रही थी और इस तरह शीला दीक्षित दिल्ली में जीत की हैट्रिक और मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रही. इसके बाद पांचवें विधानसभा चुनाव में, यानी 2013 में किसी को बहुमत नहीं मिला. इसके अलावा साल 2015 के विधानसभा चुनाव ने AAP को प्रचंड जीत हासिल की.
महाराष्ट्र में कांग्रेस पार्टी ने बरसों तक राज किया है. एक समय था जब लगातार कांग्रेस की ही सत्ता था. लेकिन 2010 के बाद से यही पार्टी महाराष्ट्र में कुर्सी पाने के लिए जंग लड़ रही है. महाराष्ट्र में साल 1960 से लेकर 1993 तक कांग्रेस की सत्ता रही. इसके बाद 1995 और 1999 तक शिवसेना और बीजेपी की गठबंधन में सत्ता में रही. साल 1999 में एक बार फिर कांग्रेस ने वापसी की और और साल 2014 तक सत्ता में रही. ये आखिरी साल था जब यहां कांग्रेस की सरकार थी. इसके बाद से अब तक इस पार्टी ने वापसी नहीं की है. कुछ समय पूर्व शिवसेना के साथ मिलकर सरकार बनाई थी पर हाल ही में वह भी जाती रही .
करीब 450 साल तक पुर्तगालियों के अधीन रहने के बाद गोवा को 19 दिसंबर 1961 को आजादी मिली थी. इसके करीब 720 दिन बाद 9 दिसंबर 1963 को यहां चुनाव हुए. उस वक्त इस राज्य में 28 विधानसभा सीटों के लिए कुल 150 उम्मीदवार मैदान में थे. गोवा में सबसे पहले कांग्रेस ने 1987 में अपनी सरकार बनाई थी. इस के बाद बीत का एक विधानसभा चुनाव छोड़ दें तो यह पार्टी लगातार सत्ता में रही. गोवा में 2012 तक कांग्रेस सत्ता में रही उसके बाद से कभी वापसी नहीं कर पाई.
तमिलनाडु राजनीतिक चेतना से भरा और बड़े सामाजिक पहलकदमी करने वाला राज्य है. इस राज्य में 1939 से 1967 तक कांग्रेस की सरकार रही लेकिन 1967 के बाद से कभी कांग्रेस सत्ता में नहीं आई. उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है जिसके बारे में कहा जाता है कि दिल्ली के सिंहासन का रास्ता यहीं से होकर जाता है. चुनाव कोई भी हो उठा-पटक और सरगर्मी चरम पर होती है. इस राज्य के पहले मुख्यमंत्री पंडित गोविंद बल्लभ कांग्रेस पार्टी के थे. यानी पिछले 34 साल से उत्तर प्रदेश की सत्ता में वापसी के लिए संघर्ष करने वाली कांग्रेस पार्टी ने ही इस राज्य को पहली मुख्यमंत्री दिया था. उत्तर प्रदेश में 1950 से लेकर 1967 तक लगातार कांग्रेस का राज रहा है.
1967 में हुए विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस 425 सीटों में से 199 सीट ही जीत सकी. इसके अलावा भी पार्टी ने साल 1980 के विधानसभा. 1980 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने एकतरफा जीत दर्ज की थी. 425 विधानसभा की सीटों में से कांग्रेस ने 309 सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाबी पाई थी. साल 2022 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस पार्टी के लिए पूरी तरह से प्रियंका गांधी वाड्रा के नेतृत्व में लड़ा गया और केवल 2 सीट हाथ लगी .
बिहार में भी कांग्रेस ने काफी लंबे समय तक राज किया है. बिहार में साल 1952 में पहला विधानसभा चुनाव हुआ था. उस वक्त कुल 324 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस ने 239 सीटों पर जीत दर्ज की थी. आजादी से बाद से लेकर साल 1990 तक कांग्रेस बिहार में आती जाती रही. लेकिन इस राज्य की राजनीति ने ऐसी करवट ली कि आज यह पार्टी यहां बैसाखी चल रही है.उनकी सत्ता की राहों को मंडल की सियासत ने कांटो भरा बना दिया. इसके बाद से वो दोबारा से सत्ता में वापसी नहीं कर पाएं. इन राज्यों के अलावा नागालैंड में 2003, त्रिपुरा में 1993, बंगाल में 1977 और ओडिशा में 2000 के बाद से कांग्रेस सत्ता में नहीं आई. अब उसका रोल केवल नीतिशकुमार को टेका देना रह गया है .
हालिया त्रिपुरा , मिजोरम और मेघालय में कांग्रेस पार्टी दिशाहीन नजर आ रही है. यह अकल्पनीय है कि जो पार्टी मेघालय में 2018 में 22 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, उसका अब निवर्तमान विधानसभा में कोई विधायक नहीं है. उसके सभी विधायक अलग हो गए हैं. सबसे बड़ा झटका मुकुल संगमा ने दिया, जो 2010 से 2018 के बीच आठ साल तक मुख्यमंत्री रहे. संगमा 11 अन्य कांग्रेस विधायकों के साथ नवंबर 2021 में पश्चिम बंगाल की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए. हालांकि, कांग्रेस पार्टी ने मेघालय की सभी सीटों पर चुनाव लड़ने के अपने फैसले की घोषणा कर दी है, लेकिन मुकुल संगमा के बाहर निकलने के बाद पार्टी नेतृत्वहीन और दिशाहीन नजर आती है. कांग्रेस पार्टी केवल चुनाव लड़ने का रस्म कर रही है.
ऐसे में 2024 में अपना प्रधानमंत्री देने की क्षमता उसी पार्टी की होगी जिसकी देश के सभी राज्यों में दबदबा हो. 3 राज्यों में सरकार बता कर अपनी पार्टी का प्रधानमंत्री देने की घोषणा अतिशयोक्ति ही लगती है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.