कांग्रेस चुनावों में हारे या जीते. गांधी परिवार कांग्रेस के सिस्टम में कभी हार नहीं सकता. इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है, बिना किसी संगठनात्मक प्रतिरोध के सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बन जाना. ये सीधे सीधे राजशाही परंपरा है. पर इसको सही ठहराने वालें के पास तर्कों की कमी नहीं है. जिसमें प्रमुख रूप में ये कहा जा रहा है कि राहुल गांधी में बड़ा बदलाव आया है. वो कहीं अधिक सक्रिय और आक्रामक हो गए हैं.
गुजरात चुनाव के संदर्भ में कई वरिष्ठ राजनैतिक विश्लेषकों और पत्रकारों ने कहा कि गुजरात पहला ऐसा चुनाव है, जहां कांग्रेस जी-जान से लड़ी. और इसमें राहुल गांधी की तारीफ बनती है. इधर, एक्ज़िट पोल के नतीजों के बाद ऐसी हेडलाइंस भी बनने लगी कि भले ही कांग्रेस, गुजरात हार जाए. दिल तो राहुल गांधी ने जीत ही लिया है. राहुल गांधी ने ये दिखा दिया कि नरेंद्र मोदी से लड़ा जा सकता है. इत्यादि, इत्यादि.
पर मुझे याद नहीं आता कि 2015 में दिल्ली को छोड़कर कांग्रेस कौन सा चुनाव जी-जान से नहीं लड़ी. सिर्फ इसको छोड़कर जहां उनसे जितना बन पड़ा, उतना किया, दम लगाकर किया. राहुल गांधी तब भी इसी तरह लगे थे. जो शायद भूल गए, उन्हें राहुल गांधी के शुरुआती यूपी चुनाव कैंपेन को याद करना चाहिए. खाट पर चर्चा और रैलियां कम नहीं थीं. बाकी जो इस बार गुजरात को लेकर माहौल बनाया गया, वो एक कामयाब स्ट्रैटजी का हिस्सा है. इसकी सफलता का श्रेय राहुल गांधी की टीम पर है.
कांग्रेस चुनावों में हारे या जीते. गांधी परिवार कांग्रेस के सिस्टम में कभी हार नहीं सकता. इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है, बिना किसी संगठनात्मक प्रतिरोध के सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष बन जाना. ये सीधे सीधे राजशाही परंपरा है. पर इसको सही ठहराने वालें के पास तर्कों की कमी नहीं है. जिसमें प्रमुख रूप में ये कहा जा रहा है कि राहुल गांधी में बड़ा बदलाव आया है. वो कहीं अधिक सक्रिय और आक्रामक हो गए हैं.
गुजरात चुनाव के संदर्भ में कई वरिष्ठ राजनैतिक विश्लेषकों और पत्रकारों ने कहा कि गुजरात पहला ऐसा चुनाव है, जहां कांग्रेस जी-जान से लड़ी. और इसमें राहुल गांधी की तारीफ बनती है. इधर, एक्ज़िट पोल के नतीजों के बाद ऐसी हेडलाइंस भी बनने लगी कि भले ही कांग्रेस, गुजरात हार जाए. दिल तो राहुल गांधी ने जीत ही लिया है. राहुल गांधी ने ये दिखा दिया कि नरेंद्र मोदी से लड़ा जा सकता है. इत्यादि, इत्यादि.
पर मुझे याद नहीं आता कि 2015 में दिल्ली को छोड़कर कांग्रेस कौन सा चुनाव जी-जान से नहीं लड़ी. सिर्फ इसको छोड़कर जहां उनसे जितना बन पड़ा, उतना किया, दम लगाकर किया. राहुल गांधी तब भी इसी तरह लगे थे. जो शायद भूल गए, उन्हें राहुल गांधी के शुरुआती यूपी चुनाव कैंपेन को याद करना चाहिए. खाट पर चर्चा और रैलियां कम नहीं थीं. बाकी जो इस बार गुजरात को लेकर माहौल बनाया गया, वो एक कामयाब स्ट्रैटजी का हिस्सा है. इसकी सफलता का श्रेय राहुल गांधी की टीम पर है.
जिससे राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पर बैठने को सही ठहराया जाए. इसमें अमेरिका की यूसी बर्कले में राहुल गांधी के लेक्चर याद करना चाहिए. जिसमें वो वंशवाद को सही बता रहे थे. इसके बाद कुछ ही दिनों में सरकार और सत्ताधारी पार्टी के प्रमुख व्यक्तियों के बेटों के कथित बिज़नेस पर आधारित दो ख़बरें अचानक सामने आईं. इसमें एक में मानहानि का मामला कोर्ट तक पहुंच गया. ये कितना सच है, कितना झूठ, ये पुख्ता नहीं है. लेकिन राहुल गांधी की टीम ने इसे चुनावी कैंपेन और सोशल मीडिया प्रोपेगैंडा का बड़ा हिस्सा बनाया. जिसे राहुल गांधी के ऑफिस ने ट्विटर से पैनापन दिया.
इसका असली मकसद भ्रष्टाचार के मुद्दे से ज़्यादा वंशवाद के मुद्दे पर कांग्रेस और गांधी परिवार को सही ठहराना था. क्योंकि ऐसा ना होता तो गुजरात कैंपेन के आखिरी दिनों में ये मुद्दा अचानक कांग्रेस के कैंपेन से गायब ना हो जाता. माहौल बनाने का आधार तैयार हो चुका था. और इसे कैंपेन के ज़रिए हवा देनी थी. सामाजिक समीकरण साधने की स्ट्रैटजी पर भी आगे बढ़े. हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर, जिग्नेश मेवाणी को साथ लाए. इससे पूरा माहौल बन गया कि बस अब कांग्रेस आवे छे.
लेकिन कांग्रेस आवे छे से बड़ी बात ये थी कि कांग्रेस में अध्यक्ष पद पर राहुल गांधी आवे छे. 16 दिसंबर को विजय दिवस पर राहुल गांधी की ताजपोशी का चुनाव करना अच्छी रणनीति रही. लेकिन ये विजय दिवस कांग्रेस के सिस्टम पर गांधी परिवार की जीत का ज़्यादा लगा. रही सही कसर राहुल गांधी के उस दिन के भाषण ने कर दी. राजशाही की मध्यकालीन परंपरा को साफ साफ दिखाने वाले आयोजन में राहुल गांधी की ये बात सबसे बड़ा विरोधाभास रही कि मौजूदा प्रधानमंत्री देश को मध्यकाल में ले जा रहे हैं. राहुल गांधी ने गांधी परिवार के ‘विजय दिवस’ पर जो विचारधारा की बात कही. कुछ दिन पहले तक उसका साफ साफ खोखलापन गुजरात के चुनावी कैंपेन में दिख रहा था. जब वो शिव भक्त बनकर मंदिर-मंदिर जा रहे थे. रुद्राक्ष दिखा रहे थे.
जो बात राहुल गांधी 16 दिसंबर को कह रहे थे, उसे गुजरात कैंपेन में क्यों नहीं हिस्सा बनाया? क्या सिर्फ चुनावी डर से मुस्लिमों के मुद्दे पर बोले नहीं? राहुल गांधी जिस विचारधारा की बात सीना तान कर कर रहे थे, उसे वो गुजरात के चुनावी कैंपेन में क्यों नहीं दिखा पाए? ये वो सवाल हैं जो राहुल गांधी और कांग्रेस से पूछे जाने चाहिए.
जहां तक राहुल गांधी के सीखने की बात है. व्यक्ति अपनी उम्र के साथ साथ जीवन के अनुभव से सीखता है. परिपक्व होता है. कोई भी इससे अछूता नहीं है. राहुल गांधी में भी अगर ऐसा हुआ है तो वो स्वाभाविक है. इसे क्रांति का रूप देकर देश, कांग्रेस और विपक्ष को भ्रम में रखने जैसा होगा.
विपक्ष को नरेंद्र मोदी जैसा ही सशक्त नेता चाहिए, नहीं तो नरेंद्र मोदी से राजनैतिक तौर पर वो लड़ नहीं सकते हैं. भले ही कितने भ्रम बनाए जाएं, राहुल गांधी वो नेता नहीं हैं. ये कई बार प्रमाणित भी हो चुका है. गुजरात से बने भ्रम को कांग्रेस, गांधी परिवार के लिए जीना चाहती, तो वो उसकी अपनी राजनैतिक मजबूरी है. पर क्या ऐसा विपक्ष की दूसरी पार्टियां भी विकल्प ना होने की मजबूरी में करेंगे?
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