बेटी और बेटे को बराबर बताने के लिए बहसें तो खूब होती हैं, लेकिन भेदभाव की बहुतेरी मिसालें भारतीय राजनीति में ही मिल जाती हैं - और एक मिसाल तो लोगों को देश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार यानी गांधी परिवार में ही नजर आती है.
राहुल गांधी की सत्ता और राजनीति में दिलचसपी न होने के बावजूद प्रियंका गांधी वाड्रा को एक राजनीतिक दायरे तक ही सीमित रखा जाता है. कांग्रेस के उदयपुर चिंतन शिविर में तो एक नेता आचार्य प्रमोद कृष्णम ने सीधे सीधे डिमांड ही रख दी थी - अगर राहुल गांधी तैयार नहीं हैं तो प्रियंका गांधी को ही कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया जाये. बहरहाल, अब तो ये बात पुरानी हो चुकी है. गांधी परिवार से बाहर के मल्लिकार्जुन खड़गे चुनाव जीत कर कांग्रेस अध्यक्ष बन चुके हैं.
उत्तर से दक्षिण तक पूरे भारत की राजनीति में ऐसे अनगिनत उदाहरण मिल जाएंगे. डीएमके नेता एम. करुणानिधि के जमाने में ही तय हो गया था कि उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी एमके स्टालिन ही होंगे, जबकि बेटी कनिमोझी मुख्य भूमिका से दूर ही रहीं.
महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार चाहते जरूर हैं कि बेटी सुप्रिया सुले भी राजनीति में स्थापित हो जायें. लेकिन बेहतर स्थिति में तो अजीत पवार ही लगते हैं, जबकि वो बेटे नहीं बल्कि भतीजे ही हैं. महाराष्ट्र में ही शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे के सामने जब वारिस चुनने की नौबत आयी तो बेटे उद्धव ठाकरे को ही तरजीह मिली, राज ठाकरे चुपचाप सब देखते रह गये.
बिलकुल वैसी ही स्थिति बिहार में कई साल पहले देखने को मिली थी. तब तो आरजेडी नेता लालू यादव (Lalu Yadav) का एक बयान भी काफी चर्चित रहा, "हमारा लड़का चुनाव नहीं लड़ेगा, तो क्या भैंस चराएगा?"
असल में ये उन दिनों की बात है जब चारा घोटाले में लालू यादव के जेल चले जाने के बाद राष्ट्रीय जनता दल में पप्पू यादव खासे...
बेटी और बेटे को बराबर बताने के लिए बहसें तो खूब होती हैं, लेकिन भेदभाव की बहुतेरी मिसालें भारतीय राजनीति में ही मिल जाती हैं - और एक मिसाल तो लोगों को देश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार यानी गांधी परिवार में ही नजर आती है.
राहुल गांधी की सत्ता और राजनीति में दिलचसपी न होने के बावजूद प्रियंका गांधी वाड्रा को एक राजनीतिक दायरे तक ही सीमित रखा जाता है. कांग्रेस के उदयपुर चिंतन शिविर में तो एक नेता आचार्य प्रमोद कृष्णम ने सीधे सीधे डिमांड ही रख दी थी - अगर राहुल गांधी तैयार नहीं हैं तो प्रियंका गांधी को ही कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया जाये. बहरहाल, अब तो ये बात पुरानी हो चुकी है. गांधी परिवार से बाहर के मल्लिकार्जुन खड़गे चुनाव जीत कर कांग्रेस अध्यक्ष बन चुके हैं.
उत्तर से दक्षिण तक पूरे भारत की राजनीति में ऐसे अनगिनत उदाहरण मिल जाएंगे. डीएमके नेता एम. करुणानिधि के जमाने में ही तय हो गया था कि उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी एमके स्टालिन ही होंगे, जबकि बेटी कनिमोझी मुख्य भूमिका से दूर ही रहीं.
महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार चाहते जरूर हैं कि बेटी सुप्रिया सुले भी राजनीति में स्थापित हो जायें. लेकिन बेहतर स्थिति में तो अजीत पवार ही लगते हैं, जबकि वो बेटे नहीं बल्कि भतीजे ही हैं. महाराष्ट्र में ही शिवसेना संस्थापक बाल ठाकरे के सामने जब वारिस चुनने की नौबत आयी तो बेटे उद्धव ठाकरे को ही तरजीह मिली, राज ठाकरे चुपचाप सब देखते रह गये.
बिलकुल वैसी ही स्थिति बिहार में कई साल पहले देखने को मिली थी. तब तो आरजेडी नेता लालू यादव (Lalu Yadav) का एक बयान भी काफी चर्चित रहा, "हमारा लड़का चुनाव नहीं लड़ेगा, तो क्या भैंस चराएगा?"
असल में ये उन दिनों की बात है जब चारा घोटाले में लालू यादव के जेल चले जाने के बाद राष्ट्रीय जनता दल में पप्पू यादव खासे एक्टिव हुआ करते थे. तब तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव छोटे छोटे हुआ करते थे - और तेजस्वी यादव का ज्यादा मन क्रिकेट में ही रमा रहता था.
तब पप्पू यादव बिहार में आरजेडी के नेता हुआ करते थे और मौका देख कर किशनगंज की एक सार्वजनिक सभा में वो खुद को लालू यादव का असली वारिस करार दिया था. पप्पू यादव का कहना रहा, "बेटा या बेटी होने से कोई वारिस नहीं हो सकता."
अपनी बात को विस्तार से समझाते हुए पप्पू यादव ने कहा था, 'लालू यादव मेरे लिए पिता तुल्य हैं... मैं आज जो कुछ भी हूं, वो लालू की ही देन है... लालू ने ही पूरे देश में सामाजिक न्याय को लेकर आंदोलन चलाया था... मैं उसकी ही देन हूं... इसलिए, मैं ही लालू का सच्चा वारिस हूं.'
लालू यादव को पप्पू यादव की दावेदारी फूटी आंख नहीं सुहा रही थी,लेकिन वो भी सही मौके का इंतजार कर रहे थे. आखिरकार एक दिन सार्वजनिक तौर पर बयान भी दिया, "भारतीय संस्कृति में बेटा ही पिता की विरासत संभालता है... मेरे बाद पार्टी का उत्तराधिकारी पप्पू यादव नहीं, बल्कि मेरा बेटा होगा... मेरे इस फैसले से जिसे परहेज है, वो पार्टी छोड़कर जा सकता है."
पप्पू यादव भी कहां जल्दी हथियार डालने वाले थे. पप्पू यादव ने राजनीतिक विरासत को लेकर एक और बयान दिया, "अगर ऐसा नहीं होता, तो चौधरी चरण सिंह के वारिस मुलायम सिंह नहीं होते... कर्पूरी ठाकुर के वारिस लालू यादव नहीं होते... ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं... वारिस का फैसला लोकतंत्र में जनता करती है."
पप्पू यादव अपनी दावेदारी को लेकर दलील देते रहे और फिर लालू यादव के कहने पर एक दिन उनको आरजेडी से निकाल दिया गया - और फिर जल्दी ही लालू यादव ने अपने छोटे बेटे तेजस्वी यादव को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया, लेकिन परिवार का झगड़ा आज तक खत्म नहीं कर पाये.
ये सारी बातें नये सिरे से इसलिए प्रासंगिक हो गयी हैं क्योंकि करीब डेढ़ दर्जन बीमारियों से जूझ रहे लालू यादव की सिंगापुर में किडनी ट्रांसप्लांट (Kidney Transplant) होने जा रही है - और उनकी दूसरी बेटी रोहिणी आचार्य (Rohini Acharya) ही पिता को अपनी किडनी डोनेट कर रही हैं.
सिंगापुर में रह रहीं रोहिणी आचार्य सक्रिय राजनीति में नहीं हैं, लेकिन ट्विटर पर उनकी राजनीतिक दिलचस्पी हमेशा ही देखने को मिली है - हालांकि, अब तक न तो लालू यादव और न ही राबड़ी देवी या लालू परिवार के किसी सदस्य ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है.
आरजेडी की राजनीति में पहले से सक्रिय होने के बावजूद लालू यादव ने मीसा भारती को भी नहीं बल्कि छोटे बेटे तेजस्वी यादव को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी चुना है - और तेज प्रताप यादव को ये चीज आज तक हजम नहीं हो पायी है. अलग अलग रूपों में उनके विरोध के स्वर अक्सर ही सुनने को मिलते रहे हैं.
बेटियां लेती नहीं, सिर्फ देती हैं!
रांची जेल से रिहा होने के बाद लालू यादव का दिल्ली के एम्स में इलाज चलता रहा, लेकिन वहां के डॉक्टरों ने किडनी ट्रांसप्लांट की सलाह नहीं दी थी. बाद में रोहिणी आचार्य की पहल और प्रयास से लालू यादव को सिंगापुर में किडनी अस्पताल के तौर पर जाने जाने वाले सेंटर फार किडनी डिजीजेज के डॉक्टरों से दिखाया गया - और वहां के डॉक्टरों ने लालू यादव के लिए किडनी ट्रांसप्लांट की सलाह दी है.
बीजेपी के सीनियर नेता आरके सिन्हा ने भी सिंगापुर के किडनी सेंटर में अपना इलाज कराया था. और फिर आरके सिन्हा ने ही लालू यादव को समझाया कि वो भी अपना इलाज उसी अस्पताल में करायें. जैसे ही ये बात रोहिणी आचार्य को मालूम हुई वो पिता के इलाज की कोशिश में जुट गयीं.
दिल्ली में आरजेडी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में 12वीं अध्यक्ष बनने के बाद 12 अक्टूबर को लालू यादव सिंगापुर के लिए निकले थे. लालू यादव के साथ राबड़ी देवी और बड़ी बेटी मीसा भारती भी गयी थीं.
किडनी ट्रांस्प्लांट को लेकर काफी कड़े नियम बनाये गये हैं, फिर कई लोग जैसे तैसे मैनेज कर लेते हैं. ऐसे ही लोगों के भरोसे किडनी रैकेट चलते हैं और समय समय पर उनका पर्दाफाश होता रहता है - कानूनी तौर पर भी और मेडिकल साइंस के हिसाब से भी सगे संबंधियों की तरफ से ही डोनेट की हुई किडनी ज्यादा सूट करती है, ऐसा माना जाता है.
ये भी देखने को मिलता है कि बच्चों के केस में माता पिता अपनी एक किडनी डोनेट करते हैं. या फिर पति-पत्नी भी एक दूसरे को करते रहे हैं. बेटे का भी पिता को अपनी किडनी देना आसान होता है, बनिस्बत बेटियों के जिनकी शादी हो चुकी होती है - क्योंकि उनका अपना अलग परिवार होता है. ऐसे सूरत में बड़े फैसले लेना काफी मुश्किल होता है.
रोहिणी आचार्य का पिता लालू यादव को किडनी डोनेट करने के लिए आगे आना काबिल-ए-तारीफ कदम है. हालांकि, बताते हैं कि लालू यादव बेटी से किडनी लेने के पक्ष में बिल्कुल नहीं थे. और रोहिणी आचार्य को इस बात के लिए पिता को तैयार करना भी एक चुनौती साबित हो रही थी, लेकिन आखिरकार रोहिणी ने पिता को किडनी लेने के लिए मना ही लिया.
सिंगापुर ले जाने के बाद और लालू यादव की किडनी सेंटर में प्राथमिक जांच के दौरान भी रोहिणी आचार्य ट्विटर पर लगातार अपडेट देती रही हैं. दैनिक जागरण की रिपोर्ट के मुताबिक, अगले 20 से 24 नवंबर के बीच लालू यादव कभी भी किडनी ट्रांसप्लांट के लिए सिंगापुर पहुंच सकते हैं, लेकिन इसके लिए उनको कोर्ट से इजाजत भी लेनी होगी.
एनडीटीवी से बातचीत में रोहिणी आचार्य ने कहा, 'हां, ये सच है कि मैं डेस्टिनी का बच्चा हूं... और पापा को अपनी किडनी देते हुए बहुत गर्व महसूस कर रही हूं.'
रोहिणी की रिमोट पॉलिटिक्स!
लालू परिवार को अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने का क्रेडिट तो जाता ही है और उसकी असली वजह भी सबको मालूम ही है. राबड़ी देवी के बिहार के मुख्यमंत्री बनने के वाकये से प्रेरित एक वेब सीरीज 'महारानी' का दूसरा सीजन भी आ चुका है, जिसमें एक्टर हुमा कुरैशी के काम की काफी तारीफ हुई है.
लालू यादव और राबड़ी देवी के अलावा उनके परिवार के तीन और सदस्य सक्रिय राजनीति में हैं. लालू यादव के छोटे बेटे फिलहाल बिहार के डिप्टी सीएम हैं, जबकि तेज प्रताप यादव भी नीतीश कुमार सरकार में मंत्री हैं - और लालू यादव की बड़ी बेटी मीसा भारती राज्य सभा की सदस्य हैं.
जब भी चुनाव होते हैं कयास लगाये जाते हैं कि रोहिणी आचार्य भी सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेने वाली हैं, लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो पाया है - फिर भी रोहिणी आचार्य को ट्विटर पर तेजस्वी यादव का सपोर्ट और बीजेपी के खिलाफ जोरदार हमला बोलते अक्सर देखा जा सकता है.
लालू के घर झगड़ा भारी!
अपनी तरफ से लालू यादव छोटे बेटे तेजस्वी यादव को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित कर चुके हैं, लेकिन घर का झगड़ा अक्सर बाहर सुनाई देने लगता है - ये झगड़ा तब और भी ज्यादा बढ़ जाता है जब चारा घोटाले में सजा काटने लालू यादव को जेल जाना पड़ता है. जब भी लालू यादव बाहर आते हैं और कुछ दिन रहते हैं घर की लड़ाई थोड़ी कम हो जाती है.
तेज प्रताप बनाम तेजस्वी की लड़ाई: तेज प्रताप यादव जो भी दावे करें लेकिन वो तो बिहार की राजनीति में कृष्ण और अर्जुन की ही लड़ाई खड़ी कर देते हैं - तेज प्रताप यादव अक्सर कहा करते हैं कि तेजस्वी उनका अर्जुन हैं और वो खुद को कृष्ण बताते हैं. वो बांसुरी भी बजाते हैं और कभी कभी शिव का रूप भी धर लेते हैं. वृंदावन की गलियां उनका पसंदीदा हैंगआउट हैं - लेकिन अक्सर ही वो रौद्र रूप धारण कर लेते हैं.
कहने को तो तेज प्रताप यादव सीनियर आरजेडी नेता जगदानंद सिंह के खिलाफ हमलावर हुआ करते हैं, लेकिन उनके निशाने पर तेजस्वी यादव ही रहते हैं - लेकिन जब तेज प्रताप ने पिता को दिल्ली में बंधक बना लेने का बड़ा इल्जाम लगाया तो मीसा भारती को भी अच्छा नहीं लगा था. मीसा भारती को इसलिए बुरा लगा क्योंकि लालू यादव रांची जेल से रिहा होने के बाद तब उनके आवास पर ही रह रहे थे.
मीसा को सबसे बड़ा मलाल है: पहले तेज प्रताप और मीसा भारती एक दूसरे के सपोर्ट के लिए घर में लड़ाई किया करते थे, लेकिन तेज प्रताप की मनमानियों के चलते मीसा ने हाथ पीछे खींच लिये, खासकर तब जब तेज ने दिल्ली में लालू को बंधक बना लेने का आरोप लगाया था.
लालू यादव के परिवार में सबसे बड़ी होने, पढ़ी लिखी होने के बावजूद मीसा भारती को उनका अपना हक न मिलने का हमेशा ही मलाल रहता है. ये ठीक है कि मीसा भारती को भी जो कुछ मिला है वो भी लालू यादव की बेटी होने के नाते ही, लेकिन वो तेजस्वी से काफी पहले से राजनीतिक तौर पर सक्रिय रही हैं. आरजेडी कार्यकर्ताओं में भी उनकी पैठ रही है, फिर भी बेटी और बेटे का फर्क मीसा ने हर कदम पर महसूस किया है. पिता के प्रति प्यार अपनी जगह है लेकिन अगर रोहिणी आचार्य के मन में भी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा है तो निश्चित तौर पर उनकी पीड़ा भी मीसा भारती जैसी ही होगी - बल्कि मीसा भारती के मुकाबले थोड़ा ज्यादा ही.
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