23 कांग्रेस नेताओं में ये हिम्मत तो सचिन पायलट (Sachin Pilot) ने ही दिलायी है, ये मानने में कोई दो राय नहीं होनी चाहिये. वरना, मौखिक सलाह तो कांग्रेस के तमाम सीनियर नेता अरसे से नेतृत्व को देते रहे हैं. नतीजा ये होता है कि या तो नेताओं की सलाह पर ध्यान नहीं दिया जाता या फिर गांधी परिवार (Sonia and Rahul Gandhi) के करीबियों के शोर में उनकी आवाज दबा दी जाती है.
CWC की 23 जून को हई मीटिंग से खबर यही आयी कि किस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर व्यक्तिगत हमलों को लेकर कांग्रेस में दो फाड़ दिखा और कैसे सलाह देने वाले आरपीएन सिंह को राहुल गांधी के करीबी नेताओं और प्रियंका गांधी की मिली ऐसे नेताओं के समर्थन की वजह से चुप हो जाना पड़ा था. आरपीएन सिंह का सुझाव था कि मोदी सरकार की नीतियों और गलत फैसलों पर हमले तो निश्चित तौर जारी रखने चाहिये, लेकिन नरेंद्र मोदी को लेकर व्यक्तिगत हमलों से परहेज करना चाहिये.
आरपीएन सिंह से ऐसी सलाह जयराम रमेश, शशि थरूर और यहां तक कि अभिषेक मनु सिंघवी जैसे नेता भी दे चुके हैं, लेकिन शायद ही कभी कांग्रेस नेतृत्व ने ऐसी बातों पर ध्यान देने की तकलीफ भी उठायी हो.
अब इतना तो मानना ही होगा कि सचिन पायलट की बगावत ने गांधी परिवार की धौंस को टक्कर देकर बाकी नेताओं में भी जोश भर दिया है - और ये वही हौसलाअफजाई रही है जो गुलाम नबी आजाद (Ghulam Nabi Azad), कपिल सिब्बल और वीरप्पा मोइली जैसे नेताओं ने कांग्रेस में आमूल चूल परिवर्तन को लेकर सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने की हिम्मत दिखायी है.
सचिन पायलट और 23 चिट्ठीवाले
कांग्रेस को जब तक पूर्ण कालिक अध्यक्ष मिल नहीं जाता, कामकाज की की जिम्मेदारी अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के कंधों पर ही रहेगी. सोनिया गांधी ये सब मजबूरी में कर रही हैं क्योंकि राहुल गांधी अभी तक अध्यक्ष की कुर्सी पर फिर से बैठने के लिए राजी नहीं हैं - और प्रियंका गांधी वाड्रा भी राहुल गांधी की राय से इत्तेफाक रखती हैं. हो सकता है प्रियंका गांधी वाड्रा की तरफ से जिम्मेदारी लेने को...
23 कांग्रेस नेताओं में ये हिम्मत तो सचिन पायलट (Sachin Pilot) ने ही दिलायी है, ये मानने में कोई दो राय नहीं होनी चाहिये. वरना, मौखिक सलाह तो कांग्रेस के तमाम सीनियर नेता अरसे से नेतृत्व को देते रहे हैं. नतीजा ये होता है कि या तो नेताओं की सलाह पर ध्यान नहीं दिया जाता या फिर गांधी परिवार (Sonia and Rahul Gandhi) के करीबियों के शोर में उनकी आवाज दबा दी जाती है.
CWC की 23 जून को हई मीटिंग से खबर यही आयी कि किस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर व्यक्तिगत हमलों को लेकर कांग्रेस में दो फाड़ दिखा और कैसे सलाह देने वाले आरपीएन सिंह को राहुल गांधी के करीबी नेताओं और प्रियंका गांधी की मिली ऐसे नेताओं के समर्थन की वजह से चुप हो जाना पड़ा था. आरपीएन सिंह का सुझाव था कि मोदी सरकार की नीतियों और गलत फैसलों पर हमले तो निश्चित तौर जारी रखने चाहिये, लेकिन नरेंद्र मोदी को लेकर व्यक्तिगत हमलों से परहेज करना चाहिये.
आरपीएन सिंह से ऐसी सलाह जयराम रमेश, शशि थरूर और यहां तक कि अभिषेक मनु सिंघवी जैसे नेता भी दे चुके हैं, लेकिन शायद ही कभी कांग्रेस नेतृत्व ने ऐसी बातों पर ध्यान देने की तकलीफ भी उठायी हो.
अब इतना तो मानना ही होगा कि सचिन पायलट की बगावत ने गांधी परिवार की धौंस को टक्कर देकर बाकी नेताओं में भी जोश भर दिया है - और ये वही हौसलाअफजाई रही है जो गुलाम नबी आजाद (Ghulam Nabi Azad), कपिल सिब्बल और वीरप्पा मोइली जैसे नेताओं ने कांग्रेस में आमूल चूल परिवर्तन को लेकर सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने की हिम्मत दिखायी है.
सचिन पायलट और 23 चिट्ठीवाले
कांग्रेस को जब तक पूर्ण कालिक अध्यक्ष मिल नहीं जाता, कामकाज की की जिम्मेदारी अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के कंधों पर ही रहेगी. सोनिया गांधी ये सब मजबूरी में कर रही हैं क्योंकि राहुल गांधी अभी तक अध्यक्ष की कुर्सी पर फिर से बैठने के लिए राजी नहीं हैं - और प्रियंका गांधी वाड्रा भी राहुल गांधी की राय से इत्तेफाक रखती हैं. हो सकता है प्रियंका गांधी वाड्रा की तरफ से जिम्मेदारी लेने को लेकर कोई संकोच हो, या फिर सोनिया गांधी और राहुल गांधी की तरफ से ही किसी तरह का संकोच हो रहा हो. अभी तो लाइन गैर गांधी परिवार के अध्यक्ष वाली है और प्रियंका गांधी को यूं ही रेस से बाहर हो जाना पड़ रहा है.
प्रियंका गांधी वाड्रा की राजस्थान की राजनीतिक उठापटक को दुरूस्त करने का पूरा श्रेय दिया जा रहा है. माना जा रहा है कि प्रियंका गांधी ने सचिन पायलट को बीजेपी के जबड़े से छीन कर कांग्रेस की झोली में रख दिया है. निश्चित तौर पर प्रियंका गांधी की पहल के चलते ही राजस्थान के मामले में बीच का रास्ता निकाल पाना संभव हुआ, लेकिन राजस्थान की विशेष परिस्थितियां मध्य प्रदेश से काफी अलग रहीं, ये भी नहीं भूलना चाहिये. ये ठीक है कि राजस्थान में ज्यादातर चीजें अशोक गहलोत के ही मन की हुईं, लेकिन पूरे मन की तो नहीं ही हो पायीं. अशोक गहलोत चाहते थे कि सचिन को कांग्रेस से बाहर किया जाये - लेकिन जब कांग्रेस नेतृत्व को गहलोत की असली मंशा मालूम हुई तो उनकी मनमानी पर ब्रेक लगा दिया. नेतृत्व की मुश्किल ये थी कि अशोक गहलोत के खिलाफ कोई एक्शन लेता तो अपने ऊपर आ जाती. वैसे भी सचिन ने तो घेर ही रखा है - जनता से राहुल गांधी ने जो वादे किये थे पूरे होने ही चाहिये.
देखा जाये तो सचिन पायलट प्रकरण एक तरह से ज्योतिरादित्य सिंधिया केस में हुई चूक को लेकर कांग्रेस नेतृत्व के भूल सुधार जैसा है. सचिन पायलट के साथ सुलह भी उन्हीं मुद्दों पर हुई जिन्हें सिंधिया उठाते रहे - चुनावों के दौरान कांग्रेस की तरफ से जनता से किये गये वादे.
ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ भी तो करीब करीब वैसा ही हुआ जैसा असम वाले हिमंता बिस्व सरमा के साथ हुआ था. ये तीनों ही नेता अलग अलग वक्त पर कांग्रेस नेतृत्व से मिले या मिल कर अपनी बात रखे या फिर मिल भी न सके. हिमंता बिस्वा सरमा की एक बात अक्सर ऐसे मामलों में याद आ जाती है - बकौल हिमंता बिस्वा सरमा कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं से मुलाकात के दौरान राहुल गांधी की ज्यादा दिलचस्पी उनके पालतुओं में लगती थी. ज्योतिरादित्य सिंधिया को तो मुलाकात का मौका तक नहीं मिल सका. कहने को तो सिंधिया के बीजेपी ज्वाइन कर लेने के बाद राहुल गांधी कहे जरूर थे कि सिंधिया उनके कॉलेज के साथी थे और उनको मिलने का वक्त लेने की भी जरूरत नहीं थी. जब सचिन पायलट की बारी आयी तब तक वो सिंधिया के अनुभवों से सीख ले चुके थे. सचिन पायलट ने अकेले मिलने का वक्त नहीं मांगा बल्कि मुलाकात के लिए समर्थक विधायकों के साथ पहुंच गये - फिर भी सबको अहमद पटेल की तरफ डायवर्ट कर दिया गया.
बताते हैं कि कांग्रेस के 23 नेताओं को सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने का फैसला तब लेना पड़ा जब उनसे मुलाकात का मौका ही नहीं बन पा रहा था और वो चिट्ठी ही राहुल गांधी के गुस्से की वजह बनी - चिट्ठी तब क्यों लिखी गयी जब सोनिया गांधी बीमार थीं?
CWC की मीटिंग में जो हुआ वो तो हुआ ही, बैठक के बाद चिट्ठी वाले कई नेता गुलाम नबी आजाद के घर पहुंच गये - और वहां कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, मुकुल वासनिक, आनंद शर्मा और शशि थरूर जैसे नेताओं ने गुलाम नबी आजाद के साथ मीटिंग की. जाहिर है वहां पर CWC मीटिंग की समीक्षा और आगे की रणनीति को लेकर चर्चा हुई ही होगी.
इंडिया टुडे ने सूत्रों के हवाले से खबर दी है कि CWC मीटिंग के बाद सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों ने गुलाम नबी आजाद को फोन किया था और भरोसा दिलाया कि उनकी शिकायतों पर गौर किया जाएगा.
सचिन पायलट के मामले में ये काम प्रियंका गांधी वाड्रा के स्तर पर ही हो रहा था, लेकिन गुलाम नबीं आजाद की नाराजगी के बाद सोनिया गांधी को पहल करनी पड़ी है और राहुल गांधी को भी नरम रूख अख्तिया करना पड़ा है. ये तो कांग्रेस नेतृत्व के असंतुष्ट सीनियर नेताओं की तरफ सुलह के रास्ते पहुंचने के तौर पर ही देखा जाएगा.
मतलब, हिमंता बिस्वा सरमा से लेकर गुलाम नबी आजाद तक पहुंचने को सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों के रूख में बदलाव के सबूत के तौर पर ही लिया जाएगा - और अब तो ये कहने में भी संकोच नहीं होना चाहिये कि सचिन पायलट ने कांग्रेस नेतृत्व की हेकड़ी तो निकाल ही दी है.
मुद्दे पर बात क्यों नहीं हो रही है
कपिल सिब्बल को लेकर राहुल गांधी पहले से ही गुस्से में रहे होंगे. अब माना तो यही जाएगा कि राहुल गांधी के चिट्ठीवालों बीजेपी से मिलीभगत के आरोप की बातें झूठी रहीं. क्योंकि कपिल सिब्बल ने तो अपना ट्वीट डिलीट कर यही बताया कि खुद राहुल गांधी ने उनको फोन कर ऐसा ही बोला.
कपिल सिब्बल ने नाराजगी की वजह सचिन पायलट के बगावत काल में उनका अस्तबल से घोड़े निकल जाने की आशंका वाला ट्वीट निश्चति तौर पर रहा होगा. हो सकता है कांग्रेस के राज्य सभा सांसदों की मीटिंग में राजीव सातव के हमले के तार भी राहुल गांधी के गुस्से से ही जुड़े हुए हों. मीटिंग में आत्मनिरीक्षण की बात बोल कर राजीव सातव को कपिल सिब्बल ने चिढ़ा दिया था. संभव है राजीव सातव को ये राहुल गांधी पर सीधा हमला लगा हो और वो अपने नेता के प्रति निष्ठा में आपे से बाहर हो गये.
बवाल और बहस अपनी जगह है लेकिन चिट्ठी लिखने वाले नेताओं को मलाल अब भी इसी बात का है कि उनको भला बुरा कहा गया वो तो अपनी जगह है, लेकिन मुद्दे की बात क्यों नहीं हुई? चिट्ठी क्यों लिखी? ऐसे वक्त क्यों लिखी? चिट्ठी लिखना ही अनुशासनहीनता है. चिट्ठी लिखने वालों के खिलाफ एक्शन होना चाहिये.
ये सारी बातें हुईं, लेकिन चिट्ठी में क्या लिखा है ये जानने और समझने की कोशिश क्यों नहीं हुई?
इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में चिट्ठी पर दस्तखत करने वालों में शामिल एम. वीरप्पा मोइली कहते हैं - मुझे बताया गया है कि मीटिंग में न तो चिट्ठी पढ़ी गयी और न ही उस पर कोई चर्चा हुई.
मोइली की निगाह में कांग्रेस नेतृत्व के प्रति निष्ठा दिखाने की होड़ और बहस ही कांग्रेस पार्टी तोड़ने वाली है, न कि चिट्ठी. मोइली का दावा है कि चिट्ठी तो कांग्रेस पार्टी की एकता के लिए है. मोइली के इस दावे को कांग्रेस में विरोधी गुट भले ही खारिज कर दे, लेकिन चिट्ठी में जो बातें उठायी गयी हैं वो वास्तव में कांग्रेस के हित में ही लगती हैं. चिट्ठी में संगठन चुनाव की बात की गयी है, संसदीय बोर्ड के नये सिरे से गठन की सलाह दी गयी है और सबसे बड़ी बात एक ऐसे पूर्ण कालिक अध्यक्ष की जरूरत महसूस की गयी है जिसका नेतृत्व प्रभावी तो हो ही वास्तव में जमीन पर दिखे भी.
क्या सोनिया गांधी नहीं चाहतीं कि कांग्रेस की कमान ऐसे ही हाथों में हो जैसे 19 साल तक उनके हाथों में रही और कांग्रेस की अगुवाई में लगातार 10 साल तक केंद्र में शासन रहा? चिट्ठी को लेकर राहुल गांधी का गुस्सा तो यही जता रहा है कि वो चिट्ठी में लिखी 'प्रभावी और दिखने वाले नेतृत्व' वाली बात को खुद पर टिप्पणी के तौर पर ले रहे हैं - और उनका गुस्सा कंट्रोल से बाहर हो जा रहा है.
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