श्रीनगर उपचुनावों के दौरान भारतीय सेना के मेजर गोगोई द्वारा कश्मीरी युवक फारूक अहमद दार को जीप के आगे बांधे जाने की घटना का खुब विरोध हुआ था. अब उस चुनाव में फारूक के वोट डालने की खबर ने लोगों को एक बार फिर से सेना के प्रति अपना रोष जाहिर करने का मौका दे दिया है. एक बार फिर से मेजर गोगोई को उस काम के लिए बदनाम किया जा रहा है जिससे उन्होंने कई लोगों की जान बचाई थी. जम्मू-कश्मीर पुलिस की रिपोर्ट को सेना के कुछ विरोधियों ने अपनी सीमित सोच के कारण सच्चाई के तराजू पर तौलने की जहमत ही नहीं उठाई.
ये सच है कि पुलिस ने अपने रिपोर्ट में लिखा है कि दार ने अपनी चुनाव क्षेत्र में वोट डाला था और जब आर्मी वालों ने उसे उठाकर जीप पर बांध लिया था तब वो वोट देकर ही लौट रहा था. लेकिन पुलिस की रिपोर्ट में ये कहीं नहीं लिखा गया कि आखिर पत्थरबाजों की वो भीड़ कहां से आई थी. ये पता लगाना नामुमकिन भी है. क्योंकि पुलिस की गाड़ी के आस-पास मौजूद हर इंसान पत्थरबाजी कर रहा था. आर्मी की गाड़ियों पर हर कोई हमला कर रहा था. यहां तक की पेट्रोल बम भी आर्मी की गाड़ियों पर फेंके गए थे.
क्या चुनाव में वोट डालना और आर्मी पर पत्थर चलाना दो बाते हैं? क्या जो इंसान वोट डालकर आ रहा हो वो आर्मी पर पथराव नहीं कर सकता? वो भी तब जब उसके सारे दोस्त आर्मी पर हमला कर रहे हों. इन में से किसी भी मुद्दे पर पुलिस रिपोर्ट में बात नहीं की गई. इस तरह के मुद्दों पर बात करना पुलिस के लिए नामुमकिन भी था. यही कारण है कि जिन्होंने कभी हिंसा नहीं देखी हो और किसी की जान बचाने के लिए आगे नहीं आए हों उन्होंने अपनी समझ के हिसाब से पुलिस की रिपोर्ट का मतलब निकाल लिया और शोर मचाने लगे.
दूसरी तरफ एनआईए और ईडी की जांच में ये बात साफ तौर साबित हो गई है कि...
श्रीनगर उपचुनावों के दौरान भारतीय सेना के मेजर गोगोई द्वारा कश्मीरी युवक फारूक अहमद दार को जीप के आगे बांधे जाने की घटना का खुब विरोध हुआ था. अब उस चुनाव में फारूक के वोट डालने की खबर ने लोगों को एक बार फिर से सेना के प्रति अपना रोष जाहिर करने का मौका दे दिया है. एक बार फिर से मेजर गोगोई को उस काम के लिए बदनाम किया जा रहा है जिससे उन्होंने कई लोगों की जान बचाई थी. जम्मू-कश्मीर पुलिस की रिपोर्ट को सेना के कुछ विरोधियों ने अपनी सीमित सोच के कारण सच्चाई के तराजू पर तौलने की जहमत ही नहीं उठाई.
ये सच है कि पुलिस ने अपने रिपोर्ट में लिखा है कि दार ने अपनी चुनाव क्षेत्र में वोट डाला था और जब आर्मी वालों ने उसे उठाकर जीप पर बांध लिया था तब वो वोट देकर ही लौट रहा था. लेकिन पुलिस की रिपोर्ट में ये कहीं नहीं लिखा गया कि आखिर पत्थरबाजों की वो भीड़ कहां से आई थी. ये पता लगाना नामुमकिन भी है. क्योंकि पुलिस की गाड़ी के आस-पास मौजूद हर इंसान पत्थरबाजी कर रहा था. आर्मी की गाड़ियों पर हर कोई हमला कर रहा था. यहां तक की पेट्रोल बम भी आर्मी की गाड़ियों पर फेंके गए थे.
क्या चुनाव में वोट डालना और आर्मी पर पत्थर चलाना दो बाते हैं? क्या जो इंसान वोट डालकर आ रहा हो वो आर्मी पर पथराव नहीं कर सकता? वो भी तब जब उसके सारे दोस्त आर्मी पर हमला कर रहे हों. इन में से किसी भी मुद्दे पर पुलिस रिपोर्ट में बात नहीं की गई. इस तरह के मुद्दों पर बात करना पुलिस के लिए नामुमकिन भी था. यही कारण है कि जिन्होंने कभी हिंसा नहीं देखी हो और किसी की जान बचाने के लिए आगे नहीं आए हों उन्होंने अपनी समझ के हिसाब से पुलिस की रिपोर्ट का मतलब निकाल लिया और शोर मचाने लगे.
दूसरी तरफ एनआईए और ईडी की जांच में ये बात साफ तौर साबित हो गई है कि कश्मीर में हो रही हिंसा की वारदातों को अलगावादियों द्वारा फंडिंग की जा रही थी. नोटबंदी के बाद से अलगाववादियों द्वारा हिंसा की घटनाओं में अप्रत्याशित कमी आ गयी. हुर्रियत नेता शब्बीर शाह ने तो अलगाववादियों को आर्थिक मदद देने की बात पर सहमति भी जाहिर की थी. इसलिए इस बात की पूरी संभावना है कि वोट देने के बाद दार ने कुछ पैसे बनाने के लालच में पत्थरबाजों का साथ दिया हो.
पुलिस रिपोर्ट में पत्थर फेंकने पर कोई टिप्पणी नहीं है क्योंकि इलाके के सारे लोग पत्थरबाजी में शामिल थे. फिर आखिर विरोधी एक ही फैक्ट को जानकर किसी निष्कर्ष पर कैसे पहुंच गए? जमीनी हकीकत को पहले जानें उसके बाद ही किसी तर्क पर आएं.
ये सीधी सी बात है कि किसी एक इंसान को जीप से बांधने के लिए सेना पत्थरबाजों की भीड़ में तो गई नहीं होगी. ऐसा करने के लिए उनके पास न तो समय था और न ही इतना मौका था. क्योंकि वो तो खुद ही निशाने पर थे. पत्थरबाजों के बीच फंसे सेना के जवान अपने साथियों को बचाने के लिए लड़ रहे थे. एक ओर जहां कुछ सैनिक अपने साथियों को उस भीड़ से बाहर निकालने में लगे थे तो वहीं कुछ अपनी गाड़ियों में लगी मिट्टी को हटाने में लगे थे.
सैनिकों पर पेट्रोल बम फेके जा रहे थे. इसलिए उस वक्त एक-एक मिनट कीमती था. इसलिए उस स्थिति में मेजर गोगोई ने सबसे नजदीक के पत्थरबाज को धर दबोचा होगा. उस स्थिति में कुछ सोचने का समय नहीं होगा. मेजर गोगोई को तुरंत एक्शन लेने की जरुरत थी ताकि अपने साथ-साथ और जवानों की जान बचा सकें. वो उन्होंने किया.
सेना कोई पिकनिक मनाने के लिए कश्मीर घाटी में तैनात नहीं की गई है. वो पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित अलगाववादियों से लोहा ले रही थी. मेजर गोगोई के इस कदम की आलोचना करने में वो भी आगे आ गए जो अपने आलीशान कमरों में बैठकर बस तमाशा देखना जानते हैं. एनआईए की कार्रवाई ने अलगाववादियों की कमर तोड़कर रख दी है तो अब सेना को रोजाना ही ऐसी घटनाओं का सामना करना पड़ रहा है. सेना लोगों का दुश्मन नहीं है. बल्कि स्थानीय लोगों की जान बचाने के लिए अपनी जान दांव पर लगा रही है.
गोगोई की रेसक्यू टीम 900 से ज्यादा लोगों की भीड़ से घिरी हुई थी. उन्हें अपनी जान बचाने के लिए हर सेकेंड में कार्रवाई करनी थी. उन्होंने अपना काम बखूबी किया और सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत द्वारा मेजर गोगोई की सराहना करना एक स्वागत योग्य कदम था.
हमें इस घटना पर राजनीति करने के बदले अपने जवानों का साथ देना चाहिए.
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