दलित राजनीति का जो नूमना 2017 के राष्ट्रपति चुनाव में देखने को मिला वो एक मिसाल है. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद पर बैठा कर बीजेपी ने जो संदेश देना चाहा, लगता है सब मिट्टी में मिल गया. अमित शाह के दलित स्नान से लेकर दलित भोज तक सब पर लगता है पानी फिर गया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान की मुहिम हवा हो गयी.
तमाम कोशिशों के बावजूद बीजेपी की मोदी सरकार की छवि दलित विरोधी नजर आने लगी है. संसद में राजनाथ सिंह सफाई दे रहे हैं और अमित शाह को बचाव में बयान जारी करना पड़ रहा है और कर्नाटक की चुनावी रैली में राहुल गांधी कह रहे हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुप हैं. क्या वास्तव में दलितों को लेकर बीजेपी का स्टैंड यही है या फिर वो राजनीति में फंस गयी है?
दलित आंदोलन किसके लिए?
लेबर चौक नाम भले न हो लेकिन तकरीबन हर शहर और बाजार में एक जगह ऐसी होती जरूर है. ग्वालियर के द्वारकाधीश मंदिर के पास भी मजदूर काम पाने की उम्मीद में सुबह से ही जुटने लगते हैं. दलितों के भारत बंद की परवाह न करते हुए राकेश टमोटिया 2 अप्रैल को भी काम की तलाश में जगह पर समय से पहुंच गये थे. कोई काम नहीं मिला इसलिए देर तक रुके रहे - तभी गोली चली और सीधे उनके सीने में जा लगी. राकेश वहीं गिर पड़े और मौके पर ही दम तोड़ दिया.
बीबीसी की हिंदी सेवा ने जब राकेश के भाई लाखन सिंह टमोटिया से पूछा कि एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में बुलाये गये बंद में वे लोग शामिल नहीं थे? लाखन का जवाब था, "नहीं. हम काम पर थे और मेरा भाई भी हर दिन की तरह काम की तलाश में गया था." भारत बंद के दौरान देश भर में हुई हिंसा में अब तक 12 लोगों की मौत हो चुकी है. क्या पता राकेश जैसे उनमें कितने लोग रहे हों?
दलित वोट बैंक की राजनीति
जिस बात को अभी बवाल मचा हुआ है तकरीबन वैसी ही व्यवस्था यूपी में मायावती शासन में हुआ था. मायावती ने 2007 में ही यूपी में एससी एसटी...
दलित राजनीति का जो नूमना 2017 के राष्ट्रपति चुनाव में देखने को मिला वो एक मिसाल है. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद पर बैठा कर बीजेपी ने जो संदेश देना चाहा, लगता है सब मिट्टी में मिल गया. अमित शाह के दलित स्नान से लेकर दलित भोज तक सब पर लगता है पानी फिर गया. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान की मुहिम हवा हो गयी.
तमाम कोशिशों के बावजूद बीजेपी की मोदी सरकार की छवि दलित विरोधी नजर आने लगी है. संसद में राजनाथ सिंह सफाई दे रहे हैं और अमित शाह को बचाव में बयान जारी करना पड़ रहा है और कर्नाटक की चुनावी रैली में राहुल गांधी कह रहे हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुप हैं. क्या वास्तव में दलितों को लेकर बीजेपी का स्टैंड यही है या फिर वो राजनीति में फंस गयी है?
दलित आंदोलन किसके लिए?
लेबर चौक नाम भले न हो लेकिन तकरीबन हर शहर और बाजार में एक जगह ऐसी होती जरूर है. ग्वालियर के द्वारकाधीश मंदिर के पास भी मजदूर काम पाने की उम्मीद में सुबह से ही जुटने लगते हैं. दलितों के भारत बंद की परवाह न करते हुए राकेश टमोटिया 2 अप्रैल को भी काम की तलाश में जगह पर समय से पहुंच गये थे. कोई काम नहीं मिला इसलिए देर तक रुके रहे - तभी गोली चली और सीधे उनके सीने में जा लगी. राकेश वहीं गिर पड़े और मौके पर ही दम तोड़ दिया.
बीबीसी की हिंदी सेवा ने जब राकेश के भाई लाखन सिंह टमोटिया से पूछा कि एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में बुलाये गये बंद में वे लोग शामिल नहीं थे? लाखन का जवाब था, "नहीं. हम काम पर थे और मेरा भाई भी हर दिन की तरह काम की तलाश में गया था." भारत बंद के दौरान देश भर में हुई हिंसा में अब तक 12 लोगों की मौत हो चुकी है. क्या पता राकेश जैसे उनमें कितने लोग रहे हों?
दलित वोट बैंक की राजनीति
जिस बात को अभी बवाल मचा हुआ है तकरीबन वैसी ही व्यवस्था यूपी में मायावती शासन में हुआ था. मायावती ने 2007 में ही यूपी में एससी एसटी एक्ट में एफआईआर के बाद गिरफ्तारी पर रोक का प्रावधान लागू कर दिया था. तब बीएसपी की रणनीति बहुजन से सर्वजन पर फोकस हो चुकी थी क्योंकि सवर्णों के साथ सोशल इंजीनियरिंग के जरिये ही मायावती सत्ता पर काबिज हुई थीं.
मायावती सरकार ने जो प्रावधान किये थे उसमें भी एससी-एसटी केस में एफआईआर के बाद तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लग गयी थी. हालांकि, 2012 आते आते मायावती की सोशल इंजीनियरिंग फेल हो गयी और अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी की सरकार बन गयी. 2017 में मायावती ने अपनी रणनीति में बदलाव किया और दलितों के साथ सवर्णों की बजाये मुस्लिमों को जोड़ने की कोशिश की, लेकिन ये भी पूरी तरह नाकाम रहा. एससी-एसटी कानून पर सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर के बाद अब मायावती ने भी स्टैंड बदल लिया है.
सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर के बाद सबसे पहले स्टैंड लिया राहुल गांधी ने. मायावती तो बस अभी बहती गंगा में हाथ धो रही हैं. राहुल गांधी ने ही सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर के लिए केंद्र की मोदी सरकार को जिम्मेदार बताया. राहुल गांधी की हिदायत पर कांग्रेस नेताओं ने मीडिया में आकर आरोप लगाया कि मोदी सरकार ने कोर्ट में दलितों का पक्ष ठीक से नहीं रखा और अदालत का आदेश उसी का नतीजा है.
राहुल गांधी इस मसले को लेकर विपक्षी नेताओं के साथ राष्ट्रपति से भी मुलाकात की. उसी के बाद एनडीए के दलित नेताओं ने प्रधानमंत्री से मिल कर इस मुद्दे पर अपनी बात रखी. बवाल बढ़ने पर बीजेपी की चिंता भी बढ़ गयी है और नेताओं की फौज बचाव में उतर आयी है.
बीजेपी की इतनी फजीहत क्यों?
आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया और तोहमत आ पड़ी बीजेपी की मोदी सरकार पर. सवाल ये है कि क्या मोदी सरकार ने जान बूझ कर ऐसा किया? क्या मोदी सरकार से दलितों का पक्ष रखने में गलती हुई, जैसा कि विपक्ष का आरोप है? या फिर मोदी सरकार ने हल्के में ले लिया और दलितों के एकजुट होने से मामला इतना गंभीर हो गया.
वस्तुस्थिति तो यही है कि बीजेपी को हाल फिलहाल दलितों का जो सपोर्ट मिला है उसे छिटकने का डर सताने लगा है. सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी ऐसे वक्त आया है जब कर्नाटक में चुनाव हो रहे हैं और उसके बाद राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की बारी है जहां बीजेपी सत्ता में है. ये दलितों का आंदोलन ही है कि गुजरात में जिग्नेश मेवाणी जैसे युवाओं ने बीजेपी की नाक में दम कर दिया और अब तो दिल्ली पहुंच कर भी ललकारने लगे हैं.
दबाव में ही सही, मोदी सरकार रिव्यू पेटिशन लेकर सुप्रीम कोर्ट में पहुंची भी है, लेकिन अब विरोधी कह रहे हैं सरकार ने ये कदम उठाने में भी देर कर दी. दरअसल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं ने बार बार बयान देकर पैर में कुल्हाड़ी मार ली है. होता ये है कि संघ के नेताओं की पूरी बात सामने न आकर सिर्फ एक लाइन फैल जाती है कि संघ और बीजेपी आरक्षण खत्म करना चाहते हैं. बाद में लालू प्रसाद से लेकर राहुल गांधी तक लोगों को यही समझाते रहते हैं कि बीजेपी सरकार संघ की विचारधारा को लागू करने के लिए आरक्षण को खत्म कर देना चाहती है.
बिहार चुनाव में मोहन भागवत के बाद संघ की ओर से मनमोहन वैद्य के बयान पर सबसे ज्यादा हंगामा हुआ. जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल के दौरान वैद्य का कहना रहा - 'देश के लिए लंबे समय तक आरक्षण का रहना ठीक नहीं है.'
असल में तो वैद्य ने ये समझाने की कोशिश की कि एक अरसे बाद सभी को समान अवसर देने का वक्त आना चाहिये, लेकिन संदेश गलत चला गया. वैद्य ने कहा था, "खुद भीमराव अंबेडकर भी कहते थे कि किसी भी राष्ट्र में हमेशा आरक्षण का प्रावधान ठीक नहीं है."
वैद्य का ये बयान आने के कुछ ही घंटों बाद इतना शोर होने लगा कि संघ के ही दत्तात्रेय होसबोले को प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर सफाई देनी पड़ी थी.
मोदी सरकार ने दलितों के हिंसक आंदोलन की दुहाई देकर आदेश पर रोक लगाने की मांग की तो सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरा दिया. अब तो हालत ये है कि अगर मोदी सरकार दलितों के पक्ष में कोई अध्यादेश भी लाती है तो भी उसे कोई राजनीतिक फायदा मिले इसमें संदेह है. बीजेपी के विरोधियों ने दलितों के नाम पर चारों तरफ से घेर कर बीजेपी को कठघरे में खड़ा कर दिया है. राहुल गांधी लगातार सवाल पूछ रहे हैं - रोहित वेमुला की खुदकुशी से लेकर दलितों के साथ हुए हर अत्याचार पर. कर्नाटक की एक सभा में राहुल गांधी पूछते हैं, "रोहित वेमुला की हत्या हो जाती है. उना में दलितों को पीटा जाता है. लेकिन प्रधानमंत्री इन मामलों में एक शब्द भी नहीं बोलते... एससी एसटी एक्ट को कमजोर कर दिया गया है. मोदी ने एक शब्द भी नहीं बोला."
सरकार के पास सफाई देने के अलावा कोई चारा भी नहीं बचा है. पुनर्विचार याचिका में देर के सवाल पर राजनाथ सिंह सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर आने से लेकर कोर्ट में अर्जी दाखिल करने तक एक एक दिन का हिसाब देना पड़ रहा है. मोदी सरकार के बचाव में अमित शाह को भी बयान जारी करना पड़ रहा है कि सरकार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए हर संभव प्रयास करेगी.
लोक सभा में अपने बयान में राजनाथ सिंह को कहना पड़ा, "मैं विश्वास दिलाना चाहता हूं कि हमारी सरकार ने एससी-एसटी कानन को कमजोर नहीं किया है, बल्कि हमारी सरकार ने कार्यभार संभालते ही इस संदर्भ में कानून के मौजूदा प्रावधानों को देखा और निर्णय लिया कि इसे और मजबूत बनाया जाएगा."
राजनाथ सिंह बताते हैं, "2015 में हमारी सरकार ने इस कानून में संशोधन पारित किया इसके तहत इस कानून में नये प्रावधानों को जोड़ा गया." केंद्रीय मंत्री थावर चंद गहलोत पूछा गया कि अगर सरकार की याचिका खारिज हुई तो क्या करेंगे, उनका कहना है कि कोर्ट का फैसला संसद से अमान्य करवाएंगे. यानी सरकार अध्यादेश लाएगी. शाहबानो केस में राजीव गांधी की सरकार ने भी ऐसा ही किया था और बीजेपी उसे लेकर लगातार हमलावर रही है. वक्त का तकाजा देखिये कि खुद बीजेपी भी वही करने की सोच रही है. वोट बैंक बदल चुका है, सरकारी रवैया वही है. तब जो मुस्लिम वोट के लिए हुआ अब वही दलित वोट बैंक के लिए होगा.
देखा जाये तो बीजेपी के हाथ से खिसकता दलित वोट बैंक पूरी तरह संघ की ही नाकामी लगती है. आखिर हिंदुओं को एकजुट करने की संघ की कोशिश नाकाम क्यों हो जाती है - और बीजेपी सब कुछ करके दलितों के मामले में हर बार चूक क्यों जाती है?
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