2004 में सियासत में आने से पहले गांधी परिवार का ये वारिस विदेश में था. 1998 में कांग्रेस की हार के बाद उनकी मां सोनिया गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभाल ली थी, 1999 में जब सोनिया ने पहला चुनाव अमेठी से लड़ा तो बागडोर बेटी प्रियंका के हाथों में थी. प्रियंका की दिलचस्पी और तेवर देख सभी ने मान लिया कि वही आने वाले वक़्त में राजनीति में मां की जगह लेंगी. लेकिन मां सोनिया ने तो कुछ और तय कर रखा था. 2004 के लोकसभा चुनाव में अमेठी सीट बेटे राहुल के लिए छोड़कर मां ने वारिस तय कर दिया.
राहुल जोर-शोर से चुनाव जीत गए. फिर 2006 में हैदराबाद अधिवेशन में सांसद राहुल कांग्रेस के महासचिव बना दिए गए और वो यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई का प्रभार देखने लगे. इसके बाद दोबारा यूपीए की सरकार बनी, राहुल तमाम कोशिशों के बाद ना ही मंत्री बने, ना ही प्रधानमंत्री. 2012 आते-आते कांग्रेस तमाम आरोपों से घिर गई. फिर 2013 में जयपुर अधिवेशन में उनको पार्टी का उपाध्यक्ष चुन लिया गया. इस पूरे सफर में राहुल पर तमाम तोहमतें लगीं.
1. हिट एंड मिस की राजनीति- कभी मुद्दे को गंभीरता से उठाना, फिर अचानक विदेश चले जाना.
2. सियासत को लेकर गंभीर नहीं- मंत्री पद लेते नहीं, पीएम बनना नहीं तो फिर राजनीति क्यों कर रहे हैं, ज़िम्मेदारियों से क्यों भागते हैं?
3. चुनाव जिताने की क्षमता पर सवाल- राहुल के जोरदार प्रचार के बावजूद पार्टी की लगातार राज्यों में चुनावी हार होती रही.
4. सोशल मीडिया में विरोधियों ने 'पप्पू' नाम देकर मज़ाक उड़ाया- तमाम नकारात्मक बातों को सामने रखकर और यूपीए-2 के भ्रष्टाचार को जोड़कर सोशल मीडिया में राहुल का खूब मज़ाक उड़ा. हालांकि, बाद में राहुल समर्थकों ने सोशल मीडिया में मोदी को 'फेंकू' नाम देकर अपने दिल को तसल्ली दी.
5. संसद और तमाम अहम कार्यक्रमों में भी कभी मौजूद कभी गैरहाज़िर- राहुल पर इल्ज़ाम रहा कि, वो राजनीति को लेकर गंभीर नहीं हैं, जबरन वो...
2004 में सियासत में आने से पहले गांधी परिवार का ये वारिस विदेश में था. 1998 में कांग्रेस की हार के बाद उनकी मां सोनिया गांधी ने कांग्रेस की बागडोर संभाल ली थी, 1999 में जब सोनिया ने पहला चुनाव अमेठी से लड़ा तो बागडोर बेटी प्रियंका के हाथों में थी. प्रियंका की दिलचस्पी और तेवर देख सभी ने मान लिया कि वही आने वाले वक़्त में राजनीति में मां की जगह लेंगी. लेकिन मां सोनिया ने तो कुछ और तय कर रखा था. 2004 के लोकसभा चुनाव में अमेठी सीट बेटे राहुल के लिए छोड़कर मां ने वारिस तय कर दिया.
राहुल जोर-शोर से चुनाव जीत गए. फिर 2006 में हैदराबाद अधिवेशन में सांसद राहुल कांग्रेस के महासचिव बना दिए गए और वो यूथ कांग्रेस और एनएसयूआई का प्रभार देखने लगे. इसके बाद दोबारा यूपीए की सरकार बनी, राहुल तमाम कोशिशों के बाद ना ही मंत्री बने, ना ही प्रधानमंत्री. 2012 आते-आते कांग्रेस तमाम आरोपों से घिर गई. फिर 2013 में जयपुर अधिवेशन में उनको पार्टी का उपाध्यक्ष चुन लिया गया. इस पूरे सफर में राहुल पर तमाम तोहमतें लगीं.
1. हिट एंड मिस की राजनीति- कभी मुद्दे को गंभीरता से उठाना, फिर अचानक विदेश चले जाना.
2. सियासत को लेकर गंभीर नहीं- मंत्री पद लेते नहीं, पीएम बनना नहीं तो फिर राजनीति क्यों कर रहे हैं, ज़िम्मेदारियों से क्यों भागते हैं?
3. चुनाव जिताने की क्षमता पर सवाल- राहुल के जोरदार प्रचार के बावजूद पार्टी की लगातार राज्यों में चुनावी हार होती रही.
4. सोशल मीडिया में विरोधियों ने 'पप्पू' नाम देकर मज़ाक उड़ाया- तमाम नकारात्मक बातों को सामने रखकर और यूपीए-2 के भ्रष्टाचार को जोड़कर सोशल मीडिया में राहुल का खूब मज़ाक उड़ा. हालांकि, बाद में राहुल समर्थकों ने सोशल मीडिया में मोदी को 'फेंकू' नाम देकर अपने दिल को तसल्ली दी.
5. संसद और तमाम अहम कार्यक्रमों में भी कभी मौजूद कभी गैरहाज़िर- राहुल पर इल्ज़ाम रहा कि, वो राजनीति को लेकर गंभीर नहीं हैं, जबरन वो राजनीती कर रहे हैं.
इसके बाद लोकसभा चुनाव 2014 में कांग्रेस 44 सीटों पर सिमट गई. बीजेपी कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देती रही, कांग्रेस राज्य दर राज्य हारती रही. कार्यकर्ता निराश हो गए. तभी नीतीश कुमार ने राहुल का साथ छोड़ मोदी का दामन थाम लिया, तब तो राहुल की सियासी समझ पर अपनों ने भी सवाल उठाये.
लेकिन शायद यही टर्निंग पॉइंट साबित हुआ. राहुल ने इसी वक़्त तय कर लिया कि, वो पार्टी और विपक्ष दोनों को फ्रंट से लीड करेंगे. राहुल समझ चुके थे कि, फ्रंट से लीड किए बिना मोदी से मुकाबला सम्भव नहीं है. साथ ही बाकी विरोधी पार्टियों में भी हालात बदल चुके हैं. मसलन, मुलायम की जगह अखिलेश हैं, करुणानिधि की जगह स्टालिन हैं, शिबू सोरेन की जगह हेमन्त हैं, तो लालू की जगह तेजस्वी.
इसके बाद 16 दिसम्बर 2017 को राहुल ने बतौर अध्यक्ष अपना कार्यभार संभाल लिया. इस बीच राहुल ने ऐलान भी कर दिया कि वो पार्टी अध्यक्ष के साथ ही पीएम पद की ज़िम्मेदारी संभालने को तैयार हैं. अचानक राहुल का अंदाज़ और तेवर बदले-बदले नज़र आने लगे. इसी बीच गुजरात चुनाव में राहुल का नया अवतार सामने आया. कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की छवि को तोड़ते हुए राहुल ने मंदिर-मंदिर जाकर दर्शन किये, फिर खुद को शिवभक्त जनेऊधारी हिन्दू ब्राह्मण करार दिया. चुनाव में कांग्रेस को 80 सीटें मिलीं और बीजेपी 99 के फेर में जाकर रुक गयी. यहीं से सियासी गलियारों और बाक़ी विपक्षी नेताओं ने मान लिया क़ि मोदी से मुकाबला राहुल कर सकते हैं. इससे पहले पंजाब और हाल में राजस्थान में हुए उपचुनावों में कांग्रेस ने ज़ोरदार जीत हासिल कर ली. इसके बाद शिवसेना और राज ठाकरे जैसे विरोधियों ने भी राहुल की तारीफ करके उनका कद बढ़ा दिया.
अब राहुल के अंदाज़ और स्टाइल में खास बदलाव दिखे, जो उनकी छवि के विपरीत थे-
1. मीडिया से दूरी रखने वाले राहुल रुक कर हर सवाल का जवाब देने लगे. बिना कैमरे के ऑफ रिकॉर्ड गुफ्तगू भी करने लगे.
2. लोगों से हाथ मिलाना, उनकी बात सुनना, कभी किसी परेशान को गले लगा लेना, खुद मिलने वाले से कहना क़ि सेल्फी खिंचवायेंगे, राहुल की छवि को जनता में बदलने लगा.
3. सोशल मीडिया पर कम सक्रिय रहने वाले राहुल ट्विटर पर खासे सक्रिय हो गए, ट्वीट में मज़ाक, व्यंग्य और शायराना अंदाज़ दिखने लगा. अपने कुत्ते pidi के साथ का ट्वीट भला कौन भूल सकता है.
4. पहले राहुल से मिलकर आने वाले नेता और कार्यकर्ता उत्साहित नहीं दिखते थे. कहते हैं कि राहुल तब सिर्फ बात सुन लेते थे, खासे गंभीर रहते थे. लेकिन अब राहुल बात सुनते हैं, मसला हल करने की कोशिश करते हैं, फॉलो अप भी करते हैं. साथ ही मुलाकात में हंसी मजाक और व्यक्तिगत बातें भी करने लगे हैं. कांग्रेस मुख्यालय में भी आकर कार्यकर्ताओं से मुलाकात करने लगे.
5. कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक जो कभी कांग्रेस दफ्तर तो ज़्यादातर सोनिया के घर 10 जनपथ में होती थीं, राहुल के अध्यक्ष बनने के बाद वो सिर्फ कांग्रेस मुख्यालय में होने लगीं.
6. सभी अहम मौकों पर बतौर कांग्रेस अध्यक्ष मौजूद रहने लगे. बजट सत्र के दौरान हर अहम मौके पर राहुल संसद में मौजूद रहे. गांधी जी की पुण्यतिथि पर 30 जनवरी को राहुल गांधी सुबह-सुबह समाधि स्थल पर मौजूद थे.
7. हर साल नया साल विदेश में मनाने वाले राहुल ने अध्यक्ष बनने के बाद नया साल मां सोनिया के साथ गोवा में मनाया और महज चार दिन बाद दिल्ली आकर सियासत में जुट गए.
इसके बाद सबसे अहम मौका नज़र आया, जब बजट सत्र का पहला चरण खत्म होने के बाद जज लोया के मामले की निष्पक्ष जांच की मांग लेकर विपक्षी पार्टियों का दल राष्ट्रपति से मिलने गया. पहली बार सोनिया के बजाय नेतृत्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का रहा, जिसमें 14 राजनैतिक दल शामिल रहे. खास बात थी क़ि, इस प्रतिनिधिमंडल में वो आम आदमी पार्टी भी शामिल थी, जिसने कभी कांग्रेस और राहुल की खूब लानत बलामत की थी.
कुल मिलाकर बदले वक़्त में राहुल भी बदले हैं, लेकिन ये सिर्फ शुरुआत है, अभी काफी लंबा सफर है. फिर राहुल को आगे ये भी साबित करना है कि, ये बदलाव और तेवर लम्बे समय के लिए हैं क्योंकि अब उन पर सबकी पैनी नज़र है. और सबसे अहम होंगे, आने वाले विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव, जब चुनावी जीत हार तय करेगी क़ि सोनिया ने जिसको खुद बॉस माना और कांग्रेस का नया बॉस बनाया, वो वाकई बॉस साबित होगा या नहीं.
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