दिल्ली चुनाव के नतीजे (Delhi Assembly Election Result) आम आदमी पार्टी (Aam Aadmi Party) के लिए जनता का भरोसा दिखाते हैं तो वहीं ये बीजेपी (BJP) के लिए मायावी हैं. मायावी इसलिए कि जनता साथ है भी और साथ नहीं भी है, आम चुनाव में जनता पूरी तरह से बीजेपी (BJP) के साथ थी. कांग्रेस (Congress ) के लिए नतीजे ऐसे रहे जैसे जनता ने भरोसा ना करने लायक भी नहीं समझा. माना ही नहीं कि कांग्रेस (Congress) कोई राजनीतिक दल भी है. अब सवाल उठता है कि जनता कांग्रेस को क्यों वोट देती. दिल्ली में इनका नेता कौन था. इनसे वादा कौन कर रहा था. दिल्ली में कांग्रेस (Delhi Congress )के दो चेहरे थे पीसी चाको (PC Chacho) और सुभाष चोपड़ा (Subhash Chopra). जरा सोचिए कांग्रेस किन नेताओं के भरोसे दिल्ली का चुनाव लड़ रही थी. दिल्ली के प्रभारी पीसी चाको की राजनीतिक समझ और कुशलता का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि जब इनसे पूछा गया कि कांग्रेस क्यों हारी तो उन्होंने परलोक पधारी शीला दीक्षित (Sheila Dikshit) के माथे दोष मढ़ दिया. चाको साहब 2014 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद चुनावी राजनीति से दूर हैं मगर दिल्ली का प्रभार लेते हैं सबसे पहले दिल्ली की सर्वाधिक लोकप्रिय मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित से लड़ाई ठान ली. शीला दीक्षित के बनिस्बत जनाब कांग्रेस को जीत दिलाने के लिए 1947 में जन्मे सुभाष चोपड़ा को तहखाने से निकाल लाए. खुद 1980 के दशक में राजनीति में आए थे और सुभाष चोपड़ा 70 के दशक में राजनीति में आए थे. यह दोनों मिलकर दिल्ली में 2020 में कांग्रेस का एजेंडा सेट कर रहे थे. आज हम बात इसी को लेकर करेंगे कि कांग्रेस के सब जुगनू यादों में क्यों रहते हैं.
दिल्ली चुनाव के नतीजे (Delhi Assembly Election Result) आम आदमी पार्टी (Aam Aadmi Party) के लिए जनता का भरोसा दिखाते हैं तो वहीं ये बीजेपी (BJP) के लिए मायावी हैं. मायावी इसलिए कि जनता साथ है भी और साथ नहीं भी है, आम चुनाव में जनता पूरी तरह से बीजेपी (BJP) के साथ थी. कांग्रेस (Congress ) के लिए नतीजे ऐसे रहे जैसे जनता ने भरोसा ना करने लायक भी नहीं समझा. माना ही नहीं कि कांग्रेस (Congress) कोई राजनीतिक दल भी है. अब सवाल उठता है कि जनता कांग्रेस को क्यों वोट देती. दिल्ली में इनका नेता कौन था. इनसे वादा कौन कर रहा था. दिल्ली में कांग्रेस (Delhi Congress )के दो चेहरे थे पीसी चाको (PC Chacho) और सुभाष चोपड़ा (Subhash Chopra). जरा सोचिए कांग्रेस किन नेताओं के भरोसे दिल्ली का चुनाव लड़ रही थी. दिल्ली के प्रभारी पीसी चाको की राजनीतिक समझ और कुशलता का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि जब इनसे पूछा गया कि कांग्रेस क्यों हारी तो उन्होंने परलोक पधारी शीला दीक्षित (Sheila Dikshit) के माथे दोष मढ़ दिया. चाको साहब 2014 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद चुनावी राजनीति से दूर हैं मगर दिल्ली का प्रभार लेते हैं सबसे पहले दिल्ली की सर्वाधिक लोकप्रिय मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित से लड़ाई ठान ली. शीला दीक्षित के बनिस्बत जनाब कांग्रेस को जीत दिलाने के लिए 1947 में जन्मे सुभाष चोपड़ा को तहखाने से निकाल लाए. खुद 1980 के दशक में राजनीति में आए थे और सुभाष चोपड़ा 70 के दशक में राजनीति में आए थे. यह दोनों मिलकर दिल्ली में 2020 में कांग्रेस का एजेंडा सेट कर रहे थे. आज हम बात इसी को लेकर करेंगे कि कांग्रेस के सब जुगनू यादों में क्यों रहते हैं.
इतिहास अपने आप को दोहराता है. असामान्य परिस्थितियों और असाधारण घटनाओं के लिए सामान्यतः बोले जाने वाला यह वाक्य एक मत है. मगर ऐसा विरले ही होता है कि किसी एक कालखंड में ऐतिहासिक घटनाओं को अंजाम देने वाला पात्र उसी ऐतिहासिक घटना को किसी दूसरे कालखंड में दोहराता हो, अगर वह ऐसा करता है तो जीनियस होता है. पर जीनियस हर देश काल परिस्थितियों में संख्या में उपस्थित नहीं होते हैं. जब आप लगातार चूकते रहते हैं और निकलने का कोई मुश्किल भरा रास्ता आप नहीं चुनना चाहते हैं तो यह गलती कर बैठते हैं कि आप इतिहास को दोहराने जैसी कहावत को, ऐतिहासिक हो गए पात्रों के साथ जोड़कर भाग्य आजमाना शुरू कर देते हैं.
कांग्रेस की मौजूदा परिस्थितियों और पार्टी के ढांचे को देख कर कम से कम यह कहा जा सकता है. हो सकता है कि अहमद पटेल किसी जमाने में कांग्रेस के चाणक्य रहे हों और अंबिका सोनी महान रणनीतिकार रही हों. यह भी सच हो सकता है कि मोतीलाल वोरा की सूझबूझ ने कांग्रेस को मजबूती प्रदान की हो और गुलाम नबी आजाद की राजनीतिक तिकड़म ने कांग्रेस को फायदा पहुंचाया हो. मगर इनके अतीत के राजनीतिक कौशल को देखते हुए अनंत काल तक जिम्मेदारी देना किसी भी सूरत में अच्छी राजनीतिक सोच नहीं कही जा सकती है.
मैंने अपनी पिछले लेख में कहा था कि क्या कांग्रेस अपनी उम्र जी चुकी है? हमने यह बात इसलिए कही थी कि जिस ढर्रे पर कांग्रेस चल रही है वह रास्ता निरंतर ढलान की तरफ जाता है. कोई कितना भी बड़ा संगठन हो या मजबूत चीज हो, हमें एक बात समझनी होगी कि दुनिया में ईश्वर ने ऐसी कोई शय नही बनाई है जिसकी उम्र तय नहीं है. सजीव, निर्जीव और उभयजीव, कायनात में मौजूद सभी की उम्र तय है. चाहे इंसान हो, जानवर हो, कुर्सी- टेबल हो, नदी- नाले हो, पंखा- बल्ब हो, सड़क हो ,इमारत हो, हर वस्तु के उत्पत्ति से लेकर विलुप्त होने तक अपनी एक उम्र है. अश्वत्थामा बस काल्पनिक सत्य है.
हो सकता है कि कांग्रेस के लिए यह उम्र अभी पूरी नहीं हुई हो. जैसा कि बहुत सारे लोगों ने हमारे पिछले लेख पर आपत्ति जताते हुए कहा. मगर इसका मतलब यह नहीं है कि कांग्रेस पार्टी को संभालने वाले लोगों की भी उम्र कभी पूरी नहीं हो. अगर सोनिया गांधी को थोड़ी देर के लिए अलग रखा जाए क्योंकि सोनिया को बेहद मजबूरी में यह पद दोबारा संभालना पड़ा है. मगर सोनिया की सेना को मैदान मारने के लिए जिन सेनापतियों को जिम्मेदारी दी गई है अगर उन सेनापतियों के बारे में आप सोचना शुरू करें तो आपको समझ में आ जाएगा कि क्यों लगता है कि कांग्रेस मुश्किल रास्ता नहीं बल्कि भाग्य को आजमाने वाला आसान रास्ता चुनना चाहती है.
क्या कांग्रेस के रणनीतिकार और कोषाध्यक्ष अहमद पटेल आज भी उतने ही चतुर रणनीतिकार हैं? जितना आज से 20 साल पहले हुआ करते थे. पिछले 5 सालों में अहमद पटेल ने ऐसी कौन सी महान रणनीति बनाई है जिसके आधार पर कांग्रेस को जीत मिली है, सिवाय उनके अपने राज्यसभा चुनाव को छोड़कर. अहमद पटेल जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव थे तब कांग्रेस सत्ता में आई और दूसरी बार भी सत्ता में आई. कहा गया कि सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार की चमत्कारिक सलाह का ही कमाल था कि सोनिया गांधी अपनी कुशलता से लोकप्रिय वाजपेई सरकार को हराकर कांग्रेस को जीत दिला पाईं और दूसरी बार भी अलोकप्रिय मनमोहन सरकार को जीत दिला दी.
बेशक अहमद पटेल को अतिरंजित नहीं तो कम से कम उनको इनका यथोचित श्रेय मिलना चाहिए. सोनिया गांधी को जब लगा कि पार्टी की बागडोर युवा पीढ़ी के हाथ में होनी चाहिए तो उन्होंने पार्टी की कमान राहुल गांधी को सौंप दी. क्या जितनी सहजता के साथ सोनिया गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद का हस्तांतरण किया था उतनी सहजता के साथ अहमद पटेल को भी नेपथ्य में रहकर कांग्रेस की सेवा करने के बारे में नहीं सोचना चाहिए था? मगर अहमद पटेल जैसे तैसे पार्टी में निर्णायक भूमिका में बने रहे और कुछ ना मिला तो कोषाध्यक्ष के पद पर ही काबिज हो गए. जो व्यक्ति अपनी सत्ता बचाने की कोशिश में लगा रहे वह कांग्रेस को सत्ता में स्थापित करने की महती रणनीति पर काम करेगा ऐसा शक होना लाजमी है.
कांग्रेस में सोनिया गांधी के तेज कदमों के साथ चलते हुए एक बुजुर्ग की तस्वीर देखकर लोग सहसा अपनी हंसी नहीं रोक पाते हैं. झुके हुए कंधों के साथ यह बुजुर्ग सोनिया के तेज कदमों के साथ चलने की कोशिश करता है. यह कांग्रेस के सबसे वरिष्ठ महासचिव है मोतीलाल वोरा. ये जैसे ही टीवी स्क्रीन पर आते हैं नई पीढ़ी बिना हंसे नहीं रहती है. इसीलिए नहीं कि वो इन बुजुर्ग का सम्मान नहीं करती है बल्कि उनके मन में यह विचार आता है कि आखिर कौन सा विलक्षण प्रतिभा इनके अंदर है जिसका रिप्लेसमेंट 125 करोड़ भारतीयों में कांग्रेसी आज तक खोज नहीं पाए है.
इससे पहले कहा जाता था कि कांग्रेस में कोषाध्यक्ष का पद ऐसा है जिसे मोतीलाल वोरा बेहद बारीकी से समझते हैं इसलिए कोषाध्यक्ष के पद पर इनका बना रहना जरूरी है. मगर जब अहमद पटेल यह साबित करने में सफल हो गए की कोषाध्यक्ष का पद अब मोतीलाल वोरा के बजाय उनके लिए मुफीद है तो कांग्रेस के रणनीतिकारों ने आपस में पद का अदला बदली कर ली. मोतीलाल वोरा को महासचिव बना दिया और अहमद पटेल कोषाध्यक्ष बन गए. आप इस खेल को समझिए कि पार्टी के मुख्यालय में पार्टी पर अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए कुछ नेताओं का एक समूह है जो परिवर्तन के नाम पर आपस में पदों का म्यूजिकल चेयर का खेल खेल रहे हैं.
कांग्रेस क्यों इतनी बुरी स्थिति में है यह समझने के लिए आपको एक अंतरिम व्यवस्था के तहत बनी कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी या उससे पहले कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे राहुल गांधी के महासचिवों की फौज देखनी चाहिए जिनके कंधों पर कांग्रेस का कायाकल्प का भार है और था. कांग्रेस के महासचिवों की सूची में अंबिका सोनी का नाम देखकर हर शख्स यह सोचता है कि कांग्रेस को इनकी इतनी जरूरत क्यों है. जब पूरे देश में जम्मू कश्मीर के हालात को लेकर हाहाकार मचा हो ऐसी स्थिति में जम्मू-कश्मीर की प्रभारी अंबिका सोनी कहां है और क्या कर रही हैं. निश्चित रूप से यह उन्हीं लोगों को पता होगा जो कांग्रेस के अंदरूनी राजनीति में दिलचस्पी रखते हैं.
हो सकता है किसी जमाने में अंबिका सोनी तेजतर्रार नेता हों और कांग्रेस के लिए बहुत काम किया हो. मगर मैंने शुरुआत में ही यह बात कही थी कि कि इतिहास अपने आप को दोहराता है मगर इतिहास के पात्र अपने आप को दोहराएं यह विरले होता है. कांग्रेस में यह माद्दा बचा है कि अपने इतिहास को दोहरा पाए मगर उसके लिए इतिहास बना चुके ऐतिहासिक पात्रों पर ही भरोसा करने की रणनीति को बदलना होगा.
गुलाम नबी आजाद जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री रह चुके हैं, केंद्र में मंत्री रह चुके हैं मगर देश के किसी भी कोने मे इनका कोई जनाधार बचा हो या फिर इनकी कोई रणनीति काम करती हो ऐसा दिखता नहीं है. जनाब हरियाणा राज्य के प्रभारी हैं जहां अमित शाह. कांग्रेस के आंखों के नीचे से दुष्यंत चौटाला नाम का सुरमा चुरा ले गए और उन्हें पता ही नहीं चला. बीजेपी ने जाट वोटों के बंटवारे के लिए जन नायक पार्टी को खड़ा कर दिया और दिल्ली में बैठे प्रभारी महासचिव को इसकी भनक तक नहीं लगी. इनका कांग्रेस महासचिव होना इस बात की भी गारंटी कहीं से नहीं दे सकता कि देश के किसी भी कोने में यह अल्पसंख्यक जनाधार को पार्टी में जोड़ सकें. अगर यह किसी लायक नहीं हैं तो फिर इनके अतीत को याद कर कांग्रेस के वर्तमान पर इनके बोझ को डालने की क्या जरूरत है.
जम्मू कश्मीर के बाद सबसे ज्यादा हंगामा असम में मचा है. सीएए और एनआरसी को लेकर असम उबल रहा था. अमित शाह ने बोडो समझौता कर और अब उल्फा समझौता की कोशिश में लग कर एक हद तक उस नाराजगी को दूर करने की कोशिश कर रहे हैं तो दूसरी तरफ कांग्रेस के प्रभारी महासचिव हरीश रावत हैं जिन्हें असम की राजनीति में दिलचस्पी लेते शायद ही कोई देख रहा हो. जनाब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहते हुए 2-2 विधानसभा सीट से चुनाव हार गए. वरिष्ठ नेता थे लिहाजा लोकसभा में भी टिकट पकड़ा दिया गया. मगर फिर हार गए. कांग्रेस इस महान रणनीतिकार नेता को ऐसे ही कैसे जाया होने देने देती लिहाजा असम जैसे महत्वपूर्ण राज्य का प्रभारी महासचिव बना दिया. जहां लोग बीजेपी के विकल्प के रूप में आजसू को तो देखते हैं मगर कुछ दिन पहले तक कई वर्षों तक सत्ता में रहे कांग्रेस को विकल्प के रूप में सोचना लगभग छोड़ दिया है.
कांग्रेस के महासचिव की सूची में लुजियानो फलेरियो एकमात्र ऐसा नाम हैं जो अपनी चुनावी राजनीति को भी सफल रखे हुए हैं और साथ में अतीत में संगठन के अंदर बेहतर प्रदर्शन कर अपना इकबाल कायम किया था. मगर दुर्भाग्य देखिए फलेरियो के बारे में देश में कम लोग जानते हैं. फलेरियो गोवा से विधायक हैं और 2013 में इन्होंने अपनी मेहनत की बदौलत नॉर्थईस्ट को कांग्रेस के झंडे के रंग से रंग दिया था. अब उन्हें वापस एक बार फिर से अपने अतीत के प्रदर्शन को दोहराने के लिए लाया गया है. मगर ऐसा होता दिख नहीं रहा है. और जरूरी नहीं है कि ऐसा हो.
इन्हें वापस इसलिए लगाया गया क्योंकि राहुल गांधी के करीबी और कांग्रेस के ताकतवर नेता रहे राजस्थान के मौजूदा विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी जब बिहार समेत पूरे नॉर्थ-ईस्ट के राज्यों के प्रभारी थे. तब जनाब को दिल्ली ऐसी पसंद आई कि दिल्ली से हिलते ही नहीं थे और बहादुर शाह जफर की तरह दिल्ली में बैठे बैठे एक-एक कर कांग्रेस के हाथ से सभी राज्य फिसलते गए. सीपी जोशी वो शख्स हैं जो राजस्थान के प्रदेश अध्यक्ष पद पर रहते हुए 1 वोट से चुनाव हार गए थे वो भी तब जब राज्य में पार्टी की सरकार बन गई हो. इनकी राजनीतिक शिथिलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है अगर अपने परिवार में पत्नी -बच्चे को भी वोट देने के लिए भेजते तो 1 वोट से चुनाव नहीं हारते. अब इन्हें हटा कर वापस से फलेरियो को लगाया गया है कि शायद एक बार फिर से 2013 वाला कमाल दिखा दें.
स्टेडियम वही है, पिच भी वही है, बल्ला भी वही है, टीम भी वही है, मगर उसी सचिन तेंदुलकर से अगर शॉट मिस होना शुरू हो जाता है तो समझ लेना चाहिए कि हर महानायक का आखिरी दिन आता है. आप सोचिए कि अचानक से भारतीय क्रिकेट टीम खराब प्रदर्शन करने लगे और हम वापस से सचिन तेंदुलकर को टीम की दिलाने के लिए टीम में ले आए, तो क्या तेंदुलकर मैच जितवा देंगे? यह बात कांग्रेस को समझनी चाहिए कि इतिहास दोहराने के लिए ऐतिहासिक पात्रों को दोहराने की जरूरत नहीं होती है.
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस अकेले यह करती है. बीजेपी जब उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में एक के बाद एक हार झेल रही थी और उसे निकालने का कोई रास्ता दिख नहीं रहा था तो सबसे आसान रास्ता उसे किसी जमाने में हिंदू हृदय सम्राट रहे कल्याण सिंह में दिखा. मगर सच्चाई यह थी कि कल्याण सिंह पिछली दिवाली को घर में रखा पटाखा साबित हुए. बीजेपी में लगातार हार के बाद बेचैनी है तो एक बार फिर से बाबूलाल मरांडी जैसे फुके हुए कारतूसों में संभावना तलाशने की कोशिश की जा रही है. बिना मेहनत का सबसे आसान काम यही होता है कि दंगल जीतने के लिए किसी जमाने के आजमाए पहलवान को फिर से आजमाया जाए.
सच यही है कि इतिहास प्रेरणा लेने और देने के लिए ही होता है. दरअसल राहुल गांधी के जमाने में दिग्विजय सिंह, ऑस्कर फर्नाडिस, वीरप्पा मोइली और सीपी जोशी जैसे महासचिवों ने कांग्रेसी में ऐसा नरक बोया कि सोनिया गांधी को सबसे आसान काम लगा कि पिछले आजमाए हुए नेताओं को एक बार फिर से अखाड़े में उतार दिया जाए.
कांग्रेस के बुजुर्ग महासचिवों की सूची में मल्लिकार्जुन खड़गे भी हैं. खड़के लोकसभा में नेता विपक्ष के पद पर रहते हुए चुनाव हार गए तो उन्हें महाराष्ट्र का प्रभारी बना दिया गया. खड़गे साहब के अनुभव के बारे में आप अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं इन्हें पता ही नहीं था कि महाराष्ट्र में कांग्रेस इनकी उम्मीद से बेहतर नतीजे लेकर आएगी. जब पार्टी जीती भी तो कांग्रेस को शिवसेना के साथ सरकार बनाने के लिए चर्चा करने के लिए शरद पवार से काम चलाना पड़ा.
ओमान चांडी केरल के अच्छे नेता हैं लिहाजा दक्षिण भारत में हाथ मजबूत करने के लिए कांग्रेस ने इनका सहारा मांगा है. फलेरियो के अलावा चांडी ही हैं जिन्हें महासचिव के रूप में कांग्रेस की नैया पार लगाने के लिए मेहनत करने वालों की सूची में रखा जा सकता है.मगर नई पीढ़ी के साथ और नई पीढ़ी के लिए यह कांग्रेस को दक्षिण भारत में कितना प्रासंगिक बना पाएंगे यह कहना मुश्किल है. कांग्रेस को सोचना चाहिए कि बुजुर्ग नेताओं में आस्था तो रखें मगर अकेले उनके अनुभव पर पार्टी को ना छोड़ दें. अनुभव के साथ ऊर्जा ना हो तो सब बेकार है. कांग्रेस के साथ समस्या यह है कि ऊर्जा के नाम उनकी प्रतिभा खोज प्रतियोगिता ऐसे ऐसे सूरमा खोज लाती है जिनकी प्राथमिकता पार्टी के इतर कुछ और ही होता है.अब जरा कांग्रेस के उन सेनापतियों पर गौर कीजिए.इन्हें नई पीढ़ी के नाम पर महासचिव की कमान दी गई है. यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रभारी महासचिव ज्योतिराज सिंधिया. ऐसा महान काम केवल कांग्रेस कर सकती थी कि जो शख्स ग्वालियर और गुना में अपने राजनीतिक अस्तित्व बचाने की जद्दोजहद कर रहा है उसे वहां से हटाकर लोकसभा चुनाव के ठीक पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पार्टी को खड़ा करने की जिम्मेदारी दे दे. ऐसे प्रभारी महासचिव हैं जिनका पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कभी दिल लगा ही नहीं.
इनका दिलो-दिमाग मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी के इर्द-गिर्द घूमता है जो कि मिलता दिखाई नहीं दे रहा है और इस गुस्से में कांग्रेस का भला करते दिख नहीं रहे. चुनाव हार गए, महासचिव का काम करेंगे नहीं और अब राज्यसभा का टिकट चाहिए. एक महासचिव हैं मध्य प्रदेश के प्रभारी दीपक बावरिया. दीपक बावरिया गुजरात में अब तक बहुत कुछ नहीं कर पाए हैं मगर फिर भी इन्हें मध्यप्रदेश में पार्टी संभालने की जिम्मेदारी दी गई है.
इसी तरह से राजस्थान के प्रभारी अविनाश पांडे हैं. 2008 में यह राहुल बजाज से 1 वोट से राज्यसभा का चुनाव हार गए मगर 2010 में राज्यसभा का चुनाव जीत गए. चुनाव से पहले इन्होंने अशोक गहलोत सचिन पायलट को एक साथ रखने की रणनीति पर काम किया मगर चुनाव जीतने के बाद अभी अशोक गहलोत के पीछे पीछे राज्यसभा में जाने के लिए घूम रहे हैं. पार्टी अध्यक्ष सचिन पायलट से दूर दूर ही रहते हैं कि कहीं अशोक गहलोत नाराज ना हो जाएं. अब ऐसे में भरा यह पार्टी का काम क्या करेंगे.
अविनाश पांडे के अलावा नागपुर विश्वविद्यालय से कांग्रेस के एक और महासचिव हैं मुकुल वासनिक. महाराष्ट्र कांग्रेस के दिग्गज नेता रामचंद्र वासनिक के बेटे मुकुल वासनिक को ना तो नया नेता कहा जा सकता है और ना ही पुराना नेता कहा जा सकता है. पांडे की तरह यह भी कांग्रेस संगठन से आए नेता हैं जो 1984 से ही एक बार चुनाव जीतते हैं और दूसरी बार चुनाव हारते हैं.यह उत्तर से लेकर पश्चिम और पश्चिम से लेकर दक्षिण तक सभी इलाकों में अलग-अलग राज्यों के प्रभारी रह चुके हैं. इनको कांग्रेस और गांधी परिवार के बीच का बेहतर कोऑर्डिनेटर तो कहा जा सकता है. इन्हें दिल्ली के कांग्रेस दफ्तर का बाबू भी कहा जाता है.
रहस्यमई बोलचाल और व्यवहार में नागपुर के संघ का असर पांडे और वासनिक दोनों पर दिखता है मगर यह भी किसी भी सूरत में अब तक रणनीतिकार साबित नहीं हुए हैं. फिर भी बाकी महासचिवों से तो यह बेहतर हैं. कांग्रेस में पार्टी अध्यक्ष के बाद दूसरा बड़ा पद संगठन महासचिव का होता है जिस पद पर अशोक गहलोत के राजस्थान के मुख्यमंत्री बनने के बाद के.सी वेणुगोपाल को बैठाया गया है.
वेणुगोपाल का कोई केरल में बड़ा जनाधार हो ऐसा कभी नहीं रहा. यह जरूरी नहीं है कि जिस नेता का जनाधार हो वही अच्छा रणनीतिकार होता है. मगर एस वेणुगोपाल कोई महान रणनीतिकार के रूप में सामने आए हो ऐसा भी नहीं दिखता है. जब यह कांग्रेस के महासचिव बनाए गए तो लोगों ने पूछा कि वेणुगोपाल कौन हैं. तब इनका परिचय यह कह कर बताया जाता था कि लोकसभा में यह राहुल गांधी की बेंच पर बैठते हैं. हो सकता है कि ऐसा परिचय इसलिए दिया जा रहा हो क्योंकि ये केरल के नेता हैं और उत्तर भारत में ज्यादा इन्हें कोई नहीं जानता है.
मगर संगठन महासचिव के बनने के बाद इनके लोकसभा सीट अलपुजा पर ही कांग्रेस हार जाए वह भी तब जब कि केरल जैसा राज्य मोदी लहर से अछूता था .तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि इनकी संगठन क्षमता में कितना पैनापन है. राहुल गांधी के करीबी पूर्व केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह उड़ीसा के प्रभारी हैं जहां पर कांग्रेस अपना नामों निशान बचाने की जद्दोजहद में लगी है. भंवर जितेंद्र सिंह खुद दो बार से अलवर से लोकसभा चुनाव हार रहे हैं. जो शख्स अलवर में लोकसभा टिकट के लिए घूम रहा हो उसे कहिए कि आप अपना चुनाव तो जीतें हीं, यहीं अलवर मे रहकर उसी समय उड़ीसा मे भी जीता दीजिए तो इसे कांग्रेस की चूकी हुई रणनीति के अलावा और क्या कहेंगे.
उनके बारे में कहा जाता है कि अलवर में रहकर कभी पार्टी दफ्तर नहीं गए. अब जरा सोचिए ऐसा आदमी उड़ीसा में पार्टी का संगठन कैसे खड़ा कर सकता है. राहुल गांधी की दोस्ती भर से अगर किसी को राज्य का प्रभार मिलता हो तो फिर उस राज्य में कांग्रेस का बेड़ा गर्क होना तो तय ही है. पूरे कांग्रेस में एक ही महासचिव काम करती नजर आती हैं और वह हैं कांग्रेस के पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रभारी महासचिव प्रियंका गांधी. सवाल उठता है कि प्रियंका गांधी इतनी मेहनत कर सकती हैं तो बाकि के महासचिव क्यों नहीं कर सकते हैं. लेकिन मौजूदा कांग्रेस में नेतृत्व इतना ताकतवर नहीं है कि महासचिवों से पूछे कि राज्यों में कांग्रेस को खड़ा करने की कौन सी रणनीति पर काम कर रहे हैं.
ऐसी बात नहीं है कि कांग्रेस में प्रतिभाशाली नेताओं की कमी है. राजस्थान के उप मुख्यमंत्री के रूप में सचिन पायलट की प्रतिभा यूं ही जाया हो रही है. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सचिन पायलट को एक मंत्री की हैसियत से ऊपर उठते हुए नहीं देखना चाहते हैं और पायलट की मजबूरी है कि वह पार्टी में बागी होते नहीं दिखना चाहते हैं. महाराष्ट्र चुनाव हो या झारखंड हो या फिर दिल्ली हो, गांधी परिवार के अलावा सबसे ज्यादा डिमांड इन प्रदेशों में सचिन पायलट की ही रही. मगर सचिन पायलट का उपयोग कांग्रेस पार्टी को नई दिशा देने में करने के बजाय राजस्थान का पीडब्ल्यूडी विभाग संभालने में किया जा रहा है.
पायलट राजस्थान प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष हैं, मगर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का खेमा घूम घूम कर बताता है कि बस गिनती के दिन रह गए हैं. ऐसे में पायलट अंदर उत्साह की कमी हो जाती है. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी संगठन से निकले हुए नेता है. पंजाब ,गुजरात और उत्तर प्रदेश में पार्टी के अंदर अच्छा काम कर दिखाया है. इनके संगठन महासचिव रहने के दौरान पहली बार कांग्रेस संगठन सक्रिय दिख रहा था. इनके पास मौका था कि कांग्रेस में नई जान फूंकने में अपना अनुभव काम में लगाते मगर इन्होंने अपनी सारी ऊर्जा और अनुभव सचिन पायलट को सत्ता से दूर रखने में लगा दिया.
इनसे अगर कोई कहता है कि आप अगर दिल्ली में रहकर कांग्रेस संभालते तो कांग्रेस का भला होता तो यह कहते हैं कि अगर मैं राजस्थान छोड़ देता तो राजस्थान से कांग्रेस खत्म हो जाती. अगर अशोक गहलोत के होने भर से राजस्थान में कांग्रेस है तो बेहतर होगा कि ऐसी कांग्रेस खत्म ही हो जाए. कांग्रेस पार्टी की बीमारी यह है कि पार्टी के लिए समस्या देशभर में है मगर पार्टी के चूके हुए चौहान इसका इलाज गांधी परिवार के अंदर ढूंढते हैं.
कांग्रेस को नया राष्ट्रीय अध्यक्ष कब मिलेगा यह किसी को पता नहीं. पार्टी को बदलने की शुरुआत यहीं से होनी चाहिए कि पार्टी के हर नेता को पता हो कि उसका नया राष्ट्रीय अध्यक्ष कब मिलेगा. जब कार्यकर्ताओं को यह समझ में आने लगेगा कि हमारा अगला अध्यक्ष कौन होगा तब पार्टी का महासचिव भी वही होगा जो काम करेगा. यह सब होने के लिए कांग्रेस को अपने नेताओं के अंदर अपने विचारों के प्रति निष्ठा पैदा करनी होगी जो कि लोकतांत्रिक तरीके से पार्टी के अंदर तो लड़ें मगर अपने विचार के प्रति इतने समर्पित हो की पार्टी से गद्दारी करने के बारे में ना सोचे.
कांग्रेस एक विचार है यह कोई विचारधारा नहीं है. जब व्यक्ति किसी भी विचार के प्रति पूरी तरह से समर्पित होता है तो वह व्यक्ति से भले ही नाराज हो जाए मगर विचार से नाराज नहीं होता. फिर वह उस विचार के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित होकर मेहनत कर पाता है .और यह सब तब हो पाएगा जब पार्टी का शीर्ष नेतृत्व पार्टी के विचारों के प्रति ईमानदार होगा. कांग्रेस के पुनरुत्थान का रास्ता इसके सिवाय कोई दूसरा नहीं है.
ये भी पढ़ें -
Kejriwal-Modi ने संयोग से 16 फरवरी राजनीतिक प्रयोग की नयी तारीख बना दी
Shaheen bagh Protest: अब सारा खेल पॉलिटिकल स्कोरिंग का है!
केजरीवाल में बदलाव की बदौलत दिल्ली की जंग थमने के भी आसार हैं
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.