साल के अंत में होने वाले मध्यप्रदेश चुनाव में पार्टियों और नेताओं के बीच आर-पार की लड़ाई देखी जा रही है. एक तरफ राज्य में कांग्रेस बनाम बीजेपी की लड़ाई है तो दूसरी तरफ कांग्रेस बनाम कांग्रेस और बीजेपी बनाम बीजेपी की लड़ाई चुनाव को दिलचस्प बनाने का काम कर रही है. कांग्रेस का एक धड़ा ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री बनाने के लिए हुंकार भर रहा है तो दूसरा पक्ष कमलनाथ को राज्य का मुखिया बनाने के लिए ताल ठोक रहा है. शिवराज सिंह चौहान के कद के सामने बीजेपी का क्षेत्रीय नेतृत्व बौना लगता है इसके कारण फिलहाल मध्यप्रदेश भाजपा की आंतरिक प्रतिस्पर्धा को सतह पर आने में अभी थोड़ा वक़्त लग सकता है.
2019 के लोकसभा चुनाव से पहले देश के तीन राज्यों में चुनाव को सेमीफइनल की तरह देखा जा रहा है. मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव नतीजे उत्तर भारत में राजनीतिक हवा की दिशाओं को बहुत हद तक तय करेंगे. तीनो राज्यों में नेतृत्व के स्तर पर भारतीय जनता पार्टी ज्यादा स्पष्ट दिखाई दे रही है. पार्टी के पास इन राज्यों में मुख्यमंत्री के रूप में एक लोकप्रिय और अनुभवी चेहरा मौजूद है, वहीं कांग्रेस पार्टी के क्षेत्रीय नेतृत्व को आंतरिक प्रतिस्पर्धा का ग्रहण लग चुका है. पार्टी युवा बनाम अनुभवी के बहस में उलझी हुई है और कार्यकर्ताओं को पार्टी की जीत से ज्यादा अपने नेताओं की दावेदारी की चिंता है.
मध्यप्रदेश कांग्रेस में दो धड़े हैं जो इस वक़्त अपनी दावेदारी का कोहराम सोशल मीडिया पर मचाये हुए हैं. एक का नेतृत्व पार्टी के वरिष्ठ नेता और छिंदवाड़ा सीट से नौ बार के सांसद कमलनाथ कर रहे हैं, तो वही दूसरा धड़ा पार्टी के युवा और लोकप्रिय नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री के...
साल के अंत में होने वाले मध्यप्रदेश चुनाव में पार्टियों और नेताओं के बीच आर-पार की लड़ाई देखी जा रही है. एक तरफ राज्य में कांग्रेस बनाम बीजेपी की लड़ाई है तो दूसरी तरफ कांग्रेस बनाम कांग्रेस और बीजेपी बनाम बीजेपी की लड़ाई चुनाव को दिलचस्प बनाने का काम कर रही है. कांग्रेस का एक धड़ा ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री बनाने के लिए हुंकार भर रहा है तो दूसरा पक्ष कमलनाथ को राज्य का मुखिया बनाने के लिए ताल ठोक रहा है. शिवराज सिंह चौहान के कद के सामने बीजेपी का क्षेत्रीय नेतृत्व बौना लगता है इसके कारण फिलहाल मध्यप्रदेश भाजपा की आंतरिक प्रतिस्पर्धा को सतह पर आने में अभी थोड़ा वक़्त लग सकता है.
2019 के लोकसभा चुनाव से पहले देश के तीन राज्यों में चुनाव को सेमीफइनल की तरह देखा जा रहा है. मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव नतीजे उत्तर भारत में राजनीतिक हवा की दिशाओं को बहुत हद तक तय करेंगे. तीनो राज्यों में नेतृत्व के स्तर पर भारतीय जनता पार्टी ज्यादा स्पष्ट दिखाई दे रही है. पार्टी के पास इन राज्यों में मुख्यमंत्री के रूप में एक लोकप्रिय और अनुभवी चेहरा मौजूद है, वहीं कांग्रेस पार्टी के क्षेत्रीय नेतृत्व को आंतरिक प्रतिस्पर्धा का ग्रहण लग चुका है. पार्टी युवा बनाम अनुभवी के बहस में उलझी हुई है और कार्यकर्ताओं को पार्टी की जीत से ज्यादा अपने नेताओं की दावेदारी की चिंता है.
मध्यप्रदेश कांग्रेस में दो धड़े हैं जो इस वक़्त अपनी दावेदारी का कोहराम सोशल मीडिया पर मचाये हुए हैं. एक का नेतृत्व पार्टी के वरिष्ठ नेता और छिंदवाड़ा सीट से नौ बार के सांसद कमलनाथ कर रहे हैं, तो वही दूसरा धड़ा पार्टी के युवा और लोकप्रिय नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री के रूप में पेश कर रहा है. व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा का सैलाब पार्टी हित के आदर्शों को बहा ले जाने को बेताब दिख रहा है. पिछले 15 वर्षों से मध्यप्रदेश की राजनीति पर शिवराज सिंह चौहान का एकक्षत्र राज है लेकिन उनके नेतृत्व को पार्टी के स्तर पर चुनौती देने की हिमाकत आजतक किसी भी बीजेपी के नेता ने नहीं की है. दरअसल शिवराज ने अपनी छवि को 'माटी पुत्र' के रूप में इतना सशक्त कर लिया है कि पार्टी की चुनावी रणनीति उन्ही के इर्द -गिर्द घूमती है.
अपनी 3300 किमी की 'नर्मदा परिकर्मा यात्रा' से लौटने के बाद दिग्विजय सिंह आध्यात्मिक गुरु के रूप में प्रकट हुए. इधर कमलनाथ भी अपने गुरु की तपस्या का प्रसाद खाने के लिए व्याकुल हो रहे थे. प्रसाद के रूप में उन्हें मुख्यमंत्री पद का वरदान मिला जिसने उनकी दावेदारी और महत्वाकांक्षाओं को रातोंरात शिखर पर पहुंचा दिया. दरअसल मध्यप्रदेश की राजनीति में व्यक्तिगत छवि की बहुत बड़ी भूमिका होती है, कमलनाथ को लगता है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजा वाली छवि शिवराज के माटी पुत्र वाली छवि के सामने नहीं टिक पायेगी. यही बात उनके समर्थक सोशल मीडिया पर चीख -चीख कर प्रचारित और प्रसारित कर रहे हैं.
कोई पार्टी और नेता अगर किसी राज्य में लम्बे समय तक सत्ता पर काबिज रहती है तो हर चुनाव में उसके खिलाफ एंटी-इंकम्बेंसी की बात की जाती है. इस सिद्धांत के अनुसार शिवराज के खिलाफ बीजेपी के भीतर उनके नेतृत्व को लेकर हलचल सुनाई पड़नी चाहिए थी. हाल-फिलहाल में जिस तरह से मंदसौर में किसानों पर गोलियां चलवाई गईं, व्यापम जैसा बड़ा घोटाला सामने आया इसके बावजूद पार्टी पर शिवराज की पकड़ उतनी ही है जितना गुजरात में नरेंद्र मोदी की थी.
राज्य में 15 वर्षों से सत्ता का वनवास झेल रही कांग्रेस पार्टी आपसी प्रतिस्पर्धा और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के चंगुल में फंस चुकी है. सिंधिया और कमलनाथ में पार्टी की जीत से ज्यादा मुख्यमंत्री पद की भूख नज़र आ रही है. अपने राजनीतिक अरमानों को अपने समर्थकों के जरिये आलाकमान तक पहुंचाना क्षेत्रीय राजनेताओं की पुरानी तरकीब रही है जिसका अनुसरण कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया कर रहे हैं.
कंटेंट - विकास कुमार - इंटर्न आईचौक
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