यूपी विधानसभा चुनाव 2022 (P Assembly elections 2022) के मद्देनजर तमाम राजनीतिक दलों के बीच वोट बैंकों को साधने के लिए नूराकुश्ती शुरू हो चुकी है. इस विधानसभा चुनाव में ऐसा पहली बार नजर आ रहा है कि सपा, कांग्रेस और बसपा जैसे सियासी दल मुस्लिम वोट बैंक के लिए कुछ भी खुलकर बचने से बोल रहे हैं. बात वोट बैंक की हो रही है, तो मायावती के एकाधिकार वाले दलित वोट बैंक को नहीं भूला जा सकता है. इस वोटबैंक की बदौलत ही मायावती चार बार यूपी में मुख्यमंत्री पद तक पहुंची हैं. लेकिन, बसपा सुप्रीमो के इस वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए आजाद समाज पार्टी के मुखिया और भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर आजाद 'रावण' लगातार कोशिशों में जुटे हुए हैं. मायावती का गढ़ कहे जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस बार चंद्रशेखर आजाद की पार्टी ने पंचायत चुनाव में 40 से ज्यादा सीटों पर कब्जा किया था. इसे बसपा सुप्रीमो मायावती के लिए एक बड़ा झटका कहा गया था.
'पंचायत आजतक' कार्यक्रम में चंद्रशेखर आजाद ने कहा कि दलितों को उनकी आबादी के हिसाब से भागीदारी देने वाले राजनीतिक दल से गठबंधन होगा. अगर ऐसा नहीं होता है, तो सूबे की सभी 403 विधानसभा सीटों पर आजाद समाज पार्टी चुनाव लड़ेगी. चंद्रशेखर के अभी तक के राजनीतिक सफर को देखें, तो स्थिति साफ है कि अगर आजाद समाज पार्टी का किसी अन्य राजनीतिक दल से गठबंधन नहीं होता है, तो वो यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में वोटकटवा की भूमिका ही निभाएंगे. हालांकि, चंद्रशेखर आजाद वोटकटवा बनने से इनकार कर रहे हैं. उनके हिसाब से इस बार दलित किंगमेकर की भूमिका में रहेगा. यूपी में 85 विधानसभा सीटें अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित हैं. अगर इन सीटों पर चंद्रशेखर रावण अपने उम्मीदवार उतारते हैं, तो वो भी एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी की तरह ही अपनेआप वोटकटवा बन जाएंगे.
यूपी विधानसभा चुनाव 2022 (P Assembly elections 2022) के मद्देनजर तमाम राजनीतिक दलों के बीच वोट बैंकों को साधने के लिए नूराकुश्ती शुरू हो चुकी है. इस विधानसभा चुनाव में ऐसा पहली बार नजर आ रहा है कि सपा, कांग्रेस और बसपा जैसे सियासी दल मुस्लिम वोट बैंक के लिए कुछ भी खुलकर बचने से बोल रहे हैं. बात वोट बैंक की हो रही है, तो मायावती के एकाधिकार वाले दलित वोट बैंक को नहीं भूला जा सकता है. इस वोटबैंक की बदौलत ही मायावती चार बार यूपी में मुख्यमंत्री पद तक पहुंची हैं. लेकिन, बसपा सुप्रीमो के इस वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए आजाद समाज पार्टी के मुखिया और भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर आजाद 'रावण' लगातार कोशिशों में जुटे हुए हैं. मायावती का गढ़ कहे जाने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस बार चंद्रशेखर आजाद की पार्टी ने पंचायत चुनाव में 40 से ज्यादा सीटों पर कब्जा किया था. इसे बसपा सुप्रीमो मायावती के लिए एक बड़ा झटका कहा गया था.
'पंचायत आजतक' कार्यक्रम में चंद्रशेखर आजाद ने कहा कि दलितों को उनकी आबादी के हिसाब से भागीदारी देने वाले राजनीतिक दल से गठबंधन होगा. अगर ऐसा नहीं होता है, तो सूबे की सभी 403 विधानसभा सीटों पर आजाद समाज पार्टी चुनाव लड़ेगी. चंद्रशेखर के अभी तक के राजनीतिक सफर को देखें, तो स्थिति साफ है कि अगर आजाद समाज पार्टी का किसी अन्य राजनीतिक दल से गठबंधन नहीं होता है, तो वो यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में वोटकटवा की भूमिका ही निभाएंगे. हालांकि, चंद्रशेखर आजाद वोटकटवा बनने से इनकार कर रहे हैं. उनके हिसाब से इस बार दलित किंगमेकर की भूमिका में रहेगा. यूपी में 85 विधानसभा सीटें अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित हैं. अगर इन सीटों पर चंद्रशेखर रावण अपने उम्मीदवार उतारते हैं, तो वो भी एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी की तरह ही अपनेआप वोटकटवा बन जाएंगे.
उत्तर प्रदेश में ओबीसी समुदाय के बाद राज्य में दूसरी सबसे बड़ी हिस्सेदारी रखने वाले दलित समुदाय की आबादी करीब 21 फीसदी के आस-पास है. ये दलित वोटर जाटव और गैर-जाटव के तौर पर पहले से ही बंट चुके हैं. दरअसल, किसी जमाने में मायावती का इस पूरे दलित वोट बैंक पर एकछत्र राज्य हुआ करता था. लेकिन, 2012 के विधानसभा चुनावों के बाद से बसपा का ग्राफ लगातार नीचे गिरा. हालांकि, मायावती को अभी भी जाटव वोटरों का साथ हासिल है. लेकिन, उनके पार्टी को लेकर लिए गए फैसलों और उत्तर प्रदेश में विपक्षी दल के तौर पर उनकी निष्क्रियता ने आजाद समाज पार्टी को इस वोट बैंक में सेंध लगाने की जगह दे दी. बीते कुछ वर्षों में चंद्रशेखर आजाद बड़ी तेजी के साथ दलित नेता के तौर पर उभरे हैं. हाथरस हो या बलिया या फिर देश के कोई भी अन्य हिस्सा, जहां दलितों पर अत्याचार की खबर आती है, चंद्रशेखर वहां नजर आते हैं.
वहीं, गैर-जाटव वोटों में भाजपा ने व्यापक रूप से सेंध लगाई है. 2014 में भाजपा ने इस वोट बैंक में बड़ी सेंधमारी करते हुए बसपा को लोकसभा सीटों की संख्या में शून्य पर ला दिया था. भाजपा का ये प्रदर्शन 2017 के विधानसभा चुनाव में भी जारी रहा और इस दलित वोट बैंक को अपने साथ जोड़े रखते हुए पार्टी सत्ता में आई. 21 फीसदी कुल दलित आबादी में करीब 11 फीसदी जाटव और 10 फीसदी गैर-जाटव वोटर हैं. हाल ही में हुए मोदी सरकार के मंत्रिमंडल विस्तार में भी भाजपा ने इस वोट बैंक को अपने साथ बनाए रखने की भरपूर कोशिश की है. इस मंत्रिमंडल विस्तार में गैर-जाटव समुदाय से दो मंत्री बनाए गए हैं. वहीं, आजाद समाज पार्टी की बात करें, भीम आर्मी संगठन से निकली इस पार्टी ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दलितों के बीच अपनी अच्छी-खासी पकड़ बना ली है. चंद्रशेखर आजाद की इस पार्टी से प्रदेश भर के युवा जुड़ रहे हैं. वो सोशल मीडिया पर भी खासे एक्टिव हैं, जो उनकी रीच को धीरे से ही सही, लेकिन बढ़ाता जा रहा है.
मायावती के प्रो-बीजेपी बयानों ने दलित वोटों को मायावती से छिटकने में अहम भूमिका निभाई है. चंद्रशेखर आजाद ने इसी को अपने पक्ष में करते हुए बीते कुछ वर्षों में भीम आर्मी जैसे संगठन के सहारे दलितों की महत्वाकांक्षाओं को खूब हवा दी है. 2017 मे दलित उत्पीड़न के खिलाफ सड़क पर उतरने की बात कहते हुए राज्यसभा से इस्तीफा देने वाली मायावती विधानसभा चुनाव से कुछ समय पहले ही एक्टिव हुई हैं. और, 2007 की ही तरह इस बार उनकी चुनावी रणनीति सोशल इंजीनियरिंग के सहारे सत्ता में आने की है. इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मायावती के साथ 'माया मिली, न राम' वाली स्थिति हो सकती है. वहीं, बसपा सुप्रीमो से छिटका दलित वोटर अपने समुदाय की मजबूत आवाज बन चुके चंद्रशेखर आजाद के साथ ही जाएगा. इस स्थिति में कहा जा सकता है कि यूपी में पहले से ही बंटे हुए दलित वोटर को और ज्यादा बांटने का जिम्मा चंद्रशेखर ने ले लिया है.
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